समाज बीमार, बाजार लाचार, वापस सरकार

अरुण कुमार त्रिपाठी

इस सदी में तीसरी बार बाजार ने घुटने टेके हैं और सरकारों की वापसी हुई है। लेकिन इस बार समाज सबसे ज्यादा अपंग है। पहली बार सरकारों की वापसी तब हुई थी जब 11 सितंबर 2001 को न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड टावर पर आतंकी हमला हुआ था। दूसरी बार तब हुआ जब 2008 में अमेरिकी वित्तीय प्रणाली और उदारीकरण के नियमों की अंधेरगर्दी ने बैंकों को तबाह कर दिया था। तीसरी घटना नोवेल कोरोना महामारी के कारण हुई है। इस बदलाव ने जहां बाजार के अदृश्य हाथ वाले मिथक की धज्जियां उड़ा दी हैं वहीं देखते देखते महामारी फैल जाने में राज्य की विफलता भी प्रमाणित की है। इसी के साथ राज्य के अलोकतांत्रिक होने और कल्याणकारी होने की संभावना भी पैदा हुई है।

यह वैश्वीकरण का नया रूप है या उसका अंत? निश्चित तौर पर सत्तर और अस्सी के दशक में जिस रूप में वह शुरू हुआ था और 1989 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जिस तरह वह परवान चढ़ा वह स्थिति ज्यादा समय तक चल नहीं पाई। आरंभ में वैश्वीकरण की परिभाषा दी जा रही थी कि राष्ट्र-राज्य की शक्तियां बिखर रही हैं। हम राज्यों को जिन रूपों में जानते रहे हैं वह रूप मर रहा है। भविष्य में शक्तियां वैश्विक बाजार के हाथों में रहेंगी। मानव समाज की घटनाओं को आकार अर्थव्यवस्थाएं देंगी न कि राजनीति और सेना। वैश्विक बाजार संकीर्ण राष्ट्रीय हितों से ऊपर उठ जाएगा और अंतरराष्ट्रीय संतुलन कायम रहेगा। दुनिया में जिस तरह समृद्धि आएगी उससे तानाशाहियां लोकतंत्र में बदल जाएंगी। इस तरह गैर जिम्मेदार राष्ट्रवाद, नस्लवाद और राजनीतिक हिंसा समाप्त हो जाएगी। लेकिन यह सपना धीरे धीरे ध्वस्त होता गया और लगता है कि कोरोना महामारी के बाद बहुत हद तक अप्रासंगिक हो रहा है

कनाडा के राजनीतिक दार्शनिक और उपन्यासकार जान राल्सटन साल ने 2005 में ही अपनी पुस्तक कौलैप्स आफ ग्लोबलिज्म (वैश्वीकरण का पतन) में इस तरह का विश्लेषण प्रस्तुत कर दिया था। उन्होंने पाया था कि 9/11 के बाद राष्ट्राध्यक्ष कंपनियों के सीईओ के समक्ष दावोस में आर्थिक निवेश की विनती करते हुए नहीं आते। बल्कि कंपनियां सरकारों से सुरक्षा मांगती नजर आती हैं। बाजार को दूसरा झटका तब लगा जब 2008 की मंदी आई। उस समय भी बाजारों को सरकारों की जरूरत पड़ी और अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व से लेकर भारत सरकार तक ने आर्थिक बहाली के लिए अपने खजाने खोल दिए।

आज जब कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया को अल कायदा, आईएस और तालिबान से ज्यादा खतरनाक तरीके से अपने आतंक में जकड़ लिया है तब फिर बाजार दुबक गया है और राज्य ने पूरी दुनिया को अपने नियंत्रण में ले लिया है। राज्य की ऐसी ताकतवर उपस्थिति विश्व युद्धों के दौरान हुआ करती थी लेकिन प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान समाज की मौजूदगी इतनी कम नहीं हुई थी। यह शायद दुनिया के सामने पहला मौका है जब बाजार ही नहीं समाज भी दुनिया के सामने दुबक गया है। मेडिकल स्टाफ को छोड़कर कोई किसी को छूने को तैयार नहीं है। सोशल डिस्टैंसिंग यानी दूर दूर रहने के नए वैश्विक सिद्धांत ने समाज से उसका रिश्ता ही छीन लिया है। कोरोना संक्रमित व्यक्ति का न कोई घर है न परिवार। यह बेचारगी तो मृत्यु के बाद और भी बढ़ जाती है। संदेह का ऐसा वातावरण हाल निकट अतीत में कभी नहीं देखा गया। एक ओर हिंदू मुसलमान की दूरी बढ़ रही है तो दूसरी ओर गरीब और अमीर के बीच की खाई भी चौड़ी हो रही है। संभव है कि संक्रमण का यह डर समाज में नए किस्म की छुआछूत पैदा कर दे। समाज को बांधने वाला धर्म भी या तो लाचार हो चला है या सरकार के साथ तालमेल बिठा पाने में असमर्थ है। मजबूरी में हर कोई राज्य यानी सरकार की ओर ही देख रहा है। वही रोजी पर जाने के लिए पास देगा, वही दवा देगा और वही भूखे को भोजन देगा।

राज्य अपनी बढ़ी हुई शक्तियों के साथ दो रूपों में कार्य कर रहा है। एक ओर वह नागरिकों और औद्योगिक संस्थाओं को आर्थिक मदद देकर उन्हें पुनर्जीवन दे रहा है। वह अपने समाजों के स्वास्थ्य पर पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा खर्च कर रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण इस महामारी में कारगर नहीं हो पा रहा है। प्राइवेट अस्पताल तो घाटे के कारण बैठ रहे हैं। जो कुछ हो पा रहा है वह सरकार के कारण ही संभव है। चाहे दूसरे देशों से दवाइयां मंगानी हों या जांच किट आयात करनी हो या फैक्ट्रियों में दवाओं के उत्पादन में मदद करनी हो।

अमेरिकी संसद ने अगर अपने इतिहास की सबसे बड़ी 20 खरब डालर की मदद दी है तो भारत सरकार ने भी पहले प्रयास में एक लाख सत्तर हजार करोड़ करोड़ रुपए की इमदाद दी है। धन की बर्बादी कही जाने वाली मनरेगा और दूसरी योजनाओं की प्रासंगिकता बढ़ रही है। अमेरिका अपने बेरोजगार नागरिकों को बेरोजगारी भत्ते से लेकर तमाम तरह की सामाजिक सुरक्षा दे रहा है तो यूरोप की कई सरकारों ने निजी क्षेत्रों में काम करने वालों के वेतन अदा करने का काम किया है। विडंबना देखिए कि राष्ट्र राज्य को अप्रासंगिक बताने वाला यूरोपीय संघ आज अप्रासंगिक हो चला है। कोरोना बांड और राहत के मुद्दे पर वह आधा-आधा बंट गया है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जानसन ने अगर मार्गरेट थैचर के इस सिद्धांत को खारिज कर दिया है कि समाज कुछ नहीं होता तो फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रान ने वेतन के राष्ट्रीयकरण करने और कोरोना बांड जारी करने की बात की है। जबकि जर्मनी इसका विरोध कर रहा है।

ध्यान देने की बात है कि जनता और औद्योगिक क्षेत्रों की यह मदद वे सरकारें भी कर रही हैं जो दक्षिणपंथी हैं और सरकारों के कल्याणकारी काम में कम से कम यकीन करती हैं। मतलब बाजार हर समस्या का समाधान कर लेगा यह अवधारणा ध्वस्त हो रही है। हालांकि बाजार के समर्थक कह रहे हैं कि बाजार को सरकार ने ही ठप किया है इसलिए उसे पुनर्जीवित करना भी उसी का काम है। रोचक बात यह है कि सब्सिडी और राहत खत्म करने संबंधी वैश्वीकरण की नीतियां बनाने वाली ब्रेटनवुड की संस्थाएं आईएमएफ और विश्वबैंक इस काम को प्रोत्साहित कर रही हैं। इसी बीच में पहले जान है तो जहान है’ की बहसजान भी और जहान भी’ की ओर चल निकली है।

सवाल उठता है कि राज्यों की यह कल्याणकारी भूमिका महज छह माह या साल भर के लिए है या लंबे समय के लिए। क्या इस दौरान राज्यों ने तालाबंदी के बहाने लोकतांत्रिक अधिकारों को निलंबित करना नहीं शुरू किया है? अमेरिका में लाकडाउन समर्थकों को चीन जाने का उलाहना दिया जा रहा है तो मेडिकल स्टाफ और विशेषज्ञ जान की कीमत पर उसे खोलने का विरोध कर रहे हैं। भारत में भी केंद्र सरकार और वह भी कार्यपालिका के हाथों में इतनी सारी शक्तियों के अचानक आ जाने से लोकतंत्र समर्थक चिंतित हैं। उन्हें डर है कि कोरोना कम होने के बाद भी क्या लोकतंत्र पहले जैसी स्थिति में बहाल होगा या कड़ाई वाले कानून लंबे समय तक चलते रहेंगे। यह चेतावनी कई कोनों से आ रही है कि न्यायपालिका, विधायिका खामोश हैं और देश का संघीय ढांचा ठप हैं। विपक्ष और मीडिया तो पहले से ही हथियार डाले हुए हैं

निश्चित तौर पर इस समय सरकारों की यह वापसी जरूरी थी और इसलिए पूरी दुनिया के स्तर पर हुई है। संक्रमण से बचने के लिए लोगों की स्वतंत्रता पर अंकुश भी लगाना जरूरी था इसलिए लगाया गया है। लेकिन यह अंकुश कब तक चाहिए और कब तक रहेगा स्पष्ट रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। तालाबंदी जरूरत और जनता के व्यवहार पर निर्भर करेगी या नेतृत्व और शासक वर्ग की इच्छा पर? यह बहस चल निकली है। इसी दुविधा से आशंकाएं पैदा होती हैं। कितना अच्छा होता कि राज्य का कल्याणकारी चरित्र लंबे समय बना रहता, नागरिक एक जिम्मेदार व्यवहार सीख जाते और सरकारों की ताकतवर वापसी महामारी के साथ विदा हो जाती। संभावनाएं और आशंकाएं दोनों हैं पर यह तो समय ही बताएगा कि नई दुनिया और वैश्वीकरण का ऊंट अब किस करवट बैठता है?

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