पन्नालाल सुराणा
अध्यक्ष, केंद्रीय संसदीय बोर्ड
सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया)

जिसे मतदाता चुनकर भेजते है उसने ठीक से काम नही किया तो उसे समय सीमा पूरी होने से पहले ही वापस बुलाने का अधिकार मतदाताओं को होना चाहिये यह बात सिद्धांततः ठीक है चुनाव प्रणाली में सुधार लाने का वह एक मुद्दा माना जाता है। लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने 1974 में सिटीझन्स फाॅर डेमाॅक्रसी की तरफ से चुनाव सुधार संबंधी तारकुंडे समिति नियुक्त की थी। उनके रिपोर्ट में कई सुझाव है जिनमें से एक राईट टू रिकाॅल का है। प्रजातांत्रिक राजनीति अच्छे ढंग से चले इसलिये पढ़े लिखे तथा समझदार नागरिक राजनीतिक दल, सरकारे तथा समाज के अन्य हिस्से इन पर निगरानी रखे, आवश्यक लगे तब हस्तक्षेप भी करे। यह भूमिका अच्छी है। तारकुंडे समिति ने जो सुझाव दिये उन सब पर जागरूक नागरिक चिंतन करे, भूमिका ले, अपने विचार समाज के सामने रखे-यह होते रहना चाहिये।

राईट टू रिकाॅल यह सुझाव सिद्धान्त के दृष्टि से तो ठीक है लेकिन भारत जैसे परम्परागत विषमता से जकड़े हुये समाज की स्थिति को देखते हुये केवल नकारात्मक तरीके पर जोर देना या भरोसा रखना उचित नही लगता। संसदीय प्रणाली ठीक ढंग से चले इसलिये समाज की अहंम समस्याएं सुलझाने संबंधी सम्यक नीतियां अपनाकर उस पर दृढ़ विश्वास रखने वाले कार्यकर्ताओं का शक्तिशाली संघटन बनाना यह ज्यादा जरूरी है। अपने संविधान में जो व्यवस्था निर्धारित की है उसके अनुसार हर बालिंग स्त्री पुरूष नागरिक को मतदान का अधिकार दिया है। केन्द्र तथा हर राज्य में विधायिका पर प्रतिनिधि चुनकर भेजने का अधिकार भी दिया है, सरकार का बजट मंजूर करना, अन्य कानून बनाना, प्रशासन पर निगरानी रखना यह सब काम विधायिका के जिम्मे है। लोकसभा या राज्यसभा में जिस पार्टी को बहुमत होगा उसे सरकार बनानी और चलानी होती है। विधायिका एवं कार्यपालिका अच्छे ढंग से चले इसलिये वहाँ सही माने में जनहित के लिये काम करने वाली पार्टी तथा सदस्य चुनकर भेजे जाय-यह देखना जागृत नागरिकों का प्रथम कर्तव्य है। राजनीतिक पार्टी या आसमान से नही टपकती। चंद मुठ्ठी भर लोगों को पार्टिया चलाने का ठेका दिया है ऐसा भी नही मानना चाहिये। अच्छे राजनीतिक दल बनाने-चलाने में अधिक से अधिक नागरिक रूचि ले, अपना योगदान दे यह आवश्यक है।

चुना हुआ प्रतिनिधि ठीक से काम नहीं करता हो तो उसे मतदाता वापस बुला ले यह कहना सिद्धान्ततः ठीक है। लेकिन उसे अमल में कैसे लाया जाय। इस पर गहराई से सोचना जरूरी है। चुना हुआ प्रतिनिधि अपना काम ठीक से नही करता है। ऐसा निष्कर्ष निकालने के लिये कम से कम एक साल का समय वाजीब मानना होगा। एक साल के बाद अगर दस पन्द्रह प्रतिशत मतदाताओं का वैसा लगे तो क्या प्रणाली अपनायी जाय ? वैसे सोच वाला मतदाता अपना वह मत कैसे रेकाॅर्ड करे ? हस्ताक्षर अभियान चलाया जाय क्या ? वैसा अभियान चलाने का जिम्मा कौन उठायेगा ? अपना अनुभव तो यह है कि अपने गाँव में पेय जल प्रंबंध अच्छा हो, या स्कूल के लिये कमरा निर्माण किया जाय। ऐसे विषय पर भी बहुत थोड़े मतदाता इकठ्ठा आकर संघठित कृति करते है। चुने हुये प्रतिनिधि को वापस बुलाया जाय इसलिये हस्ताक्षर अभियान चलाना यह तो उस प्रतिनिधि तथा उसके समर्थक से दुश्मनी मोल लेने वाला काम होगा। वह काम करने के लिये कितने नागरिक अपना समय शक्ति तथा पैसा खर्च करके आगे आवेंगे ? और ऐसे अभियान की भनक लगने पर प्रतिनिधि एवं उसके समर्थक ‘‘उसी प्रतिनिधि को समय पूरा होने तक प्रतिनिधि बने रहने दिया जाय’’ ऐसा हस्ताक्षर अभियान अधिक जोर शोर से चलाने के भी संभावना है। इस कश मकश में एक साल तोा जायेगा ही फिर अगर उस प्रतिनिधि का प्रतिनिधित्व दो साल के बाद समाप्त हो जाता है तो उस सीट के लिये उपचुनाव लेना होगा। उसमें उस प्रतिनिधि को उम्मीदवार बनने का अधिकार रहेगा या नही ? ऐसी बहुत सारी बातें हैं।

अपनी चुनाव प्रणाली में प्रतिनिधि की समय सीमा पाँच साल की है। यह बहुत लंबी नहीं है अगर कोई प्रतिनिधि ठीक से काम नही करता है तो नागरिक अपनी महत्वपूर्ण माँगो को लेकर आंदोलन करके वे हासिल कर सकते है। ‘‘जिंदा कौम पाँच साल चुप नही बैठती’’ ऐसा डाॅ. लोहिया ने कहा था। उसका यही मतलब है। साथ-साथ अगले चुनाव में वह प्रतिनिधि चुनाव जीत न सके ऐसा कोशिश करना, याने दूसरा अच्छा उम्मीदवार तैयार करना यह रास्ता भी नागरिकों के लिये खुला रहता है। इसलिये मेरी अपनी राय है कि राईट टू रिकाॅल मंजूर हो इस मुद्दे को लेकर कोशिशें करते रहना सार्थक नही होगा, विधयिका में तथा कार्यपालिका में अच्छे प्रतिनिधि भेजने के लिये कोशिश करना। इसी को जागृत नागरिक अग्रीमता दे तो प्रजातंत्र की वह बड़ी सेवा होगी।

तारकुंडे समिति ने चुनाव संबंधी अन्य भी कई महत्वपूर्ण सुझाव दिये है, उसमें एक की चर्चा अभी प्रस्तुत है।

चुनाव पर बाहुबली एवं धनबली का जो दबाव हो रहा है उसके कारण बहुसंख्यक मतदाता, जो गरीब एवं मेहनतकश है, उनका आकांक्षा एवं जरूरतों पर पानी फेर देती है। जे.पी. ने 1974 में जो तारकुंडे समिति नियुक्त की थी उनके रिपोर्ट में कई सारी शिफारिशें है। एक महत्वपूर्ण शिफारिश यह है कि आज की फस्र्ट पास्ट दी पोस्ट प्रणाली है। उसमें कुछ सुधार करके प्रपोर्शनल रिप्रेझेंटेशन को जोड़ देना चाहिये। जो सूत्र उन्होंने मिसाल के रूप में पेश किया वह ऐसा है-

1. चुनाव क्षेत्र तथा मतदान का तरीका आज जैसा ही रहे। यह प्रावधान किया जाय कि एक चुनाव क्षेत्र में जिस उम्मीदवार को पचास प्रतिशत से अधिक मत मिले है उसे ही प्रतिनिधि घोषित किया जाय। बाकी सारे सीटों का बंँटवारा पार्टियों को मिले मतदान के अनुपात में बाँटा जाय।

2. जैसे महाराष्ट्र विधानसभा में 288 सीटे है। आम चुनाव में जिन क्षेत्रों में किसी एक उम्मीदवार को पचास प्रतिशत से अधिक मत मिले है उसे विजयी घोषित किया जाय। समझो 100 सीटों में इस तरह से प्रतिनिधि चुने गये तो शेष 188 सीटें खाली मानी जाय। पार्टी को जितना मत मिला है उस अनुपात में उसको सीटें दी जाय।

पार्टी क – चालीस प्रतिशत मतदान, चालीस प्रतिशत सीटें, 72 सीटें

पार्टी ख – तीस प्रतिशत मतदान, तीस प्रतिशत सीटें, 58 सीटें

पार्टी ग – तीस प्रतिशत मतदान, तीस प्रतिशत सीटें, 58 सीटें

कुल 188 सीटें

3. पार्टी कोटे से जो उम्मीदवार भेजने है उनकी सूची वह पार्टी मतदान के पहले ही निर्वाचन अधिकारी को सौंप दे तथा प्रकाशित करे। पार्टी की नीति तथा कार्यक्रम क्या है उसके साथ उसके सभी उम्मीदवारों का चरित्र भी ध्यान में लेकर मतदान करें। उस सूची में परिवर्तन करने का अधिकार पार्टी को नहीं रहेगा। मतदाताओं के सामने अपने पार्टी की अच्छी छवि पेश हो। इसलिये अपने निष्ठावान एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं के नाम उस सूची में रखेगी।

प्रपोर्शनल रिप्रेझेंटन का स्वीकार कई यूरोपीय देशों के अलावा नेपाल, बांग्ला देश आदि आशियायी देशों ने भी किया है। हमें इस पर गहराई से सोच कर उचित प्रणाली का सुझाव देना चाहिये।

चुनाव सुधार की दिशा में निम्न सुझाओं पर भी विचार विमर्श किया जाय-

1. लोकसभा तथा विधानसभा का चुनाव पाँच साल के लिये एक ही साथ हो। अगर लोकसभा या किसी राज्य विधान सभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है। तो सभा भंग करके मध्यावधि चुनाव न लिया जाय। उसी सदन को शेष समय के लिये प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री चुनने को कहा जाय।

2. अपराधी तत्वों को चुनाव में हिस्सा लेने से रोकने के लिये अभि सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया उसे बरकरार रखा जाय। अन्य भी कुछ कदम उठाने की जरूरत हो तो सोचा जाय।

3. गरीब उम्मीदवार को चुनाव लड़ना संभव हो इस हेतु सरकार कुछ सहायता दे ऐसा सुझाव दिनेश गोस्वामी समिति ने पेश किया था। जिसकी सालाना आमदनी दो लाख से कम रू. की है ऐसे उम्मीदवार का एक पर्चा, 500/700 शब्दों का छपवाकर डाक से हर मतदाता तक पहुँचाने का इंतजाम एवं खर्चा सरकार करें। एक महीने के लिये एक कमरा कार्यालय के लिये दिया जाय आदि।

4. सत्ताधीश पार्टी अपनी पार्टी का प्रचार सरकारी खर्च से न करें इसलिये यह पाबंदी लगाई जाय कि जो सरकारी विज्ञापन अखबारों में प्रकाशित किये जाते है। उसमें किसी भी व्यक्ति (मंत्री नेता नौकरशाह आदि) व्यक्ति का फोटो या चित्र नही छपा जाय। केवल उस विभाग के संबधित अधिकारी का नाम एवं ओहदा छापा जाय। सरकारी योजना की जानकारी भर जनता को देनी है। इतना ही ऐसा विज्ञापनों का उद्देश्य होना चाहिये।

5. राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में रखा जाय। खासकर पार्टी की आय एवं व्यय तथा मिलकीयत इसकी जानकारी माँगने का अधिकार किसी भी नागरिक को होना चाहिये।
चुनाव सुधार की जरूरत केवल पढ़े लिखी लोगों की है। ऐसा नहीं मानना चाहिये। इस देश में 73 प्रतिशत लोग मेहनतकश एवं बहुत कम आमदनी वाले लोग है। उनकी समस्याओं संबंधी फैसले विधायिका एवं कार्यपालिका में लिये जाते है। वे ठीक से हो इसलिये उन 73 प्रतिशत लोगों के सही नुमाइंदे चुनकर जाना बहुत जरूरी है। इस दृष्टि से चुनाव सुधार संबंधी सोच विचार तथा प्रयास होने चाहिये।

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