शिक्षा की गुणवत्ता सुधारना उ.प्र. सरकार की प्राथमिकता नहीं

शिक्षा की गुणवत्ता सुधारना उ.प्र. सरकार की प्राथमिकता नहीं
उ.प्र. में वृक्षारोपण अभियान के साथ स्कूल चलो अभियान की शुरूआत ’खूब पढ़ो, खूब बढ़ो’ नारे के साथ हुई। मुख्यमंत्री ने बच्चों का स्कूल बैग, यूनीफाॅर्म, जूता मोजा, निःशुल्क किताबों का वितरण किया। हरेक स्कूल को 40 पौधे रोपने का लक्ष्य दिया गया है। 31 जुलाई तक स्कूल चलो अभियान के साथ-साथ वृक्षारोपण अभियान भी चलेगा।
पूर्ववर्ती सरकारों की तरह योगी आदित्यनाथ सरकार भी शिक्षा के प्रति उपनी प्रतिबद्धता जाहिर करने के लिए ’खूब पढ़ो, खूब बढ़ो’ अभियान शुरू करने की बात कर रही है। एक नए अभियान शुरू करने के बजाए योगी यदि बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 ठीक से लागू करा दें तो वही बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। इस अधिनियम को लागू करने से उनके अभियान का उद्देश्य भी पूरा होगा।
सवाल यह है कि बच्चे कैसे पढ़ेंगे और आगे बढ़ेंगे जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता दोयम दर्जे की है और निजी विद्यालय शिक्षा का अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत जिलाधिकारी के आदेश से किए गए बच्चों के दाखिलों का आदेश मानने को तैयार नहीं हैं। लखनऊ में सिटी मांटेसरी स्कूल, नवयुग रेडियंस, सिटी इण्टरनेशनल, सेण्ट मेरी इण्टर कालेज, विरेन्द्र स्वरुप पब्लिक स्कूल व कानपुर में विरेन्द्र स्वरुप, चिंटल व स्टेपिंग स्टोन पब्लिक स्कूल खुलेआम अधिनियम की धज्जियां उड़ा रहे हैं और बच्चों को दाखिला नहीं दे रहे हैं और शासन-प्रशासन उनके सामने लाचार है। जब तक निजी विद्यालयों का आकर्षण और दबदबा रहेगा तब तक सरकारी विद्यालय नहीं सुधर सकते।
फिर तमाम बच्चे ऐसे हैं जो अभी भी विद्यालय से बाहर हैं। उ.प्र. की राजधानी लखनऊ में विधान सभा के नजदीक मुख्य हजरतगंज चैराहे पर जहां से योगी आदित्यनाथ की गाड़ी जब वे शहर में रहते हैं तो शायद रोज निकलती होगी बच्चे भीख मांगते हैं। ये मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम का माखौल उड़ाना नहीं तो क्या है? सरकार ऐसे बच्चों जो बाल दासता के शिकार हैं के लिए क्या कर रही है?
मुख्यमंत्री की प्राथमिकता वृक्षारोपण और बच्चों हेतु शिक्षा के लिए जरूरी भौतिक वस्तुएं, जैसे किताबें, ड्रेस, बैग, आदि ही हैं। किंतु सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता कैसे सुधरेगी इस ओर उनका ध्यान नहीं है। वे शिक्षकों को कैसे प्रेरित करेंगे कि वे ठीक से पढ़ाएं?
अब चूंकि अधिकारियों का मालूम है कि मुख्यमंत्री ने वृक्षारोपण का लक्ष्य दिया है तो शिक्षा विभाग कि प्राथमिकता, उन बच्चों के दाखिले के बजाए जो अभी विद्यालय नहीं जा रहे हैं, वृक्षारोपण हो जाएगी। अच्छा होता कि मुख्यमंत्री शिक्षा विभाग को यह लक्ष्य देते कि प्रत्येक विद्यालय में न्यूनतम कितने बच्चों का दाखिला होना है। सरकारी विद्यालयों के गिरते शिक्षा के स्तर और शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत गरीब परिवारों के बच्चों द्वारा निजी विद्यालयों में निःशुल्क शिक्षा के प्रावधान के तहत दाखिला ले लेने से सरकारी विद्यालयों में बच्चों की संख्या वैसे ही कम हो गई है। कई विद्यालय तो बच्चों के अभाव में बंद होने के कागार पर आ गए हैं। सरकारी शिक्षकों को यह लक्ष्य दिया जा सकता था कि जो भी बच्चे पढ़ाई से वंचित हैं, जिसमें बाल दासता के शिकार सभी बच्चे हैं, का दाखिला प्रयास पूर्वक सरकारी विद्यालयों में कराया जाए और उन्हें वहां टिकाए भी रखा जाए। भारत में बच्चों द्वारा आठवीं तक विद्यालय छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या भी बड़ी है।
सरकारी विद्यालयों में जितनी भी भौतिक सुविधाएं दी जानी चाहिए घीरे धीरे वे सभी पूरी की गई हैं। अच्छे भवन, शौचालय, मध्यान्ह भोजन, शिक्षकों का वेतन – ये सारी चीजें प्रायः संतोषजनक स्थिति में हैं। लेकिन जैसे जैसे भौतिक सुविधाएं बढ़ीं हैं, शिक्षा का स्तर घटा है।
सरकारी विद्यालयों को ठीक करने का एक ही उपाय है कि न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के फैसले को लागू किया जाए। न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल का मानना है कि शिक्षा की गुणवत्ता इसलिए गिरी है क्यों कि इन विद्यलयों के संचालन हेतु जिम्मेदार व्यक्तियों के बच्चे खुद इन विद्यालयों में नहीं पढ़ रहे हैं। यहां तक कि शिक्षकों और शिक्षा मित्रों के बच्चे भी उन विद्यालयों में नहीं पढ़ते जहां वे पढ़ाते हैं। इसलिए उनका मानना है कि जब तक इन लोगों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में नहीं पढ़ेंगे तब तक इन विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता नहीं सुधरेगी।
उ.प्र. सरकार को उच्च न्यायालय के इस आदेश का अनुपालन कराने के लिए छह माह का समय दिया गया था। किंतु उसने काफी विलम्ब से एक याचिका दाखिल की है जो अभी मंजूर नहीं की गई है। दूसरी तरफ मुख्य सचिव के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही अभी भी हो सकती है।
उ.प्र. सरकार को पिछली सरकार द्वारा देर से जमा की गई याचिका वापस लेनी चाहिए और न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के फैसले को अक्षरशः लागू करना चाहिए ताकि उ.्रप्र. के सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता सुधरे और वे लोग भी अपने बच्चों को इन विद्यालयों में पढ़ा पाएं जो अभी भारी शुल्क देकर अपने बच्चों को मनमाना शुल्क वसूलने वाले निजी विद्यालयों में पढ़ाने के लिए मजबूर हैं।
जब सरकारी बैठकों में जाने के लिए एयर इण्डिया से यात्रा करना अनिवार्य होता है ताकि घाटे में चल रही इस सरकारी विमान सेवा को जिंदा रखा जा सके तो सरकारी विद्यालयों को जीवंत बनाए रखने के लिए यह क्यों नहीं अनिवार्य किया जा सकता कि सरकारी वेतन पाने वालों के बच्चे सरकारी विद्यालय में पढ़ें?
सरकारी वेतन पाने वाले सरकारी घर, सरकारी गाड़ी, घर तक में काम करने के लिए सरकारी कर्मचारी व अन्य जायज-नाजायज सरकारी संसधनों का उपयोग करते हैं तो सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ाने और सरकारी अस्पताल में अपना और अपने परिवार वालों का इलाज कराने से क्यों परहेज करते हैं? आखिर सरकारी विद्यालयों और अस्पतालों की गुणवत्ता बनाए रखना क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं है?

लेखकः संदीप पाण्डेय
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