-संदीप पाण्डेय

दूसरों के भ्रष्टाचार पर चैराहे पर सरेआम फांसी पर लटका देने, वसूली सुनिश्चित करने से लेकर जेल में डाल देने का ऐलान करने वाली आम आदमी पार्टी के अपने कार्यकर्ताओं पर जब भ्रष्टाचार के आरोप सही पाए गए तो उन्हें सिर्फ पार्टी से निष्कासित कर काम चला लिया गया। इसी से पता चलता है कि आप की कथनी और करनी में कितना अंतर है। बाकी जगह भी तो यही होता है। किसी पर भ्रष्टाचार का आरोप सही पाया जाता है तो उसे निलम्बित या ज्यादा से ज्यादा निष्कासित कर दिया जाता है। दूसरें के भ्रष्टाचार के खिलाफ आप के तीखे तेवर आखिर अपने भ्रष्टाचार पर नरम क्यों?

अवध प्रांत की संयोजिका अरुणा सिंह एवं हरदोई के कोषाध्यक्ष निकाले गए। सवाल यह उठता है कि क्या ये छोटी मछलियां नहीं हैं? जिस पार्टी का जन्म ऐसे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कोख से हुआ जिसका नेतृत्व अण्णा हजारे कर रहे थे क्या उसमें बिना ऊपर के संरक्षण के कोई नीचे का पदाधिकारी भ्रष्टचार करने की हिम्मत भी कर सकता है? अरुणा सिंह को किसका संरक्षण प्राप्त था? यानी इस मायने में भी आप वैसी ही है जैसे अन्य। भ्रष्टाचार की कोई शिकायत सही पाए जाने पर किसी छोटे पदाधिकारी को बलि की बकरा बना कर ऊपर के लोगों को बचा लिया गया। सवाल यह भी है कि यदि अरुणा सिंह पर लगा अरोप सही पाया गया तो क्या उनके द्वारा लिए गए निर्णयों की समीक्षा नहीं होनी चाहिए? और जो लोग उन्हें संरक्षण दे रहे थे क्या उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होनी चाहिए?

आप के जमीनी कार्यकर्ताओं में इस बात को लेकर काफी असंतोष है कि उत्तर प्रदेष के संयोजक ने स्थानीय स्तर पर कोई राय-मशविरा किए बगैर लोगों को टिकट देने में मनमानी की। उन्होंने अपने लोगों को उत्तर प्रदेश में संगठन के महत्वपूर्ण पदांे पर बैठा रखा है। सवाल यह है कि पार्टी संजय सिंह की कार्यशैली क्यों बरदाश्त कर रही है? असल में देखा जाए तो अरविंद केजरीवाल भी इसी तरह निर्णय ले रहे हैं। पहले उन्होंने घोषणा की कि वाराणसी का चुनाव वहां की जनता की राय लेकर लडें़गे। सभी को पूर्वानुमान था कि निर्णय क्या होगा। यदि आप अपने ही लोगों के बीच राय जानने की कोशिश करेंगे और लोगों की अंदाजा है कि क्या आप क्या चाह रहे हैं तो लोग तो आप की इच्छानुसार ही राय व्यक्त करेंगे। खैर इस बार तो उन्होंने यह दिखावा भी करने की जहमत नहीं उठाई। कह दिया कि लोगों की राय बाद में जानी जाएगी और बिना राय जाने ही वाराणसी से चुनाव लड़ने का निर्णय ले लिया। इससे उनके द्वारा पहले जनता के बीच लिए गए निर्णयों पर सवाल खड़े होते हैं।

मालूम पड़ा है कि आंदोलन के साथ पहले दिन से जुड़े प्रशांत भूषण की राय को दरकिनार कर दिया जा रहा है। तब समझा जा सकता है कि बाद में जुड़े योगेन्द्र यादव, आनंद कुमार और मेधा पाटकर की निर्णय लेने की प्रकिया में कितनी भागीदारी होगी? ये वे लोग हैं जो सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में अरविंद केजरीवाल से ज्यादा अनुभवी हैं। यह आश्चर्य का विषय है कि पार्टी में ऐसी विभूतियों के होते हुए पार्टी के मुख्य नेताओं के रूप में इनको न प्रचारित कर मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास और संजय सिंह की तस्वीरें पोस्टरों पर होती है।

जिसने स्वराज्य के दर्शन को अपनी राजनीति का आधार बनाया और जिसकी स्वाराज्य की पुस्तक पार्टी में बाइबिल मानी जाती है उस नेता ने आप की अवधारणा को फिलहाल व्यवहारिक कारणों से ताक पर रखने का फैसला किया है। स्वराज्य का दषर्न न तो विचारों में है और न ही कार्य प्रणाली में। क्या बाकी जगहों पर भी ऐसा नहीं होता? कागज पर तो नियम, कानून, नीतियां श्रेष्ठतम बना ली जाती हैं लेकिन क्रियान्वयन में समझौता होने लगता है जो अंततः भ्रष्टाचार की जड़ बनता है? आप जिस चीज के खिलाफ लड़ने चली थी अब उसी का शिकार हो गई है। और वह भी अपने निर्माण के एक वर्ष में ही।

अब सवाल यह खड़ा होता है कि वे हजारों-लाखों कार्यकर्ता क्या करें जो आदर्शवाद में पहले आंदोलन और फिर पार्टी से जुड़ गए? कुछ ने तो पहले आंदोलन छोड़ा, कुछ अब पार्टी छोड़ा रहे हैं। असली समस्या उनकी है जो अभी भी आदर्शों के अनुरूप ही चलना चाह रहे हैं।

जैसे अरविंद केजरीवाल ने अपना रास्ता तय किया उसी तरह आदर्षवादी कार्यकर्ताओं को अपना रास्ता खुद चुनना पड़ेगा। स्थानीय ईकाइयों को स्वराज्य की अवधारणा के मुताबिक स्थानीय स्तर पर निर्णय लेकर उसे लागू करना चाहिए। अलोकतांत्रिक तरीके से ऊपर से थोपे गए निर्णयों को मानने से इंकार कर आप ने जो रास्ता दिखाया है उसे अंगीकार कर स्थानीय स्तर पर सर्वसम्मति से खुली बैठक में तय किए गए उम्मीदवार को चुनाव लड़ाना चाहिए। एक केन्द्रीकृत निर्णय लेने की प्रकिया की स्वीकृति क्यों जरूरी है? फिर सवाल यह उठेगा सभी अपना-अपना निर्णय लेंगे तो पार्टी एक कैसे रहेगी? यदि पार्टी केन्द्रीकरण का षिकार हो जाती है और उसी तरह से काम करने लगती है जैसे अन्य पार्टियां तो ऐसी पार्टी की जरूरत ही क्या है? लोग स्थानीय स्तर पर निर्णय लेकर अपना जन प्रतिनिधि चुनेंगे और उसे अपने प्रति जिम्मेदार बनाएंगे। ऊपर से चुना गया प्रतिनिधि तो ऊपरी नेतृत्व के प्रति ही जवाबदेह होगा।

दूसरा सवाल यह भी खड़ा होगा कि निर्णय स्थानीय स्तर पर होंगे तो क्या झगड़े नहीं होंगे? इसलिए ऊपर से दिशा निर्देश जरूरी है। किंतु स्वाराज्य की अवधारणा में लोगों को इतना परिपक्व बनना पड़ेगा कि वे मिल बैठकर निर्णय ले सकें। जहां तक मतभेदों का सवाल है वे तो ऊपर भी हैं। कुछ खुलकर सामने आए हैं, जैसे मधु भादुड़ी ने प्रकट किया। कुछ फिलहाल विभिन्न कारणों से दबे हुए हैं। कई लोग ये मान रहे हैं कि प्रयोग में गड़बड़ी होते हुए भी एक अभिनव हस्तक्षेप के रूप में इसका समर्थन किया जाना चाहिए। कई मान रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी को कोई रोक सकता है तो आप ही है। कुछ निहित स्वार्थ और अवसरवाद के कारण भी आप से जुड़े हुए हैं।

यदि अरविंद केजरीवाल की गाड़ी पटरी से उतर गई है तो उसका डिब्बा बना रहना जरूरी नहीं। जरुरत है अपने आदर्षों को जीने की और जो सपना अरविंद केजरीवाल ने दिखाया है उसे साकार करने की।

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