कश्मीर और धारा 370  पर समाजवादियों का स्टैंड

कश्मीर से धारा 370 को हटाये जाने के बाद से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, उसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी और उसके अनुषांगिक संगठनों (संघ परिवार) द्वारा  संसद से लेकर सड़क तक और मीडिया में एक ज़बर्दस्त दुष्प्रचार चलाया जा रहा है की समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया और मधु लिमये सहित कई समाजवादी नेता कश्मीर से धारा 370 को हटाए जाने के समर्थक थे। गृह मंत्री अमित शाह ने संसद के दोनों सदनों में कश्मीर से धारा 370 को हटाए जाने का प्रस्ताव रखते हुए  कहा की राममनोहर लोहिया और मधु लिमये  इसके खिलाफ थे। उन्होंने सन 1964 में लोक सभा में धारा 370 को लेकर हुई एक बहस का जिक्र करते हुए कहा कि “किस तरह मधु लिमये से लेकर राममनोहर लोहिया तक इसके खिलाफ थे। उन्होंने विपक्ष और खासकर समाजवादी पार्टी के सांसद अखिलेश यादव की ओर इशारा करते हुए पूछा कि क्या ये लोग भी धर्मनिरपेक्ष नहीं थे?”

देश के गृह मंत्री,  धारा 370 को लेकर 11 सितम्बर 1964 को लोक सभा में हुई जिस बहस का हवाला  दे रहे थे दरअसल वह बहस एक निर्दलीय सांसद प्रकाशवीर शास्त्री द्वारा धारा 370 को ख़त्म करने के लिए लाये गए एक निजी संशोधन  विधेयक पर हुई थी।  डा.  राममनोहर लोहिया ने इस मुद्दे पर दिए गए अपने 15-20 मिनट के भाषण में एक बार भी कश्मीर से धारा 370 को हटाए जाने का  ज़िक्र नहीं किया। (उनका यह पूरा भाषण लोक सभा की वेबसाइट पर मौजूद है। पृष्ठ संख्या 1321 -1326).   

अपने इस भाषण में डा.  राममनोहर लोहिया लगातार यह कहते रहे कि “वह तो चाहते हैं की हिंदुस्तान और पाकिस्तान के सम्बन्ध सुधरें… इसके लिए लचीला दिमाग़ बनाइये… लचीला दिमाग़  तभी हो सकता है जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान का महासंघ बने, तभी यह मसला हल किया जा सकता है।” 

मधु लिमये ने न तो इस बहस में भाग लिया और नाहीं कभी कश्मीर से धारा 370 को हटाने का समर्थन किया। बल्कि वे तो धारा 370 को बनाये रखने के पक्षधर थे। 1987 में लिखित अपनी पुस्तक “कंटेम्पोरेरी इंडियन पॉलिटिक्स” के चौथे अध्याय (पृष्ठ संख्या 81 से 94) में  “धारा 370 को ख़त्म करने की मांग” शीर्षक से विस्तार से  उन्होंने इस बारे में  लिखा है।

बीबीसी लंदन की हिंदी सेवा ने विगत 7 अगस्त 2019 को जब इस विषय पर मेरा साक्षात्कार किया और मुझसे यह जानना चाहा कि आख़िर राममनोहर लोहिया कश्मीर मुद्दे पर, ख़ास तौर पर अनुच्छेद 370 पर क्या विचार रखते थे तो मैंने कहा कि “हिन्दी और अंग्रेज़ी में लोहिया के समग्र विचार ‘राममनोहर लोहिया रचनावली’ संपादक, मस्तराम कपूर द्वारा नौ-नौ खंडों में प्रकाशित किये गए  हैं। इनमें कश्मीर पर एक एक पूरी किताब “भारत-चीन और उत्तरी सीमायें” शामिल है लेकिन इसमें कहीं भी उन्होंने कश्मीर में अनुच्छेद 370 को लगाए जाने का विरोध नहीं किया है और नाहीं कहीं भी उन्होंने इसे  हटाए जाने की मांग की है। कश्मीर के मुद्दे पर लगातार उनका यही स्टैंड रहा है कि कश्मीर के लोगों की रज़ामंदी के ख़िलाफ़ कोई भी काम नहीं होना चाहिए।उनको पाकिस्तान में रहना है या हिंदुस्तान में ये उनका फ़ैसला होना चाहिए। राममनोहर लोहिया कहते हैं “मेरा बस चले तो मैं कश्मीर का मामला बिना महासंघ (भारत-पाकिस्तान के महासंघ) बनाए  हल नहीं करूंगा. उनका कहना था कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान का महासंघ बनना चाहिए जिसमें कश्मीर चाहे किसी के साथ हो या फिर अलग इकाई बने, लेकिन महासंघ में आए।”

भारत-पाकिस्तान एकीकरण के हिमायती

राममनोहर लोहिया का मानना था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान एक धरती के दो टुकड़े ही हैं और सोच-समझ कर काम करें तो 10-15 साल में फिर से एक हो सकते हैं। लोहिया कहते हैं “कश्मीर का सवाल अलग से हल करने की बात चलती है तो मैं कुछ भी लेने-देने को तैयार नहीं  हूं। मेरा बस चले तो मैं कश्मीर का मामला बिना महासंघ के हल नहीं करूंगा। मैं साफ़ कहना चाहता हूं कि अगर हिंदुस्तान-पाकिस्तान का महासंघ बनता है तो चाहे कश्मीर हिंदुस्तान में रहे, चाहे पाकिस्तान के साथ रहे. चाहे कश्मीर एक अलग इकाई बन कर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान महासंघ में आए।पर महासंघ बने जिससे हम सब लोग फिर एक ही ख़ानदान के अंदर बने रहें।लोहिया  कभी भी बंटवारे के पक्ष में नहीं थे। वह  कहते थे कि 1947 में जो बंटवारा हुआ वो अप्राकृतिक था और कभी न कभी वो वक़्त आएगा कि जब भारत और पाकिस्तान मिलेंगे क्योंकि दोनों का एक ही इतिहास, भूगोल और संस्कृति है जब तक ये दोनों देश आपस में न मिल सकें तब तक इसका एक महासंघ बनना चाहिए। 

फ़रवरी 1950 में  राममनोहर लोहिया ने एक भाषण दिया था ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ जिसे बाद में एक लेख की शकल में उनकी पत्रिका “जन” के जून-जुलाई-अगस्त-सितंबर-अक्तूबर 1969 में धारावाहिक रूप में प्रकाशित किया गया और अब यह भाषण  ‘लोहिया रचनावली’ का हिस्सा है । अपने इस भाषण में  लोहिया ने कहा था “मेरा विश्वास है की पाकिस्तान की घटनाओं के लिए हिंदुस्तान के एक भी मुसलमान  को छूना (हाथ लगाना) पाप  होगा।ये  न सिर्फ़ मनुष्यता के ख़िलाफ़ पाप होगा बल्कि हिंदुस्तान की जनता और हिन्दुओं के ख़िलाफ़ भी।”

अपने इसी भाषण में उन्होंने ये भी कहा की “हिन्दुओं (भारत) को जल्द से जल्द ये बात समझ लेनी चाहिए की पाकिस्तान के विरोध के लिए ज़रूरी है कि वह मुसलमानो का दोस्त हो। उसी तरह जो मुसलमानो का विरोधी है वो ज़रूरी तौर पर पाकिस्तान का दोस्त या एजेंट है। मुसलमानो का विरोध करना और उन्हें दबाना दो राष्ट्रों के सिद्धांत का समर्थन करना है और इससे पाकिस्तान को ताक़त मिलती है। इसके अलावा साम्प्रदायिक दंगे कराने वालों के ख़िलाफ़  सरकार को तेज़ी से सख़्त से सख़्त कार्यवाई करनी चाहिए। हिंदुस्तान के लोग ऐसी कार्यवाई का स्वागत करेंगे।”

इसी भाषण में  राममनोहर लोहिया ने कश्मीर के सन्दर्भ में कहा की “हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच झगड़ा सिर्फ़ कश्मीर के  इलाक़े को लेकर है, और इसके अलावा कोई दूसरा झगड़ा दिखाई नहीं पड़ता। अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के अनुसार जैसा वह संयुक्त राष्ट्र संघ में माना और लागू किया जाता है, कश्मीर हिंदुस्तान का एक हिस्सा है और पाकिस्तान ने बेशर्मी से उसपर हमला किया है। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ इस आधार पर कार्यवाई नहीं हुई, यह विदेश नीति की ग्रंथियों के कारण है।” इसके साथ ही अपने इस भाषण में उन्होंने यह भी कहा की “हिंदुस्तान कश्मीर में मतगणना (जनमत संग्रह) करने को वचन बद्ध है, और इस वादे  को  पूरा करना होगा। यह एक लोकतान्त्रिक वायदा है। लेकिन वादा पूरा करने से पहले (वहां) लोकतान्त्रिक स्थिति लाना ज़रूरी है। आक्रमण करने वाली पल्टन को कश्मीर से बाहर  निकालना होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने निरीक्षक  भेज सकता है, लेकिन मतगणना, क़ानून के  मुताबिक बनी हुई कश्मीर की सरकार ही कराएगी। मैं जानता हूँ की ये लोकतान्त्रिक शर्तें यदि  संयुक्त राष्ट्र संघ आदेश न दे तो पाकिस्तान को मंज़ूर न होंगी, लेकिन हिंदुस्तान को भी यह साफ़ कर देना चाहिए कि उसे कोई और शर्तें मंज़ूर न होंगी। हिंदुस्तान की सरकार बहुत रियायतें केर चुकी यह सिलसिला अब बंद होना चाहिए।”

‘शेर-ए-कश्मीर’ कहे जाने जाने वाले शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने 1932 में ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की स्थापना की थी जिसे 1939 में जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस का नाम दिया गया।उन्होंने भारत की आज़ादी के बाद कश्मीर के पाकिस्तान में जाने का विरोध किया था।जम्मू कश्मीर के हिंदुस्तान में विलय के बाद वो जम्मू-कश्मीर के वज़ीर ए आज़म (प्रधानमंत्री) बनाये गए। क़ानूनी रूप से हिंदुस्तान के साथ कश्मीर की स्थिति क्या होगी, इस पर जवाहर लाल नेहरू के साथ उनकी लंबी चर्चा चली। वे संविधान सभा के सदस्य बनाये गए। संविधान सभा ने ही सर्वसम्मति से जम्मू कश्मीर के लिए अलग संविधान सभा का गठन किये जाने और राज्य के लिए धारा 306 के तहत विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने का प्रावधान किया जो बाद में अनुच्छेद 370 के नाम से अस्तित्व में आया। 

कश्मीर पर नेहरू से लोहिया के मतभेद

कश्मीर को लेकर जवाहर लाल नेहरू और लोहिया के विचारों में मतभेद की बात जगज़ाहिर है।अगस्त 1953 में जब नेहरू सरकार ने शेख़ अब्दुल्ला सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया तो राममनोहर लोहिया ने इसका पुरज़ोर विरोध किया था।1958 में जब शेख़ अब्दुल्ला जम्मू की जेल में थे और उनपर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया जा रहा था तो लोहिया ने अपने दो वरिष्ठ सहयोगियों लोक सभा सांसद कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया और राम सेवक यादव को उनसे मिलने जम्मू भेजा। साथ ही उन्होंने शेख़ साहब को एक खत लिखा। इस ख़त में डा. लोहिया ने लिखा था ‘शेख़ साहब, हम तो आपके साथ हैं और हम चाहते हैं कि आप न केवल कश्मीर का बल्कि पूरे देश का नेतृत्व करें. . । डा लोहिया के इस ख़त को बाद में अर्जुन सिंह भदौरिया ने अपनी आत्मकथा “नींव के पत्थर”में प्रकाशित किया। 

लोहिया के साथ शेख़ अब्दुल्ला का संबंध लगातार बना रहा। जिस समय लोहिया की मौत हुई  शेख़ अब्दुल्ला दिल्ली में नहीं थे। बाद में वे उन्हें  श्रद्धांजलि देने लोहिया के दिल्ली स्थित सरकारी निवास 7, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड आए। लोहिया के निकट सहयोगी रहे पूर्व सांसद लाडली मोहन निगम के अनुसार “लोहिया की मौत पर  शेख़ अब्दुल्ला  बहुत रोए थे। उस वक़्त उन्होंने कहा था कि लोहिया अकेला ऐसा आदमी था जो कश्मीरी लोगों का दर्द समझता था।”

राममनोहर लोहिया और उनकी सोशलिस्ट पार्टी की जम्मू कश्मीर मुद्दे पर  क्या राय थी यह भी उनकी किताब “भारत-चीन और उत्तरी सीमायें” में बहुत ही स्पष्ट रूप से दर्ज है। इसमें उन्होंने  कहीं भी कश्मीर में अनुच्छेद 370 को लगाए जाने का विरोध नहीं किया है और नाहीं कहीं भी उन्होंने इसे  हटाए जाने की मांग की है।कश्मीर के मुद्दे पर लगातार उनका यही स्टैंड रहा है कि कश्मीर के लोगों की रज़ामंदी के ख़िलाफ़ कोई भी काम नहीं होना चाहिए।

1948 में जम्मू कश्मीर के हिंदुस्तान में विलय के बाद सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने वहां की समस्याओं की जानकारी के लिए एक उप-समिति का गठन किया था।   राममनोहर लोहिया इस उप-समिति के संयोजक थे।समिति की इस रिपोर्ट में कहा गया कि “सोशलिस्ट पार्टी, कश्मीर की बहादुर अवाम और उसके नेताओं शेख़ अब्दुल्ला और मौलाना मुहम्मद सईद द्वारा पाकिस्तान, और उसके  शैतानी द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत के ख़िलाफ़ बहादुराना ढंग से डटकर खड़े रहने तथा साथ ही हिंदुस्तानी फ़ौज और वायु सेना के उन जांबाज़ सिपाहियों का अभिवादन करती है जिन्होंने सेक्युलर डेमोक्रेसी का परचम उठाये रखा। साथ ही पार्टी कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस के उन हालिया प्रस्तावों का भी स्वागत करती है जो वहां की जनता की दिली ख्वाहिश है की वे हिंदुस्तान का अभिन्न अंग बने रहना चाहते हैं। “

सोशलिस्ट पार्टी की इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि ” कश्मीर का,   हिंदुस्तान का अभिन्न अंग बने रहना, हिंदुस्तान की अवाम  के ऊपर एक बड़ी ज़िम्मेदारी है। कश्मीरियों ने जिस बहादुरी के साथ पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दिया है, ऐसे में हर हिंदुस्तानी का अब यह फ़र्ज़ बनता है की वह हर  दिल से   द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत की जो मामूली सी किरच भी रह गयी है उसे निकाल दे।हिंदुस्तान के हर शहरी की बराबरी की नागरिकता का  सिद्धांत चाहे उसका धर्म कुछ भी हो और जो बहुत ही पवित्र और आनंददायक विचार है, वह बने रहना चाहिए चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान या कुछ और।साथ ही लोकतंत्र के तक़ाज़े के मुताबिक़ कश्मीर से स्वच्छंद राजशाही का भी अंत होना चाहिए।अगर  हिंदुस्तान की अवाम कश्मीरियों के साथ प्यार, मुहब्बत और वफादारी का अटूट रिश्ता बनाना चाहते हैं तो उन्हें  हिंदुस्तान की हुकूमत पर इस बात के लिए दबाव डालना चाहिए की वह कश्मीर से राजशाही को ख़त्म करे और राज्य मंत्रिमंडल को यह निर्देश दे कि वह उन योजनाओं में दखलंदाज़ी न करे जो समाज के कमज़ोर वर्गों को ऊपर उठाने के लिए चलायी जा रही हैं जैसे की जागीरदारों और ज़मींदारों का ख़ात्मा।   

अगस्त 1952 में सोशलिस्ट पार्टी और जे बी कृपलानी के नेतृत्व वाली किसान मज़दूर प्रजा पार्टी का विलय हो जाने के बाद प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया। अगस्त 1953 में जब तत्कालीन नेहरू सरकार ने जम्मू कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया तो  प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने इसका पुरज़ोर विरोध किया।पार्टी ने सितम्बर 1953 में हुई अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक कश्मीर की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए अपने दो नेताओं  सादिक़ अली और मधु लिमये को  कश्मीर भेजने का फैसला किया। इन दोनों नेताओं ने क़रीब पंद्रह दिन जम्मू कश्मीर में  गुज़ारने के बाद अपनी रिपोर्ट पार्टी आलाकमान को दी जिसे अगले वर्ष यानि जनवरी 1954 में पार्टी की पटना में  हुई  राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पेश किया गया। इस बैठक में  प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की  राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने इस रिपोर्ट  को पूरी तरह स्वीकार करते हुए एक प्रस्ताव पास किया जिसमें कहा गया कि “प्रजा सोशलिस्ट पार्टी सभी लोगो की आज़ादी और अपने भविष्य का निर्धारण करने की  पक्षधर है।  प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की  राष्ट्रीय कार्यकारिणी इस बारे में कश्मीर के लोगों की राय का भी पूरी तरह समर्थन करती है।हालाँकि मौजूदा ख़राब सूरतेहाल में यह कहना संदेहास्पद ही होगा की हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच सौहार्द और कश्मीर समस्या का समाधान वहां जनमत संग्रह के ज़रिये किया जा सकता है। पार्टी की  राष्ट्रीय कार्यकारिणी मज़बूती  से सोचती है कि दोनों देशों  की सरकारों को आपस में मिल बैठकर इस बारे में कोई ऐसा हल तलाश करना चाहिए जो संतोषपूर्ण हो। साथ ही पार्टी दोनों देशों की अवाम से भी अपील करती है की वे अपनी अपनी देश की सरकारों पर दबाव डालें की वह इस मामले का सही हल तलाश करैं।”

राममनोहर लोहिया का कश्मीर पर स्टैंड जीवन पर्यन्त एक जैसा बना रहा और उसमें कभी कोई बदलाव नहीं आया। वे लगातार हिन्द-पाक एका की बात करते रहे और इसके तहत ही कश्मीर समस्या का हल तलाश किये जाने  की बात करते रहे।1963 में एक बार फिर उन्होंने इसके लिए मुहिम शुरू की। चलते।1963 में दिए गए अपने एक भाषण में  लोहिया ने फिर दोहराया “मेरा बस चले तो मैं कश्मीर का मामला बिना इस महासंघ के हल नहीं करूंगा। मैं साफ़ कहना चाहता हूं कि अगर हिंदुस्तान-पाकिस्तान का महासंघ बनता है तो चाहे कश्मीर हिंदुस्तान में रहे, चाहे पाकिस्तान के साथ रहे चाहे कश्मीर एक अलग इकाई बन कर इस हिन्दुस्तान-पाकिस्तान महासंघ में आए।पर महासंघ बने जिससे कि हम सब लोग फिर एक ही ख़ानदान के अंदर बने रहें।इस महासंघ के तरीके पर बुनियादी तौर पर हिंदुस्तान-पाकिस्तान की जनता सोचना शुरू करे। मैं इस सपने को देखता हूँ कि  हिंदुस्तान-पाकिस्तान फिर से किसी न किसी एक इकाई में बंधे।” अपनी असमय मृत्यु से डेढ़ साल पहले अप्रैल 1966 में राममनोहर लोहिया ने अपनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के कोटा सम्मेलन में एक प्रस्ताव के ज़रिये अपने इस मत को पार्टी लाइन बनाकर पारित भी करवाया जो पार्टी के नीति वक्तव्य का हिस्सा बना।

इतना ही नहीं  राममनोहर लोहिया सहित सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने जिनमें आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, जे बी कृपलानी, एस एम जोशी, एन जी गोरे, अशोक मेहता, राजनारायण, मधु लिमये, कर्पूरी ठाकुर, मधु दंडवते और जॉर्ज फर्नांडीज़ शामिल हैं, किसी ने भी कभी भी जम्मू कश्मीर से धारा 370 को हटाए जाने की वकालत नहीं की। बल्कि इनमे से अधिकांश तो जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह कराये जाने की मांग का  समर्थन करते रहे। जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ समाजवादी नेता लेखक और पत्रकार बलराज पुरी ने सन 2005 में प्रकाशित अपनी किताब “जे पी ऑन जम्मू एंड कश्मीर”  में विस्तार से जेपी के उन बयानों को प्रकाशित किया है जिसमें वे 1947 से लगातार शेख़ अब्दुल्ला और कश्मीरी अवाम के साथ खड़े नज़र आते हैं। 

जयप्रकाश नारायण 1953 से लेकर 1966 तक जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी से झगड़ते हैं की शेख़ अब्दुल्ला और कश्मीरी अवाम के साथ ज़्यादती हुई है और कैसे कश्मीर को अधिकतम स्वायत्तता देकर  शेख़ अब्दुल्ला को फ़ौरन रिहा किया जाना चाहिए और ये कि  उनके साथ एक सम्मानजनक समझौता  किया जाना चाहिए।  एक मई 1956 को जयप्रकाश नारायण, पंडित जवाहरलाल नेहरू को खत लिख कर कहते हैं “मेरी सूचना के अनुसार 95 फीसद कश्मीरी मुसलमान हिंदुस्तानी नागरिक बनकर रहना नहीं चाहते। इसलिए मुझे इस बात पर संदेह है की उन्हें बलपूर्वक दबाकर   यहाँ रखा जा सकता है जबकि वे यहाँ नहीं रहना चाहते।”  

अपनी यही बात वह 23 जून 1966 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को लिखे खत में  दोहराते हैं और शेख़ अब्दुल्ला से समझौता करने की मनुहार करते हैं। उनका यह खत पढ़कर ऐसा लगता है की फ़रवरी 1975 को श्रीमती इंदिरा गांधी ने  शेख़  अब्दुल्ला  के साथ जो समझौता किया उसकी बुनियाद जेपी का यही खत था। 

इस समझौते में जम्मू कश्मीर को अधिकतम स्वायत्तता देने का वायदा किया गया था जिसमें धारा 370 को मह्फ़ूज़ रखना भी शामिल था। इस समझौते का स्वागत और समर्थन करते हुए लोक सभा में सोशलिस्ट पार्टी के नेता प्रो. मधु दंडवते ने 4 मार्च 1975 को कहा था “उपाध्यक्ष महोदय, हम कश्मीर समझौते का स्वागत करते हैं।मेरा मानना है कि कश्मीर से धारा 370 को नहीं हटाया जाना चाहिए।मैं इस मामले में जनसंघ के सदस्यों से सहमत नहीं हूँ। मेरा अनुमान है कि यदि आप संविधान की धारा 370 को हटाते हैं तो इससे तनाव बढ़ेगा और इसके विपरीत परिणाम होंगे।मेरा मानना है की   धारा 370 को हटाने से ऐसा वातावरण बनेगा जो शायद जनसंघ के सदस्य भी पसंद नहीं करेंगे। अगर कश्मीर के लोग  धारा 370 के रहने से संतुष्ट होते हैं और चाहते हैं की उनके वाजिब अधिकार इस धारा के रहने से पूरे हो जायेंगे तो इसे रहना चाहिए। 

दिलचस्प बात ये है की 29 मार्च 1977 को जनता सरकार बनने के बाद के बाद जब पहली बार लोक सभा में जम्मू कश्मीर की स्थिति पर चर्चा हुई तो उस समय के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस बारे में सदन को आश्वस्त कराया था और कहा था कि “जब मैं प्रतिपक्ष में था तब मांग किया करता था कि धारा 370 समाप्त होनी चाहिए, लेकिन उस समय हम पर टीका-टिपण्णी की जाती थी की हम जम्मू कश्मीर की जनता की भावनाओं का आदर नहीं करना चाहते। आज वही धारा 370 के अंतर्गत बना हुआ संविधान  कश्मीर में राज्यपाल का राज लागू  करने का कारण  बना है। लेकिन मैं (यहाँ) एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ  कि नई सरकार(जनता पार्टी की सरकार) धारा 370 में कोई एक-तरफ़ा परिवर्तन नहीं करेगी। जम्मू कश्मीर की जनता के विचारों को ध्यान ध्यान में रखकर निर्णय किया जायेगा। जनता पार्टी की ओर से वरिष्ठ समाजवादी नेता मधु लिमये ने इस मुद्दे पर अपनी सरकार का समर्थन करते हुए उसी दिन लोक सभा में कहा था “मुझे पूरा विश्वास है कि हमारी सरकार कश्मीर में जल्द से जल्द चुनाव कराने का प्रयास करेगी और उस समय ये फैसला होगा की नैतिकता, औचित्य और लोकतंत्र का प्रेम किस को है, जनता किसके साथ है।”  

ग़ौरतलब है की महात्मा गांधी ने जम्मू कशमीर के बारे में जो बातें कहीं, सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने लगभग उन्हीं पर अमल किया जो अपने आप को गाँधीवादी समाजवादी मानते थे। 

महात्मा गांधी की कश्मीर पर राय

कश्मीर के बारे में महात्मा गांधी की क्या राय थी वह  29 जुलाई 1947 को दिए गए उनके भाषण से स्पष्ट हो जाता है। अपनी ऐतिहासिक कश्मीर यात्रा से दो दिन पहले 29 जुलाई को अपने प्रार्थना प्रवचन में  महात्मा गांधी ने कहा था- ‘कश्मीर में राजा भी है और रैयत भी। मैं राजा को कोई ऐसी बात नहीं कहने जा रहा हूं कि वे पाकिस्तान में न सम्मिलित हों और भारतीय संघ में सम्मिलित हों। मैं इस काम के लिए वहां नहीं जाऊंगा। वहां राजा तो है, लेकिन सच्चा राजा तो प्रजा है. …वहां के लोगों से पूछा जाना चाहिए कि वे पाकिस्तान के संघ में जाना चाहते हैं या भारतीय संघ में।  वे जैसा चाहें करें। राजा तो कुछ है ही नहीं, प्रजा सब कुछ है। राजा तो दो दिन बाद मर जाएगा, लेकिन प्रजा तो रहेगी ही। कुछ लोगों ने मुझसे कहा है कि यहकाम मैं पत्र-व्यवहार के जरिए ही क्यों नहीं करूं।  तो मैं कहूंगा कि इस तरह तो मैं पत्र-व्यवहार के जरिए ही नोआखाली का काम भी कर सकता हूं। 

जब पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर हमले की घटनाएं सामने आईं तो उन्होंने 26 अक्टूबर, 1947 को पाकिस्तान और भारत दोनों को स्पष्ट तौर पर चेताते हुए कहा था – ‘रियासत (कश्मीर) की असली राजा तो उसकी प्रजा है। अगर कश्मीर की प्रजा यह कहे कि वह पाकिस्तान में जाना चाहती है तो कोई ताकत नहीं दुनिया में जो उसको पाकिस्तान में जाने से रोक सके। लेकिन उससे पूरी आज़ादी और आराम के साथ पूछा जाए।  उसपर आक्रमण नहीं कर सकते। उसके देहातों को जलाकर उसे मजबूर नहीं कर सकते। अगर वहां की प्रजा यह कहे,भले ही वहां मुसलमानों की आबादी अधिक हो, कि उसको तो हिन्दुस्तान की यूनियन में रहना है, तो उसको कोई रोक नहीं सकता। अगर पाकिस्तान के लोग उसे मजबूर करने के लिए वहां जाते हैं तो पाकिस्तान की हुकूमत को उन्हें रोकना चाहिए। अगर वह नहीं रोकती है तो सारे का सारा इल्जाम उसको अपने ऊपर ओढ़ना होगा। अगर यूनियन के लोग उसे मजबूर करने जाते हैं, तो उनको रोकना है और उनको रुक जाना चाहिए, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है.(द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी)

क़ुरबान अली

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और समाजवादी आंदोलन का डॉक्यूमेंटेशन कर रहे हैं.)

संपर्क: qurban100@gmail.com

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