कोरोना काल में निजी विद्यालयों की मनमानी और बढ़ गई है। वे आनलाइन कक्षाओं के नाम पर औपचारिकता पूरी कर बच्चों के अभिभावकों से पूरा शुल्क वसूल रहे हैं। आनलाइन कक्षाओं का यह हाल है कि गरीब परिवारों से जिन बच्चों का दाखिला शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 में मुफ्त शिक्षा हेतु निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत स्थान जो गरीब बच्चों के लिए आरक्षित हैं में हो गया है वे पढ़ ही नहीं पा रहे क्योंकि उनके घर में ऐसा मोबाइल नहीं कि आनलाइन कक्षा कर सकें अथवा है भी तो वह दिन के समय उनके पिता या बड़े भाई के पास होता है जो काम पर जाते हैं। जो बच्चे आनलाइन कक्षा करते भी हैं तो उन्हें मोबाइल फोन की कनेक्टीविटी आदि की समस्या के कारण समझ में नहीं आता।
हमारा मानना है यदि अधिनियम के नाम के अनुसार शिक्षा मुफ्त व अनिवार्य होनी चाहिए तो 2015 के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के फैसले कि सभी सरकारी तनख्वाह पाने वालों के बच्चे अनिवार्य रूप ये सरकारी विद्यालय में पढ़ें को लागू करें। ऐसा होने से सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता सुधर जाएगी जिसका सीधा लाभ गरीब जनता को मिलेगा।
किंतु जिस तरह से किसी भी केन्द्रीय सरकार ने 1968 की कोठारी आयोग की समान शिक्षा प्रणाली और पड़ोस के विद्यालय की सिफारिश को लागू नहीं किया उसी तरह कोई भी उत्तर प्रदेश की सरकार न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के फैसले को लागू नहीं कर रही है।
नई शिक्षा नीति आई है लेकिन उसमें नया कुछ भी नहीं। मातृभाषा में पढ़ाने की बाद सभी शिक्षाविद वर्षों से करते आ रहे हैं किंतु कोई सरकार इसे ईमानदारी से लागू करने को तैयार नहीं है। जब तक भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा, अभियंता, चिकित्सक, प्रबंधक, आदि, यानी जो आकर्षक सेवाएं हैं बनने के लिए अंग्रेजी अनवार्य होगी तब तक अंग्रेजी का वर्चस्व खत्म नहीं होने वाला। निजी विद्यालय को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने से कौन रोक सकता है और इस देश की हकीकत है कि अभिजात वर्ग के बच्चे अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ेंगे। तो क्या गरीब के बच्चे को आकर्षक सेवाओं में जाने से रोकने के लिए मातृ भाषा में शिक्षा की बात हो रही है? यदि सरकार मातृ भाषा में शिक्षा देने के विचार के प्रति गम्भीर है तो उपर्युक्त अंग्रेजी की अनिवार्यता पहले क्यों नहीं समाप्त करती।
तीन भाषा को पढ़ाने की नीति भी बहुत पुरानी है। तमिल नाडू को छोड़कर हरेक राज्य इसका पालन करता है। लेकिन उत्तर भारत में इसका पालन ईमानदारी से नहीं होता। हिन्दी और ज्यादा से ज्यादा थोड़ी बहुत अंग्रेजी बच्चे सीख जाते हैं। अंग्रेजी का तो जोर ऐसा है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने आते ही 5000 सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम से कर दिया। लेकिन कोई तीसरी भाषा नहीं सिखाई जाती। संस्कृत की पढ़ाई औपचारिकता पूरी करने के लिए होती है। उसका कोई व्यवहारिक उपयोग नहीं है। इससे तो अच्छा है कि तीसरी भाषा के रूप में उर्दू सिखाई जाए। कम से कम बच्चे उसका इस्तेमाल तो कर पाएंगे।
इन उदाहरणों से साफ है कि भारतीय जनता पार्टी चाहे जितनी आदर्शवादी बातें करे उसके अंदर शिक्षा में सुधार हेतु कोई इच्छाशक्ति नहीं है। असल में शिक्षा का उद्देश्य तो बच्चों में सोचने समझने की शक्ति विकसित करना है और वर्तमान सरकार तो चाहती ही नहीं कि लोग सोचें या सवाल करें।
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