– नीरज

देश में बढती असहिष्‍णुता के खिलाफ कुछ लेखकों–बुदि़्धजीवियों के प्रतिरोध को लेकर बहस खड़ी हो गई है। लेखकों– बुदि़्धजीवियों के समर्थकों के अपने और उनके प्रतिरोध का विरोध करने वालों के अपने तर्क हैं। लेखकों–बुदि़्धजीवियों के प्रतिरोध के तरीके का विरोध करने वाले लेखक–बुदि़धजीवी भी हैं और उनके अपने तर्क हैं। इस मामले में चुप रहने वाले लेखक–बुदि़धजीवी भी काफी हैं। उनके भी अपने तर्क होंगे। सोशल मीडिया में अनेक लोग अपना–अपना तर्क रख कर बहस कर रहे हैं। सरकार का कोई तर्क नहीं है। क्‍योंकि नरेंद्र मोदी ही सरकार हैं जो तरह–तरह की तर्कहीन बातें करके चुनाव जीत चुके हैं। उन्‍हें अरुण शौरी जैसे आरएसएस के बुदि्धजीवियों की जरूरत ही नहीं पड़ी। सेकुलर बुदि्धजीवियों का हमला होने पर भी उन्‍हें याद नहीं किया गया तो उन्‍होंने लेखकों–बुदि़्धजीवियों का पक्ष लेते हुए तर्क दिया है कि असहिष्‍णुता से विदेशी निवेश पर नकारात्‍मक असर पड़ेगा।

मेरे जैसे सामान्‍य राजनीतिक कार्यकर्ता को यह सब अजीब–सा लग रहा है। मुझे इसमें गंभीरता नहीं लगती। केवल तात्‍कालिक प्रतिक्रिया लगती है। मुझे लगता है इससे नरेंद्र मोदी यानी नवउदारवादी और सांप्रदायिक ताकतों का गठजोड़ ही मजबूत होगा। मेरी सीमा हो सकती है। मेरा राजनीतिक प्रशिक्षण किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्‍हा, सुनील और प्रेम सिंह के विचारों से हुआ है। उनके साथ काम करने का भी मौका मिला है। मैं इनके लेखन के द्वारा ही भारत के समाजवादी चिंतकों के साहित्‍य तक पहुंचा हूं। कुछ विचार साहित्‍य और रचनात्मक साहित्‍य के अध्‍ययन की भी कोशिश करता हूं। यह सत्‍ता की राजनीति में एक छोटी–सी धारा है। लेकिन मैं नवउदारवाद और सांप्रदायिकता के गठजोड़ की सबसे सशक्‍त वैकल्पिक धारा मानता हूं। ऐसा मानने वाले बहुत–से युवक युवतियां देश में हैं। वे शोर नहीं मचाते। चुपचाप अपना काम करते हैं। मुख्‍यधारा का मीडिया उस काम का नोटिस नहीं लेता। अपने को क्रांतिकारी कहने वाले संगठन भी उस धारा से बच कर चलते हैं। क्‍योंकि उसमें अभी या बाद में नाम या लाभ मिलने की संभावना नहीं है।

किशन पटनायक ने अस्‍सी के दशक से ही देश के बुदि्धजीवियों को बार–बार आगाह किया था कि वे नई आर्थिक नीतियों यानी नवउदारवाद का विरोध करें। वह देश के संसाधनों और गरीबों के लूट की व्‍यवस्‍था है। लेकिन बुदि्धजीवियों ने उनकी बात पर कान नहीं दिया। किशनजी ने ‘गुलाम दिमाग का छेद’ जैसा कान खोलने वाल लेख भी लिखा, लेकिन बुदि्धजीवियों को सरकारी संस्‍थानों के पदों और पुरस्‍कारों का लालच पकड़े रहा। वाजपेयी सरकार के दौरान भी वे पदों और पुरस्‍कारों से पीछे नहीं हटे। नवसाम्राज्‍यवादी और सांप्रदायिक ताकतों का गठजोड़ मजबूत होता गया। यदि मनमोहन सिंह के वित्‍तमंत्री या उसके बाद प्रधानमंत्री बनने के समय बुदि्धजीवियों के इस्‍तीफे हो जाते तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन पाते। वह भी छो‍ि‍ड़ये, बुदि्धजीवी अगर नवउदारवाद को बचाने के लिए इकठ्ठी हुई इंडिया अगेंस्‍ट करप्‍शन की टीम और आंदोलन के साथ नहीं जुटते तो भी मोदी का आना आसान नहीं होता। उस टीम में आरएसएस ही नहीं, सारे कारपोरेट घराने शामिल थे। मोदी को अकेले आरएसएस ने नहीं, कारपोरेट घरानों ने यहां तक पहुंचाया है।

आप कह सकते हैं कि मेरा तर्क डॉ प्रेम सिंह के विचारों से लिया गया है। यह सही है। डॉ प्रेम सिंह के विचारों को संघी और कांग्रेसी अनदेखा करते हैं तो बात समझी जा सकती है। लेकिन सेकुलर और प्रगतिशील बुदि्धजीवी भी उन्‍हें दबाने की कोशिश करते हैं तो यह एक गंभीर सवाल है। 2013 की शुरुआत में आई उनकी पुस्तिका ‘संविधान पर भारी सांप्रदायिकता’, जिसे जस्टिस सच्‍चर ने सबके पढ़ने के लिए एक जरूरी पुस्तिका बताया है, नरेंद्र मोदी और आरएसएस से अलग उनकी अपनी पीआर टीम के मंसूबों की स्‍पष्‍ट सूचना दे देती है। वह पुस्तिका जस्टिस सच्‍चर के कहने पर उर्दू और अंग्रेजी में भी छापी गई। लेकिन किसी बुदि्धजीवी ने आज तक उसका जिक्र नहीं किया है। अन्‍ना हजारे के नाम से चलाए गए भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन, आम आदमी पार्टी के बनने और दिल्‍ली का चुनाव जीतने की घटना का हर पहलू से विवेचन करने वाली पुस्‍तक ‘भ्रष्‍टाचार विरोध विभ्रम और यथार्थ’ (वाणी प्रकाशन) को छपे एक साल हो गया है। इस पुस्‍तक को भी पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया है। मेरी जानकारी में उसकी एक भी समीक्षा किसी पत्र–पत्रिका में नहीं आई है। उल्‍टा, लेखकों–बुदि़धजीवियों के प्रतिरोध की मुहिम में सक्रिय ‘जनसत्‍ता’ के पूर्व संपादक ओम थानवी ने टीवी चर्चाओं में एनजीओ सरगना, आरक्षण विरोधी, घोषित रूप से पूंजीवाद समर्थक, ‘केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी और दिल्‍ली में मुख्‍यमंत्री केजरीवाल’ का नारा लगाने वाले अरविंद केजरीवाल के पक्ष में डॉ प्रेम सिंह पर कटाक्ष किए। कौन नहीं जानता कि इस पूरे घटाटोप में अकेले डॉ प्रेम सिंह सही साबित हुए हैं।

डॉ प्रेम सिंह ने एक जगह यह लिखा है कि सेकुलर और प्रगतिशील लोगों ने उनकी वाजेपयी की राजनीतिक विचारधारा और शैली का विश्‍लेषण करने वाली पुस्तिका ‘मिलिए योग्‍य प्रधानमंत्री से’ (2004) तथा 2002 की गुजरात त्रासदी का विश्‍लेषण करने वाली पुस्तिका ‘गुजरात के सबक’ (2004) की कुछ चर्चा और तारीफ की। लेकिन वे ‘मिलिए हुकुम के गुलाम से’ (2009) पुस्तिका को पूरी तरह अनदेखा कर देते हैं। उसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी का गुलाम नहीं, दोनों को अमेरिका का गुलाम दिखाया गया है। मैं यहां जोड़ना चाहता हूं कि केंद्र सरकार द्वारा जेएनयू को नष्‍ट करने के इरादों का पूरा विरोध करना चाहिए। लेकिन दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय का पूर्व छात्र होने के नाते में यह भी कहना चाहता हूं कि कपिल सिब्‍बल जैसे कांग्रेसी काफी पहले दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय को लगभग नष्‍ट कर चुके हैं। बड़े–बड़े लोगों ने प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति को पत्र लिखे, मुलाकातें कीं, लेकिन दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय तबाह कर दिया गया। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय ही क्‍यों, इन सभी बुदि्धजीवियों के रहते हुए देश की पूरी शिक्षा व्‍यवस्‍था घटिया और मुनाफे का व्‍यापार बना दी गई है।

हकीकत की बात यह है कि डॉ प्रेम सिंह का लेखन बुदि़धजीवियों को आइना दिखाता है कि नरेंद्र मोदी को यहां तक लाने में अकेले कारपोरेट घरानों की नहीं, इन बुदि्धजीवियों की भी बड़ी भूमिका है। बढ़ती हुई असहिष्‍णुता के विरोध में लेखकों–बुदि़धजीवियों का प्रतिरोध होना ही चाहिए। बात इतनी है कि वह तात्‍कालिक प्रतिक्रिया बन कर न रह जाए जैसा कि अभी चलने वाली बहस से लग रहा है।

1 Comments

  1. Vinod Kumar

    भाकपा माले की विचार धारा दलीत के पक्ष में है लेकिन देश के सरकार के खिलाफ, सभी जानते हैं की लेनिन के बाद वैसी लोकप्रियता और मुकाम माले और लेफ्ट को किसी भी देश में नहीं मिली, सरकार बनना बनाना तो दूर किसी पार्टी के नेतृत्व का अनुसरण करते हुए भी कम्युनिष्ट पार्टियो को अनदेखा कर दिया जाता ये जग जाहिर है। कम्युनिष्ट का वजूद में होना इस देश का एक तबका है जो कम्युनिष्ट पर आश्रित है, सुरक्षित है लेकिन इससे आज तक उस तबके के लोगो पर कोई ज्यादा असर नहीं पड़ा है। महोदय कृपा कर मात्र सामाजिक महता छोड़ देश की विचार धारा में आये और नेताओ की पहचान कर उन लोगो को भी सामाजिक, सामरिक, सरकारी अनुदानों, योजनाओं और आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सहयोग दे। मेरी ये लेख सिर्फ माले समर्थित बिहार इकाई के उन नेताओ के लिए है जो सरकार के किसी भी योजना को दलित विरोधी बता उसका लाभ नहीं उठाने देते है।

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