– संदीप पाण्डेय
जब हम किसी सड़क के किनारे दुकान पर कुछ खा रहे होते हैं अथवा चाय की दुकान पर चाय पी रहे होते हैं तो हमें कई बार यह अहसास ही नहीं होता कि जो हाथ हमें खिला-पिला रहे हैं उन हाथों में असल में पेंसिल-किताब होनी चाहिए। इन बच्चें को जिन्हें आम तौर पर छोटू कह कर सम्बोधित किया जाता है के हम कई बार नाम भी नहीं पूछने की जरूरत समझते। इनमें से कुछ हमें साइकिल-मोटरसाइकिल की मरम्मत की दुकानों पर मिल जाएंगे। कुछ पटाखें, शीशे व बुनाई के कारखानों में मिलेंगे तो कई घरों में काम करते हुए मिल जाएंगे।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24, 21-ए व 45 बाल दासता को रोकने के लिए पर्याप्त होने चाहिए थे। अब तो कई कानून भी बन गए हैं। कारखाना अधिनियम, 1948, खादान अधिनियम, 1952, बाल मजदूर (प्रतिबंध एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1986, नाबालिग बच्चों को न्याय (संरक्षा एवं सुरक्षा), 2000 व मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 का क्रियान्वयन ईमानदारी से हो जाता तो काम करते हुए बच्चे कहीं दिखाई नहीं पड़ते। इन कानूनों के होते हुए भी बाल मजदूरी धड़ल्ले से चल रही है। इसका मतलब है कि न तो सरकार उपर्युक्त कानूनों के क्रियान्वयन के प्रति गम्भीर है और न ही नागरिकों को बाल मजदूरी से कोई दिक्कत है। कभी बच्चे के परिवार की मजबूरी बता कर या शिक्षा की बच्चे की जिंदगी में निरर्थकता बता हम किसी न किसी तर्क से बाल मजदूरी को जायज ठहरा देते हैं।
यदि हम ऐसी किसी सेवा का उपभोग कर रहे हैं जिसमें बाल मजदूर ने काम किया है तो हम भी स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। इसके अलावा हमें अपने से नैतिक सवाल यह भी पूछने पड़ेगा कि हमें किसी का बचपन छीनने का अधिकार किसने दिया?
यदि हम बच्चे को शिक्षा से वंचित कर रहे हैं तो हम उसके लिए जिंदगी में तरक्की के रास्ते बंद कर रहे हैं। कई बार यह कहा जाता है कि गरीबी के कारण बच्चा नहीं पढ़ पाता। किंतु यह भी तो सच है कि यदि उसे गरीबी का दुष्चक्र तोड़ना है तो शिक्षित होना पड़ेगा। ज्यादातर बाल मजदूर दलित एवं मुस्लिम समुदाय से हैं जो हमारे समाज के सबसे पिछड़े वर्ग हैं। इन्हें शिक्षा से वंचित रखने का मतलब होगा इनकी गरीबी की स्थिति बनाए रखना।
सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर के हिसाब से भारत दुनिया में अग्रणी देशों में है किंतु सामाजिक मानकों के हिसाब से हमारी गिनती सबसे पिछड़े देशों में होती है। दक्षिण एशिया में आजादी के समय सामाजिक मानकों की दृष्टि से श्रीलंका के बाद हमारा स्थान था। अब पाकिस्तान को छोड़ बाकी सभी देश हमसे आगे निकल गए हैं।
सामाजिक मानकों में सुधार तभी हो सकता है जब मौलिक आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा, मकान की जरूरतें पूरी हों और साथ हीे शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं अच्छी गुणवत्ता के साथ सभी को निःशुल्क उपलब्ध हों। ज्यादातर देशों जिन्होंने अपने सामाजिक मानकों में सुधार लाया है ने अपने नागरिकों के लिए अच्छी और निःशुल्क शिक्षा या स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्थाएं की हैं।
दुनिया के सभी विकसित देशों व कई विकासशाील देशों ने भी 99-100 प्रतिशत साक्षरता की दरें हासिल कर ली हैं। भारत में आधे बच्चे विद्यालय स्तर की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। इसमें से आधे बाल मजदूरी के शिकार हैं।
जिन देशों ने 99-100 प्रतिशत साक्षरता की दरें हासिल की हैं उन्होंने अपने यहां समान शिक्षा प्रणाली लागू की है। इसके मायने यह हैं कि सभी बच्चों को लगभग एक गुणवत्ता वाली शिक्षा हासिल करने के अवसर उपलब्ध है।
भारत में 1968 में कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली एवं पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू करने की सिफारिश की थी। किंतु तब से लेकर अब तक सभी सरकारों ने उसे नजरअंदाज किया है। 2009 में (मुफ्त एवं अनिवार्य) शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ जिसने गरीब परिवारों के बच्चों को सभी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की। किंतु इस प्रावधान को लागू करने में सरकारें गम्भीर नहीं हैं। तमाम कोशिशें हो रही हैं कि कानून के इस प्रावधान की काट निकाली जाए। उत्तर प्रदेश के होशियार नौकरशाहों ने यह नियम बनाया है कि यदि बच्चे के घर से एक किलोमीटर के दायरे के अंदर कोई सरकारी प्राथमिक विद्यालय होगा तब वह किसी निजी विद्यालय में 25 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा। पहले सरकारी विद्यालय के प्रधानाचार्य को लिख कर देना होगा कि वह बच्चे का दाखिला नहीं कर सकता तब बच्चा किसी निजी विद्यालय में दाखिले का दावा कर सकता है वह भी जिलाधिकारी की अनुशंसा के बाद। जब प्रधानाचार्य को मालूम है कि ऊपर के अधिकारी नहीं चाह रहे कि गरीब बच्चे निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान के तहत पढें तो वह ऐसा क्यों लिख कर देगा कि वह बच्चे का दाखिला अपने विद्यालय में नहीं कर सकता?
भारत में अब दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं हैं – एक पैसे वालों के लिए जो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं तो दूसरी गरीब लोगों के लिए जो अपने बच्चे सरकारी विद्यालय में भेजने के लिए अभिशप्त हैं जहां पढ़ाई ही नहीं होती। इस तरह भारत में शिक्षा अमीर व गरीब के बीच दूरी को और बढ़ा देती है।
यदि भारत में सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध होनी है तो सिवाए समान शिक्षा प्रणाली को लागू करने के कोई उपाए नहीं है। सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता सुधारने का सबसे सीधा और एकमात्र तरीका यही है कि सभी सरकारी वेतन पाने वालों व जन प्रतिनिधियों के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालयों में पढ़ना अनिवार्य किया जाए। यदि सरकार और प्रशासन में बैठे लोग सरकारी विद्यालयों को अपना नहीं मानेंगे तो भला और कौन मानेगा? जब सरकारी अधिकारियों ने घाटे में चलने वाली एअर इण्डिया को यह नियम बना कर जिंदा रखा है कि सरकारी काम से यात्रा करने वाले लोगों को एअर इण्डिया से ही यात्रा करनी होगी तो सरकारी विद्यालयों को जिंदा रखने के लिए वे अपने बच्चों को इन विद्यालयों में भेजने का नियम क्यों नहीं बना सकते?