“मैं चुनाव को बतौर आंदोलन देखता हूँ”: बिहार चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के उम्मीदवार गौतम कुमार प्रीतम के साथ सवाल जवाब

गौतम कुमार प्रीतम एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो लंबे अरसे से समाज के वंचित तबकों के हकों के लिए लोकतांत्रिक ढंग से संघर्ष करते आ रहे हैं। वह, सोशलिस्ट युवजन सभा के महासचिव हैं और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के बिहार चुनाव में बिहपुर विधानसभा (भागलपुर, बिहार) से उम्मीदवार भी हैं. बिहार के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और कोसी नवनिर्माण मंच और जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से जुड़े महेंद्र यादव ने बात चीत का संचालन किया। 

आपने राजनीति में कदम रखने का फैसला कब और किस परिस्थिति में किया ?

मैं खेल कूद में बहुत सक्रिय हुआ करता था जिसके कारण मैं विधायकों और मंत्रियों के संपर्क में आया करता था. बिहपुर आज़ादी के आंदोलन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली जगह रही है. यहाँ के सैंकड़ो लोग क्रांतिकारी हुए, जेल गए, शहीद भी हुए. मुझे लगता था कि उन लोगों की याद में स्मारक बनने चाहिए, पार्क होने चाहिए. इसके लिए मैंने विधायकों से कई बार बात की, यहाँ बुलाया भी. लेकिन उन्होंने हमेशा लोगों को ठगने का ही काम किया. वो सिर्फ जाति और धर्म की राजनीति करना जानते थे, स्थानीय विकास के मुद्दों में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी. 

इसी समय मैं राष्ट्रवादी दल से जुड़ा और राम मनोहर लोहिया सप्तक्रांति विचार यात्रा के नाम से हुई पूरे देश की एक यात्रा में भी भाग लिया. तब मुझे यह लगना शुरू हुआ कि बिहपुर को एक विकल्प चाहिए. ऐसी ही वैकल्पिक राजनीति के बतौर मैंने जनता की आवाज़ उठाने का संघर्ष शुरू किया. इससे यहाँ के लोगों में भी एक उम्मीद जगी. इसके बाद मैं सोशलिस्ट पार्टी इंडिया में शामिल हुआ और 2015 के विधान सभा चुनाव में उन्होंने मुझे यहाँ के उम्मीदवार के रूप में खड़ा किया. यहाँ के मेरे समर्थक और मित्र भी सभी यह चाहते थे कि अभी तक जो जाति और धर्म के आधार पर यहाँ पे राजनीति होती आई है उससे बेहतर एक राजनीति हो. तो इस तरह से हम यहाँ पे सक्रिय, चुनावी राजनीति में शामिल हो गए.

आप के नज़रिये से बिहार की प्रमुख समस्याएं क्या हैं और इनका हल कैसे किया जा सकता है?

बिहार की दो सबसे बड़ी समस्याएं, जो दोनों एक दुसरे से जुड़ी हुई हैं, शिक्षा और बेरोज़गारी हैं. कहा जाता है कि भारत युवाओं का देश है, लेकिन बिहार भारत में भी सबसे ज़्यादा युवा है. यहाँ के युवक बहुत बड़ी संख्या में बाहर पलायन करते हैं. इसका सबसे बड़ा कारण यहाँ की शिक्षा और रोज़गार की व्यवस्था की मूलतः सड़ी-गली हालत है. 

बिहार में जो सामाजिक न्याय के धुरंधर हुए, जिनकी पार्टियाँ यहाँ पिछले 30-35 सालों से राज कर रही हैं, पिछड़ों से ही आने वाले मुख्यमंत्री हुए, उन्होंने कभी भी शिक्षा पर सचेतन बात नहीं की. शिक्षा के नाम पर आयोग बना, प्रोफेसर मुचकुन्द दुबे उसके अध्यक्ष हुए, डॉ अनिल सद्गोपाल जो एक बड़े शिक्षाविद हैं उसके सदस्य बनाये गए, मदन मोहन झा सचिव बने. उन्होंने एक बेहतरीन 300 पृष्ठ की रिपोर्ट तैयार की जिस में सामान शिक्षा प्रणाली को कैसे लागू किया जाए इस पर सिफारिश दी गयी है. लेकिन हमारे वर्तमान मुख्यमंत्री ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया. 

भूमि सुधार के मुद्दे पर बंद्योपाध्याय कमेटी बनी, हवाई जहाज द्वारा सर्वेक्षण भी किये गए, लेकिन आज वो फाइलें धूल खा रही हैं. बिहार में सबसे ज़्यादा लड़ाइयाँ ज़मीन को लेकर हैं, लोग इन्ही में उलझे रहते हैं. साथ में यहाँ बाढ़ और सुखाड़ दोनों होते रहते हैं. महेंद्र भाई आप जहाँ से आते हैं वहां अधिकतर किसान एक से ज़्यादा फसल नहीं उगा पाते हैं. बिहपुर में दक्षिण में गंगा बहती है और उत्तर में कोसी, इन दोनों से ही यहाँ के लोग त्रस्त रहते हैं.

तो यह तीन समस्याएं शिक्षा, बेरोज़गारी और भूमि का बंटवारा यहाँ की सबसे बड़ी समस्याएं हैं.

आप बिहपुर विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। पिछले विधान सभा चुनाव में भी आप इसी क्षेत्र से प्रत्याशी थे। इस इलाके की आपके लिए क्या अहमियत है? बिहपुर की मुख्य समस्याएं क्या हैं? यदि आप चुने जाते हैं तो आप इनका कैसे हल करेंगे?

बिहपुर विधान सभा का क्षेत्र कृषकों का क्षेत्र है, यहाँ पे कोई इंडस्ट्रीज़ नहीं हैं. ज़्यादातर लोग रोज़गार के लिए बाहर पलायन करते हैं, एक-आधा परसेंट सरकारी नौकरी में हैं या शिक्षक हैं. गंगा और कोसी नदियों के बीच स्थित होने के कारण यहाँ की ज़मीन काफ़ी उपजाऊ है. यहाँ पे आम, लीची, केला, मक्का आदि की बहुत अच्छी, गुणवत्तापूर्ण खेती होती है. यहाँ का ज़रदालु आम मुख्यमंत्री नितीश  कुमार जगह जगह भेजते रहते हैं. लेकिन इनकी खेती करके किसानों की कमर टूटती है, उन्हें सही दाम नहीं मिलता. इस पर हाल में हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी, हम लोगों ने भी यहाँ पे धरना, अनशन सब किया. लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ. आज कल बरसात के मौसम में जगह जगह पर सड़कों पर पानी भर गया है, आवागमन बाधित है. तो पानी की सही निकासी बिहपुर में बड़ी समस्या है.

जो बिहपुर की वर्तमान जन-प्रतिनिधि हैं वह विपक्ष में हैं लेकिन पहले सरकार में भी रह चुकी हैं. सरकार में रहते हुए भी कोई काम नहीं किया, न विपक्ष में रह के कोई काम किया. जो जन-प्रतिनिधि आते हैं वह सिर्फ अपने घर-परिवार के बारे में सोचते हैं, अपने छोटे से कुंबे का सोचते हैं. 

यदि यहाँ पर मक्के का कोई उद्योग लगाया जाये, गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी जिनका यहाँ पर बहुत से किसान पालन करते हैं, उनके चारे की फैक्ट्री लगाई जाए, फ़ूड प्रोसेसिंग का प्लांट लगाया जाये तो किसानों की मदद हो सकती है. केले से बहुत से उत्पाद बन सकते हैं जैसे फाइबर, केले के चिप्स आदि. लेकिन आज यहाँ पर केले के किसान भुख-मरने  की कगार पर हैं.

बहुत से लोग जो लॉकडाउन के कारण सड़कों को लहू-लोहान करते हुए अपने घर तक आये हैं, अब उनका केवल पैर लहू-लोहान नहीं है, ह्रदय भी है, आँख भी है और हाथ भी है क्योंकि बच्चों को क्या भोजन दें यह उन्हें नहीं पता. सावन के महीने में यहाँ का केला बाहर बहुत सी जगह जाता था. जुलाई-अगस्त-सितम्बर यह केला के लिए मुख्य सीजन है. लेकिन लॉकडाउन की वजह से, मार्किट डाउन होने की वजह से, देश में आई इकनोमिक क्राइसिस की वजह से, किसानों का कमर टूट रहा है और साथ में खेतों में काम करने वाले किसान के जो सहयोगी मज़दूर हैं उनका भी कमर टूट रहा है. इन सब चीज़ों पर कोई ध्यान नहीं है.

यहाँ गेहूं की भी बहुत अच्छी खेती होती है. जब पलायन करने वाले मज़दूर लॉकडाउन में वापस घर आ रहे थे, तो जहाँ भी गेहूँ की कटाई हो रही थी वहां मज़दूरों ने खेत में जाके गेहूं की कटाई की. इसका उनको फ़ायदा मिला. सरकारी अन्न से नहीं मिला, सरकारी गोदाम बंद थे. सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) ने रहनुमा फाउंडेशन और यहाँ के स्थानीय साथियों के साथ मिलके भी 1600-1700 परिवारों तक राशन पहुँचाने का काम किया. लेकिन उस वक़्त सरकारी प्रतिनिधि, चाहे वह प्रथम अध्यक्ष हों, ज़िला अध्यक्ष हो, कोई और पदाधिकारी हों, सांसद, पूर्व सांसद हों, विधायक हों कोई मदद के लिए तैयार नहीं हुआ, किसी ने सुध नहीं लिया. जनता पूछ रही थी कि सरकार कहाँ है.

बिजली गांव-गांव पहुंचाई जा रही है लेकिन उसमें बड़ा घोटाला है. बिजली बिल हमेशा बहुत ज़्यादा आता है, दो-दो महीने पर इक्खट्टा आता है और उसमें लेट फीस जोड़ लिया जाता है. ‘हर घर जल’ योजना के तहत सड़कों को तोड़ फोड़ के बराबर कर दिया गया है, कहीं वापस मरम्मत नहीं की गयी है और अभी कहीं पानी भी आना शुरू नहीं हुआ है. 

बिहपुर में तीन प्रखंड मुख्यालय हैं : नारायणपुर, बिहपुर, खरीक. सभी प्रखंड कार्यालयों में स्थिति ख़राब है. कहीं एक कर्मचारी 13 पंचायतों को देख रहे हैं, कहीं CO हैं तो BDO नहीं, BDO हैं तो CO नहीं. सरकार का दावा है कि बहुत विकास हो रहा है, सारा मीडिया तो उन्ही के पैसे से चलता है. लेकिन मैं आपको बता सकता हूँ की ज़मीन पर कुछ भी नहीं हो रहा है. 

अब सरकार चुनाव की तैयारी में ज़बरदस्त तरीके से लगी हुई है. रोज़ नयी नयी घोषणाएं हो रही हैं. अभी हाल ही में शिक्षकों को खुश करने के लिए उनकी तरफ कुछ एक टुकड़ा फ़ेंक दिया गया है. लेकिन उनका कोई सम्मान नहीं है. 

सरकार लोक-लुभावन एजेंडा बनाकर के केवल वोट की राजनीति कर रही है. शिक्षा का बंटा धार किये हुए हैं लेकिन मैट्रिक पास करने पे 10,000, इंटर पास करने पे 15,000, बी ए पास करेंगे 25,000 देने का वादा किया है. एक तरह से वो वोट खरीद रहे हैं. यह सरकारी पैसे का दुरुप्योग है. आप अच्छे स्कूल क्यों नहीं बनाते, उनमें अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा क्यों नहीं देते? उधारण के लिए स्कूलों में जो केमिस्ट्री की प्रायोगिक शिक्षा होती है, प्रैक्टिकल, उसमें कभी कोई केमिकल किसी छात्र को देखने को भी नहीं मिलता है, लेकिन टीचर को 50-100 रुपये देकर मार्क्स मिल जाते हैं. 

बिहपुर की जनता त्राहिमाम है, नए लोगों को ढूंढ रही है जो मज़बूत जन प्रतिनिधि के रूप में सामने आएं. मैं भी इसी पुरज़ोर कोशिश में हूँ कि एक मज़बूत जन प्रतिनिधि के रूप में सामने आ सकूँ, जनता की आवाज़ बनूँ, उनकी समस्याओं और मुद्दों को अपना मज़बूत पक्ष बनाके विधान सभा चुनाव में उतरूं. बरसों से बिहपुर के लोगों की मांग रही है कि बिहपुर को अनुमंडल का दर्जा मिलना चाहिए. मैंने सोशलिस्ट पार्टी के तत्वाधान में इसके लिए तीन दिन का अनशन किया था. उसके बाद यहाँ पे DSP की पदस्थापना हुई थी. लेकिन अभी तक कोई पोस्टिंग नहीं हुई. हम इन मुद्दों को लगातार उठा रहे हैं.

यहाँ की जो समस्याएं हैं उनको लेकर केवल सोशल मीडिया पर ही बात होती है, मेनस्ट्रीम मीडिया सामाजिक मुद्दों पर हमारी गतिविधियों की बात नहीं करती. मैं किसी खेल का आयोजन करूँ तो वो अखबार में अच्छे से छप जायेगा, लेकिन मक्का किसानों के लिए हमने जो धरना दिया, अनशन किया, प्रखंड मुख्यालय के पास जाके अपील दिया, ऐसी गतिविधियों के बारे में मुश्किल से छोटा सा कुछ छपेगा. 

मैं पिछली बार भी यहाँ से प्रत्याशी था और मैंने तब भी कहा था कि मैं जाति के नाम पे वोट नहीं माँगूंगा, मैं धर्म के नाम पे वोट नहीं माँगूंगा, पैसे और शराब के नाम पे वोट नहीं माँगूंगा. हम जन समस्याओं, स्थानीय और राज्य समस्याओं के आधार पर लोगों के बीच जायेंगे. अगर लोगों को लगता है कि यह हमारी लड़ाई मज़बूती से लड़ सकते हैं, जनता के अजेंडे पर डट सकते हैं, तो लोग हमको वोट दें. 

पिछले चुनाव में आपका अनुभव कैसा रहा था? इस बार की आपकी रणनीति पिछली बार से कैसे अलग होगी?

पिछले चुनाव में जनता को जाति और धर्म का जो नशा चढ़ाया गया था वो उनपर हावी था. पिछली बार जनता मुझको एक राजनैतिक रूप में नहीं जानती थी, वो मुझे एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जानती थी. वह सोचते थे कि चलो नौजवान है, खड़ा हो गया है, लेकिन उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं था कि पावर पॉलिटिक्स में मैं कुछ कर पाउँगा. इस बार भरोसा भी बढ़ा है और दूसरा लोगों को समझ में आया है कि मंदिर के नाम पे जो राजनीति हुई है उससे उनका कोई लाभ नहीं हुआ है, घंटी बजाने के लिए भी नहीं मिला है। जो रोज़गार देने के वादे किये गए थे वो पूरे नहीं किये गए, उनके साथ छलावा हुआ. 

इस बार की हमारी मुख्य रणनीति रही है गांवों में उन पलायन करने वाले मज़दूर भाई-बहनों के बीच जाना जो लॉकडाउन में सड़कों को लहू-लोहान करते घर लौटे हैं, उनसे संवाद करना, उनको एहसास दिलाना कि जिनको आपने जाति, धर्म के आधार पर वोट दिया था वो आपके लिए खड़े नहीं हुए. आज इस भुखमरी का कारण धर्म के नाम पर लोगों को चढ़ाया गया चश्मा है. लेकिन असल में हम भगवान भरोसे नहीं, भगवान हमारे भरोसे है. मंदिर में हम चढ़ावा न दें तो पंडित भूखे रह जाते हैं. इस तरह का संवाद हम लोगों के बीच कर रहे हैं. अंत में तो लोगों को समाजवाद की तरफ आना ही है, और कोई उपाय नहीं है. बस ज़रुरत यह है कि हम उनके बीच दर्शन सही प्रस्तुत करें. 

हमारे जो सामाजिक कार्यकर्ता साथी हैं उन्होंने महसूस किया है कि बड़ी पार्टियों की तरह हमारे पास पॉलिटिक्स के लिए पैसा, प्रचार के लिए एक बना बनाया स्ट्रक्चर नहीं है. हमें हर एक जगह अपने से जाना है. हमें वक्ताओं की टीम बनाकर गांव-गांव जाना होगा. सत्ताधारियों की जो करतूत हैं उनका लोगों को विजुअल दिखाना होगा. जैसे यह वीडियो सोशल मीडिया पर लाइव जा रहा है, इसी तरह सोशल मीडिया के माध्यम से हम अपने ग्रामीण बंधुओं, मेहलाओं तक पहुंचेंगे, उनके रोज़गार, शिक्षा की बात करेंगे, उनके दमन और शोषण की बात करेंगे. उनकी खुशहाली कैसे हो, इस बदहाली से मुक्ति कैसे मिले इस बारे में घर घर जाके बात-चीत के ज़रिये , पर्चे, पोस्टर के ज़रिये लोगों तक पहुँचेंगे.

सरकार लॉकडाउन बढ़ाती जा रही है. अगर बीमारी आने के शुरुवात से ही ठीक से जांच हुई होती तो आज हम जो कोरोना की भयावय स्थिति देख रहे हैं वो नहीं होती. इसमें सरकार फेल रही है और इसी असफलता को छुपाने के लिए वो लगातार राम मंदिर, चीन, पाकिस्तान आदि के अजेंडे ला रही है. इन लोगों का खाना इसी से पचता है. 

हमारे ग्रामीण इलाकों में अंध-विश्वास भी एक बड़ी समस्या है. जब राजनेता वोट मांगने जाते हैं तो बस मंदिर में जाके खड़े होते हैं और बोलते हैं हम इस बार यहाँ चबूतरा बनवा देंगे, टाइल्स लगवा देंगे, बस लोग उन्हें वोट देने को तैयार हो जाते हैं। कोसी और गंगा के कटाव से जो लोग विस्थापित हुए हैं, बांध पे, हाईवे पे, रेलवे के किनारे रहने को मजबूर हैं, बहुत ही नरकीय जीवन जी रहे हैं, हम उनके मुद्दों पर भी बात करेंगे. 

अल्पसंख्यक जनता को हमेशा यहाँ द्वयम दर्जा मिला है, चाहे वो कांग्रेस हो चाहे भाजपा हो, और उनके साथ जो भी बी-टीम हो. उनसे हम यह निवेदन करेंगे कि इन पार्टियों के झांसे में न आएं. जो लोग आप को भाजपा के नाम पर डराते हैं, कहते हैं हम भाजपा को रोक देंगे, क्या वह उन्हें रोक पाए हैं? भाजपा ने बी पी मंडल कमीशन आने के समय कमंडल की राजनीति शुरू कर दी, उनको रोकने की कोई भी कोशिश कामयाब हो पायी है? यह इसलिए है क्योंकि इन दलों ने वैचारिक स्तर पे कोई काम नहीं किया. 

संदीप पांडेय के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट युवजन सभा और अन्य सामाजिक संगठन, आंदोलन, स्टूडेंट्स यूनियन आदि से जुड़े साथी लगातार यह कोशिश कर रहे हैं कि एक समतामूलक समाज स्थापित हो. जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक यह अन्याय, धोखाधड़ी, लूट चलती रहेगी, जातीय संघर्ष चलता रहेगा, हिन्दू-मुस्लिम, आदिवासी-ईसाई, सिख, बौद्ध यह सब संघर्ष चलते रहेंगे और लोगों को उलझाए रखेंगे। इसलिए हमारी कोशिश है कि लोगों में एक सद्भाव विकसित हो, जो तभी हो सकता है जब जाति, धर्म के जो बुनियादी कारक हैं, अन्याय के आधार पर स्थापित जो हमारी वर्ण व्यवस्था है, उसकी बुनियाद पर चोट हो. यही लड़ाई हमें समाजवाद की ओर ले जाएगी, यही लड़ाई सामाजिक निर्माण का काम करेगी. 

यह इतना मायने नहीं रखता कि मैं चुनाव जीतूं या हारूँ, मैं चुनाव को बतौर आंदोलन के रूप में देखता हूँ. क्योंकि हमारे देश की हिंदी पट्टी में पिछले 40 से भी ज़्यादा सालों में वैचारिकी लड़ाई नहीं हुई है. राजनीति के ज़रिये लोगों तक जो विचार पहुँचने चाहिए थे, गाँधी, आंबेडकर, लोहिया, पेरियार ललई सिंह यादव, जगदेव प्रसाद, भगत सिंह इनके मूल्यों पर चिंतन होना चाहिए था, यह काम बिल्कुल नहीं हुआ. केवल कुर्सी की सेटिंग हुई, चाहे वो यूपी में बहन मायावती, मुलायम सिंह, कल्याण सिंह हों, बिहार में लालू प्रसाद जी से लेकर नितीश कुमार जी तक, रामविलास पासवान से रामदास अथावले तक सभी यही करते आए हैं. लोहिया जी के बाद कोई वैचारिकी संघर्ष का काम हुआ ही नहीं है. इन सभी लोगों ने उसे ठप्प कर दिया.

हिंदी पट्टी भारत की राजनीति का एक केंद्र बिंदु है, यहाँ से राजनैतिक ध्रुवीकरण होता है. इसलिए वैचारिकी काम की यहाँ बहुत अहमियत है. सोशलिस्ट पार्टी के लिए चुनाव एक आंदोलन है. हम सामाजिक परिवर्तन के लिए चुनाव लड़ रहे हैं और अगर हम सत्ता में आते हैं तो इन्ही मूल्यों के आधार पर काम करेंगे. हमारा मानना है कि किसी भी इंसान के साथ अन्याय होता है तो वहां पे सामाजिक न्याय खतरे में है, चाहे वो जाति, धर्म, भाषा, लिंग, अमीरी-गरीबी आदि किसी भी आधार पे हो. 

इन्ही मूल्यों के साथ हम बिहपुर विधान सभा का चुनाव लड़ेंगे. बहुत अच्छे मिजाज़ के साथ, बेहतर तरीके से लड़ेंगे. आज चुनाव इतने खरचीले हो गए हैं, इसमें लोग करोड़ों-करोड़ों रूपया लगाते हैं लेकिन हम इसका बहिष्कार करेंगे. चुनाव सुधार भी सोशलिस्ट पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है. हमने दस लाख लोगों के सिग्नेचर के साथ चुनाव सुधार पर संसद अध्यक्ष महोदय को याचिका भी भेजी थी. हमारी मांग है कि सभी उम्मीदवारों का चुनाव प्रचार का खर्च एक जैसा हो और सरकार अपने स्तर पर यह प्रचार करे. सरकारी होर्डिंग के ज़रिये प्रत्याशियों की पूरी जानकारी जनता को दी जाये. इसमें उनके खिलाफ हुए आपराधिक मामलों की जानकारी भी शामिल हो.

आज की दुनिया में आपको समाजवाद की क्या भूमिका नज़र आती है? सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के सदस्य होने के नाते आप को राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीति में इस पार्टी की क्या भूमिका नज़र आती है?

आज समाजवाद के नाम पर बनी कई पार्टियां और संगठन हैं लेकिन इनके काम से मैं संतुष्ट नहीं हूँ. लेकिन यह भी मानता हूँ कि समाजवाद के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं है. बाबासाहब अम्बेडकर के शब्दों में कहूं तो हमारे समाजवादी साथियों को यह सबक लेने की ज़रुरत है कि हमारे समाज के संदर्भ में गैर-बराबरी की जड़ें वर्णीय व्यवस्था नामक बीमारी मैं हैं. यहाँ पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का जाति और धर्म के साथ गठजोड़ है.अगर हम इस गठजोड़ की जड़ों पर हमला नहीं करेंगे तो समाजवाद हमारे लिए एक सपना ही रहेगा। तो अब वक़्त आ गया है कि सभी समाजवादी ज़ोरदार तरीके से, खुलकर इस पर बोलें. यह भारत में समाजवाद के लिए आवश्यक भूमिका है, जिसके साथ उन्हें खड़े होना होगा.

गाँधी ने आत्म-परिवर्तन की बात की थी. क्या इतने सालों में हमारा आत्म-परिवर्तन हुआ है? गाँधी की जन्म शताब्दी भी मना ली हमने, हमारी सरकार ने उनके स्टेचू लगवा दिए. जिन सरदार पटेल ने सैकड़ों आरएसएस कार्यकर्ताओं को जेल में डालने का काम किया था, उनका भी मूर्ति खड़ा कर दिया. ऐसे ध्रुवीकरण के ज़रिये दक्षिणपंथी राज मज़बूत होता जा रहा है. लेकिन समाजवादी चुप हैं. 

राम मंदिर के मुद्दे पर भी तमाम समाजवादी चुप रहे. बोले कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है अब कुछ बोलने की ज़रुरत नहीं. लेकिन सोशलिस्ट पार्टी ने भूमि पूजन के दिन काला दिवस मनाया था क्योंकि कोर्ट फैसला देने के लिए नहीं न्याय देने के लिए होता है. आज कल कोरोना के डर से भी बहुत से समाजवादी घरों में चुप बैठे हैं. सोशलिस्ट पार्टी के उपाध्यक्ष संदीप जी ने इस समय में भी लगातार काम जारी रखा है. लोगों के घरों तक जाके राशन पहुंचाया है, CAA-NRC प्रोटेस्ट भी जारी रखे हैं. समाजवादी क्यों इतना डरे हुए हैं? डॉ राम मनोहर लोहिया होते तो क्या घर में बैठे रहते? जब आज़ादी का जश्न चल रहा था तब महात्मा गाँधी, लोहिया घूम-घूम कर सम्प्रदायक दंगों को रोकने का काम कर रहे थे. लोहिया ने नेपाल से आकाशवाणी चलाई थी, जे पी हज़ारीबाग़ जेल तोड़कर बाहर निकल गए थे. इसी तरह हमारे लिए भी यह भूमिका लेने का दौर है. 

अमेरिका में एक ब्लैक व्यक्ति के ऊपर हमला होता है, उसे मार दिया जाता है तो वहां के राष्ट्रपति को बंकर में जाके छुपना पड़ता है. यह समाजवाद ही तो है. राष्ट्रीय स्तर पे भी ऐसे ही समाजवाद मज़बूत हो सकता है बशर्ते यहाँ का समाजवादी भी इसी प्रकार खड़ा हो. केवल समाजवादी चिंतकों के विचार सुनने-समझने से नहीं होगा, हमको फील्ड में उतरना होगा. आज के समय में भी कई साथी ऐसे हैं जो जेल जा रहे हैं. इतिहास उन्ही का लिखा जायेगा कि न वो कोरोना से डरे, न नरेंद्र मोदी से डरे, न आरएसएस से डरे, न नितीश कुमार से डरे. हम उन सभी साथियों को सलूट करते हैं. ऐसे ही लोगों की देश को ज़रुरत है. इन्ही लोगों की वजह से हमारा लोकतंत्र बचा हुआ है. वरना यूपी को देखें तो वो अभी मनुवाद का मॉडल बना हुआ है. कोई भी आवाज़ उठाता है तो उस पे तुरंत कोई केस लगा दिया जाता है. सोशलिस्ट पार्टी के संदीप भाई को घर में कैद और एडवोकेट मोहम्मद शोएब को गिरफ्तार किया जा चुका है. इन्ही लोगों के द्वारा हमारा समाजवाद का सपना मुकम्मल होगा.

जाति जनगणना का सवाल भी आज महत्वपूर्ण है. इस पर भी समाजवादियों को आवाज़ उठानी चाहिए. इस देश में सामाजिक न्याय स्थापित करने के लिए ज़रूरी है कि जिसकी आबादी में जितनी संख्या है उतनी ही भागीदारी भी हो, चाहे वो न्यायिक व्यवस्था में हो, विधायिका में हो, कार्यपालिका में हो, या मीडिया में हो. इस मुद्दे पे क्रमबद्ध तरीके से काम करने और सड़क पे उतरने की ज़रुरत है. इसके लिए सोशलिस्ट पार्टी भी काम कर रही है.

एक युवा सोशलिस्ट कार्यकर्ता होने की हैसियत से पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से मैं कहना चाहता हूँ कि इस मुद्दे पर सोशलिस्ट पार्टी को देश व्यापी आंदोलन छेड़ना चाहिए. साथ में यह भी साफ़ तौर पे बोलना चाहिए कि राम मंदिर असल में देश में आरएसएस को स्थापित करने के लिए बनाया जा रहा है, यह किसी संप्रदाय का मामला नहीं है. जैसे लोहिया ने देश में घूम घूमकर कहा “संसोपा ने बाँधी गांठ – पिछड़ा पावे सौ में साठ”, यह लोगों में क्लिक किया और पिछड़ों की राजनीति में बड़ा उभार आया. इसी तरह सोशलिस्ट पार्टी को यह बात कहनी चाहिए कि देश के धन, धरती, राज-पाट में जिसकी जितनी संख्या है उतना हिस्सा और भागीदारी मिलनी चाहिए. आरएसएस का आज तक कोई पिछड़ी जाति का अध्यक्ष नहीं बना. वो हिन्दू हिन्दू करते हैं लेकिन कौन सा हिन्दू? 6733 जाति वाला हिन्दू? इस मुद्दे पर आरएसएस को घेरना होगा. सोशलिस्ट पार्टी को इस पर निडर, निर्भीक होकर बोलना होगा. यही हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है. 

दूसरा चुनाव के तौर तरीक़ा बदलने की ज़रूरत है. चुनाव सुधार का अजेंडा बनना चाहिए. चुनाव का फॉर्म ही 10000 रुपय में मिलता है. पिछली बार मेरा एक लाख का खर्चा आया था, लेकिन अन्य पार्टियों का इससे कहीं ज़्यादा खर्चा होता है और उसका कोई ठीक से हिसाब नहीं होता.

मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी है कि सोशलिस्ट पार्टी में मुझे बोलने की पूरी आज़ादी मिली है. सामाजिक न्याय के विषयों पर पार्टी में खुलके बातचीत होती है और सभी ने इन मुद्दों पर मेरा साथ दिया है. तो मैं सभी लोगों से यह आह्वान करना चाहूँगा की सोशलिस्ट पार्टी राजनीति में अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए, समाज निर्माण का काम करने के लिए, एक नई राजनीति करने के लिए एक बढ़िया प्लेटफार्म है जिससे लोगों को जुड़ना चाहिए.

जो दक्षिणपंथी और वर्णीय राजनीति के समर्थक हैं मैं उनसे कहना चाहूंगा कि इससे केवल देश में खून-ख़राबा बढ़ेगा, महिलाओं पर हिंसा बढ़ेगी और अगर ऐसा हुआ तो जैसे कहा गया है: “लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में, यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है”. निश्चित रूप से इस देश में सब को बर्बादी झेलनी पड़ेगी. और आने वाली पीढ़ी जब हमसे यह सवाल पूछेगी कि हमने इस बारे में क्या किया था, तो हमें सोचना चाहिए कि हम उनको क्या जवाब देंगे.

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