1 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार द्वारा तालाबंदी के दौरान श्रम कानूनों के साथ छेड़-छाड़ कर काम के घंटे 9 से 12 करने व काम से घंटों से ऊपर काम करने की सामान्य मजदूरी से दोगुणा के बजाए उतनी ही मजदूरी देने के निर्णय को संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार की तौहीन बताते हुए खारिज कर दिया। यह दिखाता है कि कोरोना जैसे संकट काल में भी सरकार ने उनकी भलाई के बजाए मजदूरों का अतिरिक्त शोषण करने की ही नीति बनाई।
इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि तालाबंदी के दौरान सड़कों पर परेशान होते हुए मजदूर के प्रति संवेदनहीनता दिखाते हुए, जिसमें सरकार ने संसद में बताया कि उसके पास कितने प्रवासी मजदूर अपने गांव-घर लौटे उसका कोई आंकड़ा भी नहीं है, मजदूरी की दर, सामाजिक सुरक्षा, मजदूर कल्याण, काम की जगह पर सुरक्षा व स्वास्थ्य और औद्योगिक सम्बंध को लेकर बने 44 मजदूर कानूनों को खत्म कर मात्र 4 कोड में समेट दिया गया है। श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर पूंजीपतियों के हित में किए जा रहे बदलावों से मजदूरों के हकों पर कुठाराघात हो रहा है। ये कोड राज्य के अंदर एक जगह से दूसरी जगह काम के लिए जाने वाले मजदर के बारे में शांत हैं। ये सिर्फ अंतर्राज्यीय प्रवासी मजदूरों की बात करता है। ये कोड संगठित व असंगठित मजूदरों के बीच विषमता को कम करने का कोई उपाए नहीं बताते। संगठित व असंगठित क्षेत्र की परिभाषाएं भी अस्पष्ट हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोड उन्हीं निर्माण स्थलों पर लागू होगा जहां 10 से ज्यादा मजदूर काम पर हैं। इसमें भी व्यक्तिगत गृह निर्माण को कोड से बाहर रखा गया है। अतः जहां 10 से कम अंतर्राज्यीय प्रवासी मजदूर काम कर रहे हैं वे किसी भी प्रकार के लाभ से वंचित रहेंगे।
भविष्य निधि के लागू होने के लिए न्यूनतम मजदूरों की संख्या 20 तय की गई है। सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि कितनी बड़ी संख्या में छोटी-छोटी निर्माण इकाइयों में काम करने वाले मजदूर इसके लाभ से वंचित रहेंगे। कार्य स्थल पर सुरक्षा व स्वास्थ्य वाले कोड में खेतीहर मजदूर, जो सभी मजदूरों का कम से कम 50 प्रतिशत होंगे, व कई अन्य मजदूर श्रेणियों को बाहर रखा गया है। स्वरोजगार में लगे ज्यादातर मजदूर किसी भी लाभ से वंचित रहेंगे। 250 से ज्यादा मजदूरों वाले स्थल पर ही सुरक्षा समितियों का गठन होगा जिसका मतलब कि बड़ी संख्या में मजदूर असुरक्षित वातावरण में ही काम करते रहेंगे।
300 से ज्यादा मजदूरों वाली इकाइयों में ही मालिक को मजदूर को निकालने के लिए अनुमति लेनी होगी जो संख्या पहले 100 थी। व्यवसाय करने की सहूलियत के नाम पर मजदूरों के अधिकारों का हनन हुआ है। तालाबंदी के दौरान पूंजीपतियों के दबाव में मजदूरों को उनकी कार्य की जगह पर रोकने के लिए उन्हें घर लौटने हेतु सरकार ने कोई खास इंतजाम नहीं किया या किया भी तो बहुत देर से किया, से मजदूरों का देश की अर्थव्यवस्था में योगदान स्पष्ट होने के बावजूद अभी भी जिस तरह से उनके अधिकारों को रौंदा जा रहा है यह किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए शर्म की बात होनी चाहिए।
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