– संदीप पाण्डे
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, के बोर्ड आॅफ गवर्नरस् की बैठक में मेरे विजिटिंग फैकल्टी के अनुबंध समाप्त करने के निर्णय के संदर्भ में उठे विवाद की पृष्ठभूमि में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर गिरीश चन्द्र त्रिपाठी ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के निदेशक प्रोफेसर राजीव संगल के माध्यम से मुझसे यह पुछवाया है कि मैं संस्थान के मुद्दे को विश्वविद्यालय का मुद्दा क्यों बना रहा हूं, मैं कुलपति के खिलाफ व्यक्तिगत आरोप क्यों लगा रहा हूं तथा इस पूरे मामले में क्यों न न्यायिक जांच बैठाई जाए?
कुलपति प्रोफेसर त्रिपाठी, जो केन्द्रीय सरकार की मानव संसाधन मंत्री द्वारा जिन पांच नामों की भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के बोर्ड आॅफ गवर्नरस् ने संस्तुति की थी को नजरअंदाज कर अध्यक्ष के रूप में थोपे गए थे, ने भले ही मेरे सम्बंध में निर्णय बोर्ड आॅफ गवर्नरस् के अध्यक्ष के रूप में लिया हो न कि विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में, लेकिन उनके समय में जिस तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े अयोग्य लोगों की नियमित शिक्षक के पदों पर नियुक्तियां और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े अयोग्य छात्रों के दाखिले हो रहे हैं, जब तक प्रोफेसर त्रिपाठी के कुलपति अथवा राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार का कार्यकाल पूरा होगा तब तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की अकादमिक गुणवत्ता को अपूर्तिनीय क्षति पहुंच चुकी होगी। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल में उच्च शिक्षा के संस्थानों, जिनमें फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टीट्यूट आॅफ इण्डिया एक दूसरा उदाहरण है, की गुणवत्ता के साथ धड़ल्ले से खिलवाड़ किया जा रहा है। मेरे खिलाफ विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे द्वितीय वर्ष के छात्र अविनाश कुमार पाण्डेय, न कि किसी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के छात्र, की शिकायत पर मेरा अनुबंध समाप्त करने का निर्णय लेकर खुद कुलपति महोदय ने इसे विश्वविद्यालय का मुद्दा बना दिया है। अविनाश पाण्डेय ने आरोप लगाया है कि मेरी डेवलेपमेण्ट स्टडीज की कक्षा में कक्षा, हाजिरी व परीक्षा की अनिवार्यता नहीं होती तथा बिना परीक्षा के छात्रों को ए ग्रेड मिल जाता है। मैंने अपनी हर कक्षा पढ़ाई है इस बात की पुष्टि की जा सकती है। हाजिरी व परीक्षा न लेने की छूट मैंने निदेशक से ले रखी थी। मेरा मानना है कि हाजिरी की अनिवार्यता के बजाए कक्षा रोचक बना कर छात्रों की कक्षा में उपस्थिति सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। पारम्परिक परीक्षा तो मैंने इससे पहले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर व कानपुर में भी पढ़ाते समय नहीं ली। मेरा अनुबंध समाप्त किए जाने से कुछ रोज पहले ही मुझे आॅस्ट्रिया में आयोजित साल्जबर्ग ग्लोबल सेमिनार में मेरी मूल्यांकन विधि पर प्रस्तुतिकरण हेतु बुलाया गया था। यह सेमिनार एजुकेशनल टेस्टिंग सर्विस, प्रिंसटन, जो जी.आर.ई. व टोएफल जैसी परिक्षाएं आयोजित करती है, इंटर-अमेरिकन डेवलपमेण्ट बैंक, वाशिंग्टन डी.सी., अमरीका के नेशनल साइंस फाउंडेशन व लंदन स्थित राॅयल सोसाइटी आॅफ आट्र्स द्वारा प्रायोजित किया गया था। मेरी कक्षा में जो छात्र अपना काम पूरा करता है उसे ही ए ग्रेड मिलता है, शेष को कमतर ग्रेड मिलते हैं, इस बात की भी पुष्टि की जा सकती है।
चूंकि यह कुलपति महोदय ही थे जिन्होंने बोर्ड की बैठक में, एजेण्डा में न होते हुए भी, मेरा मामला उठाया उन्होंने मेरे ऊपर नक्सलवादी व देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप लगा मुझे बदनाम किया है। उन्होंने मेरे शैक्षणिक कार्य को नजरअंदाज करते हुए गैर-अकादमिक बातों को मुद्दा बनाया है। यह रोचक बात है कि मेरे द्वारा यह मुद्दा उठाए जाने से, कि वर्षों तक कक्षा न पढ़ाने व कोई शोध न करने के बावजूद वे कुलपति कैसे बन गए, वे परेशान हुए हैं। अंतर सिर्फ यह है कि वे मेरे खिलाफ गैर-अकादमिक बातों को लेकर आरोप लगा रहे हैं और मैं उनकी अकादमिक योग्यता पर प्रश्न खड़ा कर रहा हूं।
मेरे पक्ष में खड़े लोग भी मेरे ऊपर लगाए गए आरोपों की जांच की मांग कर रहे हैं। बोर्ड आॅफ गवर्नरस् ने मेरे खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा वर्षों से किए जा रहे दुष्प्रचार के आधार पर बिना मुझसे कोई स्पष्टीकरण मांगे फैसला लिया है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के मुताबिक दण्ड देने से पहले आरोपों को साबित किया जाना जरूरी है। यहां कुलपति और उनके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोगी प्रोफेसर धनंजय पाण्डेय, जो भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के डीन आॅफ फैकल्टी अफेयर्स भी हैं और जिन्होंने मुझे साल्जबर्ग ग्लोबल सेमिनार में भाग लेने जाने हेतु मेरी वीसा फीस की प्रतिपूर्ति का आवेदन अस्वीकार कर दिया था, ने अफवाहों के आधार पर अपने पूर्वाग्रह बैठक में थोपे हैं। मेरे खिलाफ एकमात्र ठोस आरोप कि मैंने सरकार द्वारा प्रतिबंधित निर्भया के ऊपर बी.बी.सी. द्वारा बनाई गई फिल्म काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कम्प्यूटर पर डलवाई में कोई दम नहीं क्योंकि फिल्म का प्रदर्शन कक्षा में नहीं हुआ और यह फिल्म कोई भी यू-ट्यूब पर जाकर देख सकता था। फिल्म का विषय है महिलाओं के खिलाफ हिंसा। फिल्म को दिखाने से न तो कोई अराजकता फैलने का खतरा था न ही राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में पड़ने वाली थी। जितनी फुर्ती विश्वविद्यालय प्रशासन ने प्रतिबंधित फिल्म के प्रदर्शन को रोकने में दिखाई उतनी प्रबंधन विभाग के उन प्रोफेसर महोदय के खिलाफ जांच में नहीं दिखाई जिन पर उसी विभाग की एक छात्रा द्वारा पिछले वर्ष यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था। इन प्रोफेसर महोदय के खिलाफ लंका थाने में प्राथमिकी दर्ज है और न्यायालय में मुकदमा चल रहा है लेकिन विश्वविद्यालय ने अपनी जांच में इन्हें निर्दोष पाया है और इनकी बहाली की तैयारी हो रही है।
मैं भी चाहता हूं कि मेरे खिलाफ आरोपों की न्यायिक जांच हो, लेकिन आरोप झूठे पाए जाने पर कुलपति महोदय को इस्तीफा देना पड़ेगा।