जिस तरह मोदी सरकार का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रेरित देश-प्रेम भ्रामक है, उसी तरह उसका गांव और किसान-प्रेम भी भ्रामक है। जो सरकार पिछले दो सालों से खेती-किसानी को मारने पर तुली हुई थी, वर्ष 2016-2017 के बजट में वही सरकार अचानक खेती-किसानी और किसानों की उद्धारक होने का दावा कर रही है। यह मोदी किसानों का यकीन जीतने की फिल्मी रणनीति है – ‘पहले गुंडे भेजकर हमला कराओ और फिर हीरो बन कर बचाओ।‘ सामाजिक तनाव की फसल बोने वाली सरकार उसमें किसान-प्रेम का दिखावटी खाद-पानी डाल कर अपनी राजनीतिक पैदावार बढाने की मंशा से प्रेरित है। देश के किसानों को तो यह सच्चाई समझनी ही चाहिए, बजट को किसान समर्थक बताने वाले बुदि्धजीवियों को भी अपनी धारणा पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। बडे कारपोरेट घरानों की समर्थक सरकार किसानों-मजदूरों-कारीगरों-खुदरा व्यापारियों-छोटे उद्यमियों की आर्थिक मजबूती का काम नहीं कर सकती।
पिछले तीन सालों से लगातार पड़ रहे सूखे ने खेती की कमर तोड़ दी थी और उसकी विकास दर 1.1 प्रतिशत पर आ गई थी। इसी नाते चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था। उसकी आंच मोदी सरकार को तीन जगह खास तौर पर महसूस हुई। पहले गुजरात में पाटीदारों का उग्र आरक्षण आंदोलन, उसके बाद बिहार चुनाव की पराजय और फिर हरियाणा में आरक्षण की मांग करते हुए पूरे प्रदेश में आग लगाने वाला और जातीय दंगे करने वाला जाटों का आंदोलन। यानी खेती-किसानी करने वाली जातियों का मोदी सरकार से मोह भंग हो रहा था, इसलिए उसने पहले उड़ीसा, मध्यप्रदेश और बरेली में तीन बड़ी किसान रैलियां कीं और बाद में चिदंबरम जैसे शहरी और कारपोरेट समर्थक वित्तमंत्री के मुंह से गांव का गुणगान करने वाला मंत्र पढ़वा दिया।
बजट में सरकार ने सन 2022 तक किसानों की आमदनी दो गुना करने का सपना दिखाया है। कारपोरेट समर्थक मोदी सरकार ने यह क्यों कहा है और वह इस लक्ष्य को कैसे हासिल करेगी? कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 2014-15 और 2015-16 के बीच -0.2 प्रतिशत से 1.1 प्रतिशत रही है। ऐसे में अगर छह सालों में किसानों की आय दोगुनी करनी है तो कृषि की वृद्धि दर 12 प्रतिशत तक ले जानी होगी। उसके लिए एक तरफ खेती की उत्पादकता बढ़ानी होगी और दूसरी तरफ न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने होंगे। इन दोनों मोर्चो पर कोई बड़ी पहल बजट में नहीं दिख रही है।
प्रधानमंत्री सिंचाई योजना और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से कितना और कब तक लाभ होगा, यह स्पष्ट नहीं है। विशेषकर सिंचाई के लिए नहरों में पानी रहेगा या नहीं रहेगा, इसकी गारंटी नहीं है। दूसरी तरफ फसल बीमा योजना के लिए आवंटित किए गए 5500 करोड़ का ज्यादातर हिस्सा बीमा कंपनियों की जेब में नहीं जाएगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।
सरकार खेती और किसानों के कल्याण के लिए जिस बजट को दोगुना करने पर सबसे ज्यादा शंख बजा रही है वह दरअसल एक चालाकी भरा खेल है। सबसे पहले तो सरकार ने किसानों के अल्पकालिक ब्याज ऋण सबसिडी को वित्तीय सेवाओं के विभाग से निकालकर कृषि और सहकारिता विभाग में डाल दिया है। उसके बाद कृषि कल्याण का जो बजट 2014-15 के 19,255 करोड़ रुपए से घटाकर 2015-16 में 15,809 करोड़ पर ले आई थी उसे फिर बढ़ा कर पहले की स्थिति यानी 20,984 करोड़ रुपए तक पहुंचा दिया है। इस तरह खेती के कल्याण का खर्च 15,809 करोड़ रुपए से बढ़कर 35,984 करोड़ रुपए तक पहुंच गया। खेती में निवेश बढ़ाने के लिए कृषि आधारित उद्योगों में सौ प्रतिशत एफडीआई की छूट देकर सरकार ने नवउदारवादी आर्थिक सुधारों को गांवों की ओर मोड़ दिया है। देखना है कि इससे ग्रामीण उद्योग कितना संभल पाता है और कितना बरबाद होता है? इससे कितना धन ग्रामीणों के पास जाता है और कितना दलालों के पास?
सबसे विडंबनापूर्ण स्थिति मनरेगा के साथ हुई। जिस योजना को प्रधानमंत्री ने स्वयं यूपीए सरकार की विफलताओं का स्मारक बताया था उसी का सहारा लेने सरकार पहुंची। लेकिन मनरेगा का बजट 38,500 करोड़ रुपए किए जाना अपने में कोई चमत्कार नहीं है। क्योंकि मनरेगा का बजट 2011 में 39,377 करोड़ तक पहुंच गया था जिसे एनडीए सरकार ने वित्त वर्ष 2015 में 29,436 करोड़ रुपए कर दिया था। अब फिर सरकार अगर पुरानी स्थिति को बहाल कर रही है तो इसमें नया कुछ नहीं, वह बल्कि अपनी ही गलतियों को ठीक करने का प्रयास कर रही है।
यह बजट सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कर्ज लेकर हजम कर जाने वाले पूंजीपतियों पर कोई कार्रवाई करते हुए नहीं दिखाई दे रहा है। विडंबना देखिए कि वित्त मंत्री बातें ऊंची-ऊंची करते हैं लेकिन बैकों के दिवालिया होने के बारे में पिछले साल पेश विधेयक (इनसालवेंसी एंड बैंकरप्सी कोड बिल) अभी भी लंबित है और इस साल भी उसे पास कराने का महज आश्वासन दिया गया है। उस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं है। वैश्विक मंदी के कारण निर्यात बुरी तरह प्रभावित हुआ है। वह इतना है कि रुपए की घटती कीमत से भी उसकी भरपाई नहीं होने वाली है।
शहरी मोर्चे पर एक फैसला जरूर तारीफ के लायक है और वो है दस लाख से ऊपर का लाभांश कमाने वालों पर दस प्रतिशत से ऊपर का सरचार्ज। चुपके से की गई इस व्यवस्था से सरकार की आमदनी अच्छी होगी और राजस्व घाटे को भरने में सुविधा हो सकती है। लेकिन दूसरी तरफ विदेशों से हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपए काला धन लाने का दावा करने वाली सरकार ने देशी कालाबाजारियों को 45 प्रतिशत जमा कर काले धन को सफेद करने की छूट देकर वित्तीय नैतिकता को करारा झटका दिया है। उसी के साथ ईपीएफ के ब्याज पर कर लगाने से कामकाजी वर्ग परेशानी महसूस कर रहा है। यही वजह है कि लोगों ने टिप्पणी भी की है कि अपराधियों को राहत और मेहनत करने वालों को चपत। इसकी चौतरफा आलोचना से ऊब कर सरकार इस पर कदम पीछे खींचने को तैयार हो रही है।
अभिजीत वैद्य
महासचिव