राम

स्ट्रिंगफेलो बार (अमेरिका)
           

पिछले साल अक्टूबर के मध्य में ‘न्यूयार्क टाइम्स’ मेरे देश के अटलांटिक तट से तीन हजार मील प्रशांत-तट पर पहुंचा, जहां आजकल  रहता हूँ, और उसने मुझे गहरी चोट पहुंचाई | राममनोहर लोहिया की मृत्यु हो गई थी | मैं सोचता रहा कि राम की मृत्यु से मुझे इतनी चोट क्यों लगी | सतर साल की उम्र तक तो आदमी को ऐसी खबर सुनने की आदत पड़ जानी चाहिए कि उसके स्नेह-पात्र किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गयी है | निश्चय ही, लंबे अभ्यास के फलस्वरूप मुझे मृत्यु के हमलों से सुरक्षित हो जाना चाहिए था | इस बार मैं अरक्षित कैसे रह गया ?

            लेकिन राम की मृत्यु ने एक और सवाल भी उठाया | मेरी-उनकी जान-पहचान उन्नीस साल पुरानी थी, लेकिन जिन दिनों मैं उन्हें देख-सुन सकता था, विचार-विनिमय कर सकता था और मानव-जीवन की निरर्थकता ओं पर उनके साथ हंस सकता था, ऐसे दिनों की संख्या भी उन्नीस से अधिक नहीं होगी | अन्यथा मैं उन्हें उनके कार्यों से, लेखों से और एक-दुसरे को लिखे गए कुछ थोड़े-से खतों के माध्यम से ही जान सकता था |
            अभी-अभी अपने गहरे सामीप्य का एक अजीब कारण मेरे दिमाग में आया है | विद्वानों का ख्याल है कि मूल रूप में ‘कामरेड’ उनको कहा जाता था जो एक ही ‘कैमरा’ में, यानी एक ही कमरे में या तम्बू में रहते थे | राम के साथ मेरा सम्बन्ध एक ही कमरे में रहने वालों के रूप में शुरू हुआ था | विश्व-सरकार फाउंडेशन के अध्यक्ष के रूप में हैरिस वाफर्ड की सलाह पर, मैंने स्टाकहोल्म में हो रहे विश्व संघवादियों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए 1948 की गर्मियों में राम को निमंत्रित किया | उसके एक साल पहले हैरिस ने मुझे फाउंडेशन की स्थापना के लिए राजी किया था | और फाउंडेशन ने हैरिस और उनकी पत्नी को अध्ययन के लिए भारत भेजा था | वहां हैरिस की मुलाक़ात राम से हुई थी | अब स्वीडेन के एक होटल की भीड़ में, मेरे कमरे में ही ठहरे थे – हम दोनों ही स्वीडेन पहली बार गए थे | यानी हम ‘कामरेड’ थे, साथी थे | हम एक ही भीड़-भरी दुनिया के नागरिक थे, जिस दुनिया को इतिहास ने अचानक एक कमरे का रूप दे दिया था, जिसमें हम दो साथी मौजूद थे |
            रात को, हर रात हम देर तक बात करते, तभी हमारे मन मिले | बात उस सम्मेलन के बारे में नहीं होती थी जिसमें हम दोनों भाग ले रहे थे | अपनी महत घोषनाओं के बावजूद, सम्मेलन तो उन्नीसवीं सदी में ही फंसा था, जब  राष्ट्र अलग-अलग कमरों में रहते थे | हमारी बात अपने कमरे और उसमें रहने वालों के बारे में होती थी, हालांकि हम बहुधा झगड़ते थे, और कभी-कभी गरम भी हो जाते थे | लेकिन स्वीडन की गर्मियों की छोटी रातों में आधी रात गए तक अपने विस्तरों में लेटे हुए बात करते हुए एक-दुसरे को डॉ. लोहिया और मिस्टर बार कहना बेमतलब हो गया | लोहिया और बार कहना साथियों के लिए उचित न होता | इसलिए हम राम और विन्की हो गए और यही बने रहे |
            साल-भर बाद की बात है, या दो साल |
            हम न्यूयार्क में एक साथ जा रहे थे | फाउंडेशन ने इसकी व्यवस्था की थी कि वे हैरिस वाफर्ड के साथ अमरीका की यात्रा करते हुए जगह-जगह भाषण दें | लेकिन उस वक्त हमारी बात हो रही थी | मेरे देश में बढ़ रही राजनीतिक प्रतिगामिता के बारे में हमने बात की | वह प्रतिगामिता एक चरित्रहीन पाखंडी, सीनेटर जोसेफ मैकार्थी के नेतृत्व में शीघ्र ही भयंकर रूप लेने वाली थी |
            ‘क्या आपके उदारवादियों में कोई जेल जा रहे हैं ?’ राम ने पूछा |
            ‘नहीं’, मैंने जवाब दिया | फिर मजाक में कहा, ‘मुझे गम है कि हमारे उदारवादी जेल जाने को बिना लाइसेंस गाड़ी चलाने के जैसे आचरण से जोड़ते हैं |’
            राम का मुहं कसकर बंद हो गया |उन्होंने कहा, ‘तब मैं उनके बारे में कुछ नहीं सुनना चाहता |’ आज काफी संख्या में अमरीकी उदारवादी वियतनाम के कारण जेल जाना पसंद कर रहे हैं |
            लंबे दौर के बाद हैरिस ने मुझे टेलीफोन किया, ‘राम अलबर्ट आइन्स्टीन से मिलना चाहते हैं | बर्लिन में छात्र-जीवन के समय वे आइन्स्टीन के बड़े प्रशंसक थे |’ मैंने प्रिन्सिटन में आइन्स्टीन के घर पर मुलाक़ात की व्यवस्था कर दी | हैरिस और राम वहीँ आ गए | आइन्स्टीन ने तत्काल ही दुनिया के कमरे में अपने इस साथी के साथ आत्मीयता का अनुभव किया |
            ‘बताइए’, उन्होंने राम से कहा, ‘आपकी पार्टी जमीन के बारे में क्या करने जा रही है ?’
            राम का मुहं फिर कसकर बंद हो गया | तब, ‘हम जमीन जोतने वालों को दे देंगे |
            ‘क्या आप जमींदार को मुआवजा देंगे?’ आइन्स्टीन ने अपनी कोमल आवाज में पूछा |
            ‘नहीं |’
            ‘ठीक है, ठीक है,’ आइन्स्टीन ने धीरे से कहा |
            जनवरी, 1958 में मेरा एक बहुत पुराना सपना सच हुआ | मैं कई महीनों के लिए हिन्दुस्तान गया | मैं श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईदेश और वर्मा होते हुए भारत पहुंचा | एक नौजवान सहायक के साथ मैंने मोटरगाड़ी में भारत में लगभग 7,500 मील सफ़र किया, फिर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, जॉर्डन, सीरिया, लेबनान होता इसराइल गया | हम आर्थिक विकास की योजनाओं को परख रहे थे | इनमें से कई देशों में मुझे साथी मिले – जिस अर्थ में इस शब्द का इस्तेमाल इस लेख में किया गया है | उनमें से एक थे इसराइली विद्वान मार्टिन बुबर, जिनकी प्रसिद्द पुस्तक ‘मैं और तुम’ से मुझे राम से दोस्ती करने के लिए असाधारण गुण को, पूर्ण मानवीय साक्षात्कार के गुण को समझने में मदद मिली | जिन लोगों से मैं मिलना चाहता था, उनसे परिचय का बड़ा अच्छा साधन एक पुस्तिका साबित हुई, जो मैनें 1950 में दक्षिण और मध्य अमरीका की यात्रा से लौटने के बाद प्रकाशित की थी | इस पुस्तिका का शीर्षक था. ‘हम मनुष्य जाती के साथ शामिल हों’ और यह फ्रांसीसी व डच भाषाओं में प्रकाशित हुई, बाद में स्पेनी में भी | अब मैं सोचता हूँ कि अगर एक कमरे में, एक दुनिया में, मैं राम का सहभागी न बना होता तो शायद मैं वह पुस्तिका न लिखता | उस पुस्तिका में अन्य अमरीकियों से, जो उस समय शीत-युद्ध से, और हमारे देश में फैले एक तरह के बुद्धिहीन साम्यवाद-विरोध से परेशान थे, कहा गया था कि इस तथ्य को समझें कि अच्छा हो या बुरा, अब हम सबका एक ही भाग्य हैं, चाहें हमारे जाती, धर्म या सिद्धांत कुछ भी हों | उस सदी के मध्य में, जिसने मुख्यतः फैलती हुई औद्योगिकी के जरिये हमारी दुनिया को एक कमरा बना दिया है, मैंने मनुष्य जाति की बात करनी चाही |
            कलकाता में, जहां मैं एक ब्रितानी ‘कामेट’ से पहुंचा (कामेट पहला जेट जहाज था जो बाद में धातु-क्षय के कारण हवा में ही टूटने लग गया), मेरी राम से फिर बात हुई | इस बार हम उनके देश में ही फर्श पर बिछी चटाई के ऊपर पालथी मारकर बैठे | मुझे इसका कारण कभी ठीक से मालुम नहीं हो सका, लेकिन उस दिन वे कुछ उदास थे, गो जहाँ तक मैं समझ पाया, किसी तरह हारे हुए नहीं |
            कई साल बाद, जब आइन्स्टीन की मृत्यु हो चुकी थी और मैं खुद प्रिन्सिटन में रह रहा था, जहां आइन्स्टीन की याद बड़ी ताज़ी थी, एक अपरिचित अमरीकी महिला ने मुझे कानेक्टिकट से टेलीफोन किया कि क्या वे लोहिया को मेरे साथ चाय पीने के लिए ले आएँ | गर्मी का मौसम था | तीसरे पहर बगीचे में बैठकर हमने बातें कीं | उन्होंने मुझे बताया कि नीग्रो लोगों के साथ खाना खाकर गिरफ्तारी देने के लिए अगले दिन मिसीसिपी जा रहे थे | स्वभावतः वे जेल पहुँच गए, जहां वे जाना चाहते थे |
            फिर मैंने उनको नहीं देखा | मैं अब भी शोक से पीड़ित हूँ कि अब मैं अपने साथी को नहीं देखूंगा, कम से कम दुनिया के अपने इस कमरे में नहीं | लेकिन लगभग बीस सालों में उतनी ही मुलाकातों के लिए, जो मेरे मन में ताज़ी है, मैं कृतज्ञ हूँ | वे स्वयं अपने देश में एक प्रसिद्ध राजनेता थे और दुनिया के इस विशाल कमरे के अन्य भागों में, और इस सदी में भी, जिसमें हम दोनों जीवित रहे, उनकी कुछ प्रसिद्धी थी | लेकिन यहाँ, जिस पत्रिका के वे संस्थापक थे, उसमें मैं इसलिए नहीं लिख रहा था कि वे प्रसिद्ध थे, बल्कि इस कारण कि उनमें पूर्ण मानवीय साक्षात्कार का दुर्लभ गुण था | इसलिए कि मैंने उनका साक्षात्कार किया और इसलिए कि वह साक्षात्कार अब भी मुझे बल देता है |
लोहिया
कुमारी रूथ स्तेफेन (अमरीका)
बहादुर, दबंग, विद्वान… लोहिया को हम मानवता के अधिकार के सत्य और प्रतीक के रूप में याद करते हैं | …. उनकी पिछली अमरीका यात्रा में मिसीसिपी, जैक्सन में हम दोनों पुलिस लारी में थे | भूरे रंग के भारतीय लोहिया अपने देश के कपड़े पहने और मैं विशुद्ध अमरीकी लिबास में | गोरे लोगों के लिए बने होटल में एक साथ खाना खाने के प्रयास में गिरफ्तार हुए थे | होटल में मैनेजर ने हमें दरवाजे पर रोका था और जब हमने वापस जाने से इंकार किया तो हमें पुलिस ने इंकार किया था | मैं नहीं जानती थी कि आगे क्या होगा | हम दोनों पुलिस के बंद गाड़ी में अकेले थे | एक-दुसरे के साथ बैठे थे | लोहिया ने कहा – ‘हमने सिद्ध कर दिया कि हम मनुष्य होने के अधिकारी हैं |’
            जेल जाने के पहले ही शायद लोहिया की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कारण हम छोड़ दिए गए | गिरफ़्तारी की बात सुनते ही वाशिंगटन के ‘स्टेट डिपार्टमेंट के अंडर सेक्रेटरी, ने और भारतीय दूतावास के प्रमुख अधिकारी ने फ़ोन करके उनसे मांफी मांगी | ….. आज लोहिया के ये शब्द मुझे बार-बार याद आते हैं- हमने सिद्ध कर दिया कि हम मनुष्य होने के अधिकारी हैं |

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