संदीप पाण्डेय
जब 21 मार्च को लखनऊ के घंटाघर पर नागरिकता संशोधन अधिनियम, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर व राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के खिलाफ चल रहे मुस्लिम महिलाओं के धरना स्थल पर मैं पहुंचा और पहले की तरह अपना चर्खा निकाल कर चलाना चाहा तो तुरंत पुलिस आ गई। मैं यहां जब भी गया हूं तो जो मुख्य धरना स्थल पर महिलाओं के लिए चिन्हित क्षेत्र है उसकी सीमा पर बंधी रस्सी के बाहर ही बैठता हूं। उस दिन भी मैं बाहर ही बैठा था। पुलिस ने कहा कि धरना महिलाओं का है अतः मैं वहां नहीं बैठ सकता। तब तक कुछ महिलाएं भी मुख्य धरना स्थल से आ गईं। मैंने उन्हें बताया कि मैं कुछ देर चर्खा चलाना चाह रहा हूं और इसके लिए उनकी इजाजत मांगी। पुलिस से मैंने कह दिया कि यदि महिलाएं मुझे वहां बैठने से मना करेंगी तो मैं चला जाऊंगा। महिलाएं समझ नहीं पा रही थीं कि क्या निर्णय लें और पुलिस लगातार मुझे वहां से हटने का दबाव बना रही थी। एक महिला ने मुझे वहां से हट जाने की ही सलाह दी। इसके बाद मैं वहां से जब उठ कर जाने लगा तब तक पुलिस ने ऊपर किसी अधिकारी से बात कर मुझे हिरासत में लेने का निर्णय ले लिया। पुलिस मुझे अपने साथ जीप में ले जाने लगी।
तब तक मुख्य धरना स्थल पर मुझे कुछ जानने वाली महिलाओं को मेरी उपस्थिति की जानकारी हुई। फिर वे दौड़ती हुई आईं और पीछे पूरा महिलाओं का हुजूम चला आया। उन्होंने आते ही पुलिस को डांटा और उनसे पूछा कि वे मुझे कैसे ले जा सकते हैं? उन्होंने पुलिस से मुझे छुड़ा लिया और फिर दोनों तरह दो महिलाएं मेरे हाथ पकड़ कर मुझे वापस धरना स्थल की तरफ ले आईं और एकदम मुख्य धरना स्थल पर पहुंचा दिया। मुझे बैठने के लिए कुर्सी और पीने का पानी दिया गया। मेरे सफेद बाल और दाढ़ी देख उन्हें लगा कि मैं ज्यादा बुजुर्ग हूं। फिर उनमें से कुछ मुझे सलाह देने लगीं कि मैं धरना स्थल के पीछे से निकल जाऊं ताकि पुलिस मुझे गिरफ्तार न कर सके। मैंने उनसे कहा कि मैं तो उनके आंदोलन के समर्थन में कुछ देर चर्खा चलाने के उद्देश्य से आया था और यदि उन्हें आपत्ति न हो तो जो स्थान मैंने रस्सी के बाहर तय किया था वहीं बैठ कर चर्खा चला लूं। उनमें से कुछ को आशंका थी कि पुलिस मुझे फिर गिरफ्तार करने की कोशिश करेगी। मैंने उनसे उसकी चिंता न करने को कहा। मैंने कहा कि यदि पुलिस ले भी जाती है तो कुछ देर थाने पर बैठा कर छोड़ देगी अथवा किसी हल्की धारा में मुकदमा दर्ज करेगी तो जमानत लेनी पड़ेग
इसके बाद मैंने तय जगह बैठ कर चर्खा चलाया। सारा समय पुलिस वाले घेरे खड़े रहे और बार-बार मुझे चर्खा बंद करने के लिए कहते रहे। महिलाओं के जज़बात देख इस बार वे मुझे उठाने की हिम्मत नहीं कर रहे थे। मैंने उनसे कह दिया कि कुछ देर मुझे चर्खा चलाने दें फिर मैं खुद ही चला जाऊंगा। कुछ ने कहा कि कोरोना वाइरस की वजह से मुझे चर्खा चलाने की जिद्द नहीं करनी चाहिए। मैंने उनसे कहा कि यदि वे मुझे चर्खा चलाने के लिए छोड़ देते तो कोई भीड़ नहीं लगती लेकिन उनके द्वारा मुझे घेर कर खड़े होने से भीड़ बढ़ गई। फिर कुछ पत्रकारों ने भी मुझे कोरोना वाइरस के खतरे के चलते चर्खा न चलाने की सलाह दी। उनकी बात मान कर मैंने अपना चर्खा बंद कर दिया लेकिन ठाकुरगंज क्षेत्राधिकारी से यह आश्वासन ले लिया कि अगले दिन के जनता कर्फ्यू के बाद वे मुझे वहां बैठ चर्खा चलाने देंगे।
दो दिन पहले, 19 मार्च, को स्थानीय प्रशासन द्वारा पहले महिलाओं को कोरोना वाइरस का हवाला देते हुए उनको कम संख्या में उपस्थिति का सुझाव दिया गया और फिर जब उनकी संख्या पचास से कम हो गई तो पुलिस ने बल का प्रयोग कर धरने को खत्म करने की कोशिश की। शुरू में पुलिस व सुरक्षा कर्मियों की संख्या महिलाओं से ज्यादा थीं। लेकिन जैसे ही पुलिस ने महिलाओं को जबरन हटाने की कोशिश की और इसकी खबर फैली, देखते ही देखते हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष चले आए। कुछ महिलाओं को चोटें भी आईं और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। लेकिन महिलाएं इतनी बहादुरी से डटी रहीं कि ज्यादा संख्या में होने और पुरुष पुलिस वालों के महिलाओं के बीच में घुसने और आतंकित करने के बावजूद वे आंदोलनरत महिलाओं को नहीं हटा पाए। यह बहादुरी तो मैंने दूर से देखी और सुनी थी। किंतु 21 मार्च को तो प्रत्यक्ष मैंने महिलाओं की बहादुरी को देखा। यह बहादुरी देख मुझे सुखद आश्चर्य हुआ।
विवेकानंद ने कहा है कि असली भारतीय वहीं है जिसमें वेदांत की गहराई हो, इस्लाम की बहादुरी हो, इसाई का सेवा भाव हो व बौद्ध का करुणा भाव हो, यानी उन्होंने भी इस्लाम को उसकी बहादुरी के लिए ही पहचाना। 21 मार्च को मैंने मुस्लिम महिलाओं की इस बहादुरी का अनुभव किया।
जिन महिलाओं में इस किस्म की बहादुरी हो उन्हें कौन हरा सकता है? अब मेरा विश्वास पक्का हो गया है कि इस आंदोलन में जीत महिलाओं की ही होगी और सरकार को पीछे हटना पड़ेगा। नागरिकता संशोधन अधिनियम में धर्म और देशों के आधार पर जो भेदभाव है उसे खत्म करना होगा। इस देश में यदि लोकतंत्र व संविधान बचेगा तो हमें मुस्लिम महिलाओं को संघर्ष करने के लिए धन्यवाद देना होगा।
यह भारत के लिए कितने शर्म की बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख बान की-मून ने भारत सरकार को देश के संस्थापकों की दृष्टि से भटकने व धर्म के आधार पर भेदभाव कर देश को पीछे ले जाने की बात कही है।
भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने कोरोना वाइरस के खतरे से यह सीख लेने को कहा है कि प्रकृति के सामने सारे मनुष्य बराबर है और इंसान द्वारा बनाई गईं मनुष्यों की विभिन्न श्रेणियों का कोई मतलब नहीं रह जाता। यदि राष्ट्रपति सही में इन आदर्शों को मानते हैं तो उन्हें सरकार से धार्मिक भेदभाव के आधार पर बने नागरिकता संशोधन अधिनियम को वापस लेने की संस्तुति करनी चाहिए।
लेखक सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के उपाध्यक्ष हैं।