कारपोरेट घरानों के कब्जे के चलते जनसाधारण की पहुंच से बाहर हो गए हैं चुनाव

देष की संसद के 543 सदस्यों में से 400 से ज्यादा करोड़पति – पन्नालाल सुराणा

भारत की चुनाव प्रणाली की दो प्रमुख खामियां हैं। पहली, इस पर धनाढ्य लोगों का कब्जा हो गया है। संसद और एसेंबलियों में वही जीत हासलि कर सकता हे जिसके पास अकूत धनबल है। धनबल पर होने वाले चुनावों में गरीबों, मेहनतकशों, बेरोजगारों और वंचित तबकों के हित की बात करने वाले सदस्य संसद या विधानसभाओं में पहुंच ही नहीं पाते। इस समय भारत की संसद में 543 सदस्यों में से 400 से ज्यादा करोड़पति हैं। यह संसद असली भारत ाक प्रतिनिधित्व नहीं करती; अलबत्ता कारपोरेट हितों का प्रतिनिधित्व भले करे। दूसरी खामी है कि किसी पार्टी को 31 प्रतिशत वोट मिलने पर बहुमत मिल जाता है जबकि 10 प्रतिशत वोट पाने वाली पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाती। इन दो प्रमुख खामियों को दूर करने के लिए चुनाव सुधार जरूरी है। ये विचार समाजवादी विचारक और पत्रकार पन्नालाल सुराणा ने व्यक्त किए। वे समाजवादी चिंतक किशन पटनायक की पुण्यतिथि पर गांधी शांति प्रतिष्ठान दिल्ली में आयोजित दसवें किषन पटनायक स्मृति व्याख्यान में बोल रहे थे।

उन्होंने सुझाव दिया कि सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाले उम्मीदवार की जीत की प्रचलित पद्धति की जगह आनुपातिक प्रतिनिधित्व (प्रपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन) की पद्धति अपनाई जानी चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा पार्टियों का प्रतिनिधित्व विधायिका में हो सके । उन्होंने सुझाव रखा कि चुनाव प्रचार अभियान पर राजनीतिक पार्टियों के खर्च का हिसाब भी चुनाव आयोग को दिया जाना चाहिए। इससे देश की जनता को यह पता चलेगा कि कारपोरेट घरानों ने किस पार्टी को कितना धन दिया है और पार्टियों ने अपने प्रचार के लिए अनुबंधित कंपनियों पर कितना खर्च किया है। उन्होंने इस दिशा में ठोस कानून बनाने की मांग की। सूचना का अधिकार कानून राजनीतिक पार्टियों के जमा-खर्च पर भी लागू हो। चुनाव लड़ने के लिए जमानत राषि विधानसभा के लिए 1000 रुपया और लोकसभा के लिए 2000 रुपया होनी चाहिए।

साहित्य वार्ता की ओर से आयोजित स्मृति व्याख्यान का विषय ‘चुनाव सुधार: जनसाधरण की भागीदारी का सवाल’ था। कार्यक्रम की अध्यक्षता पीयूसीएल के उपाध्यक्ष व वरिष्ठ अधिवक्ता रविकिरण जैन ने की। उन्होंने कहा कि चुनाव लोकतंत्र की कसौटी होते हैं। विकेंद्रीकरण के बगैर लोकतंत्र एक निरर्थक प्रणाली भर रह जाता है और उसके तहत होने वाले चुनाव भी। भारत में केंद्रीकृत व्यवस्था उत्तरोत्तर मजबूत होती गई है। यह भारत के संविधान के विरुद्ध है। जब तक विकेंद्रीकरण के अवधारणा के तहत स्थानीय निकायों – पंचायत व नगरनिगम – की निर्णायक भूमिका सुनिश्चित नहीं की जाती न लोकतंत्र संभव हे न समाजवाद।

कार्यक्रम का संचालन डाॅ. प्रेम सिंह ने किया। उन्होंने षुरुआत में किशन पटनायक के विचारों और संघर्ष का परिचय देते हुए कहा कि वे नवसाम्राज्यवाद के बरक्स वैकल्पिक राजनीति के सिद्धांतकार थे। इस मौके पर पत्रकार मदनलाल हिंद, अरविंद मोहन, हरिमोहन मिश्रा, अतुल कुमार, सतेंद्र यादव, राजेष मिश्रा, ‘सामयिक वार्ता के पूर्व प्रबंध संपादक महेष, शिक्षाविद् व लेखक प्रेमपाल शर्मा, मदन कष्यप, नंद किषोर, गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेंद्र कुमार, वरिष्ठ सोशलिस्ट नेता बलवंत सिंह खेड़ा, डाॅ. सुनीलम, रेणु गंभीर, राखी गुप्ता, कामरेड बलदेव सिहाग, तारकेष्वर सिंह, जगदीष तिरोडकर, पुरुषोत्तम, बिहार के ओबरा क्षेत्र के निर्दलीय विधायक सोम प्रकाष समेत बड़ी संख्या में दिल्ली विष्वविद्यालय, जेएनयू व जामिया मिल्लिया इस्लामिया विष्वविद्यालय के छात्र, शोधार्थी व शिक्षक षामिल हुए। धन्यवाद ज्ञापन साहित्य वार्ता, दिलली, के संयोजक बलबीर ने किया।

प्रस्तुति
डाॅ. जयंत कुमार कष्यप

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