भारत सरकार ने हाल ही में सामाजिक, आर्थिक एवं जाति जनगणना (एस ई सी सी), 2011 में हासिल हुई कुछ जानकारी को सार्वजनिक किया। यह जानकारी मुख्य रूप से ग्रामीण भारत में आय स्तर, जीवन स्तर और भूमि स्वामित्व के स्वरूप को दर्शाती है। लेकिन यह जानकारी अधूरी है, और एस ई सी सी में प्राप्त की गई सबसे महत्वपूर्ण जानकारी, जो भारत की जातीय संरचना से सम्बंधित है, अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है।

एस ई सी सी स्वतंत्र भारत में की गई पहली ऐसी जनगणना है जिस में हर व्यक्ति की जाति को रिकॉर्ड किया गया है ( न कि सिर्फ़ अनुसूचित जाति, जनजाति और सामान्य की सरकारी श्रेणियों को )। अतः, 1931 की ब्रिटिश भारत की जनगणना के बाद पहली बार भारत की विभिन्न जातियों की जनसंख्या, और जाति और सामाजिक व आर्थिक स्तर के बीच के सांख्यकीय संबन्ध हमें पता चलेंगे। एक बहुत महत्वपूर्ण बात जो हमें पता चलेगी वह है ओबीसी या अन्य पिछड़े वर्ग की सरकारी श्रेणी में आने वाले लोगों की जनसंख्या, जिसका आज तक ठीक-ठीक निर्धारण नहीं हो पाया है।

सन् 1979 में भारत सरकार द्वारा देश की आरक्षण नीतियों का पुनर्विलोकन करने के लिए न्युक्त मंडल कमिशन ने 1931 की जनगणना के हिसाब से यह अंदाज़ा लगाया था कि देश के ओबीसी वर्ग की जनसंख्या करीब 54% है। इसके अनुसार ओबीसी वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में 27% आरक्षण दिया गया था। लेकिन कुछ जानकारों के अनुसार आज भारत में ओबीसी जनसंख्या इससे कहीं ज़्यादा है, और उनकी सामाजिक और आर्थिक दशा बहुत खराब है। यह स्थिति सत्ताधारी वर्ग स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

हैदराबाद स्थित कार्यकार्ता और बुद्धिजीवी कुफ़ीर नल्गुन्डवार का कहना है कि एस ई सी सी के सार्वजनिक किए अधूरे डेटा से इस सच्चाई के संकेत मिलते हैं। सोशल मीडिया पर उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए एक विश्लेषण में वह कहते हैं कि डेटा के अनुसार भारत में कुल 6.86 करोड़ भूमिहीन परिवार हैं, इनमें से 1.81 करोड़ अनुसूचित जाति, और 70 लाख अनुसूचित जनजाति परिवार हैं। उनके अनुसार इससे साफ़ हो जाता है कि बाकी के 4.34 करोड़ परिवार ओबीसी वर्ग में आते हैं। यह बात सही मालुम पड़ती है, क्योंकि ग्रामीण भारत में भूमिहीन उच्च जातीय परिवारों की संख्या न के बराबार होगी, इसकी पूरी संभावना है।

यदि वास्तव में यह पता चलता है कि अभी तक के सरकारी अनुमानों से ओबीसी जनसंख्या अधिक है और उनकी सामाजिक और आर्थिक दशा बदतर है, तो इसका परिणाम होगा देश भर में ओबीसी वर्ग के लोगों के आरक्षण और अन्य विशेषाधिकार बढ़ाए जाने की मांगों का उठाया जाना। उच्चतम् न्यायालय द्वारा केन्द्रीय संस्थानों में आरक्षण पर लगाई गई 50% की सीमा को भी अवश्य ही चुनौती दी जाएगी।

ऐसे परिदृश्य में, सरकार द्वारा इस डेटा का सार्वजनिक न किया जाना एक जानी-बूझी चाल मालुम होती है। भारतीय जानता पार्टी उन कठिन सवालों और इंसाफ की ज़ोरदार मांगों से बचना चाहती है जो इस डेटा की जानकारी होने पर देश के लोग उठाएंगे; ख़ास तौर से बिहार में जो जातिवाद का गढ़ है और जहां विधानसभा चुनाव नज़दीक हैं।

यह बात कोई रहस्य नहीं है कि भारत में हर सत्ताधारी और प्रभावशाली संस्थान में उच्च-जातीय लोगों का दबदबा है। वह विश्वविद्यालयों में, अधिकारी-वर्ग में, मीडिया में, उँची सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में अपनी जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक संख्या में मौजूद हैं। दूसरी ओर निचली जातियों के लोग आज भी अपने जातिगत व्यवसायों में लगे हुए हैं और छोटे किसान, कारिगर, दस्तकार, मज़दूर, सफ़ाई कर्मचारी, नाई, मोची, लोहार, बढ़ई आदि कम आय वाले, शोषक रोज़गार करने को मजबूर हैं। हज़ारों सालों से चला आ रहा भेद-भाव और दमन, जो आज तक मौजूद है, इन लोगों को किसी भी प्रकार की सामाजिक या आर्थिक उन्नति के वंचित रखता है।

उच्च-जातीय प्रभुत्व को स्वतंत्रता के बाद से जो ज़रा बहुत क्षति पहुँची है उसके लिए बहुत हद तक सरकार द्वारा संविधान के निर्देशानुसार दिए जाने वाले जाति पर आधारित विशेषाधिकार ज़म्मेदार हैं। लेकिन सत्तादारी वर्ग ने 80 सालों तक जातिगत जनगणना पर रोक लगाकर कमज़ोर वर्गों के हित में काम करने के इस संवैधानिक निर्देश के सही क्रियांवयन को बाधित किया है। आखिरकार 2011 में, जनता दल, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी शक्तिशाली स्थानीय राजनैतिक पार्टियों द्वारा बनाए गए दबाव के कारण जातिगत जनगणना का फैसला हुआ। इन पार्टियों के नेता ओबीसी वर्ग के हैं और यह पिछले दो-ढाई दशक में प्रभावशाली राजनैतिक पार्टियों के रूप में उभरी हैं। यह मंडल कमिशन की रिपोर्ट और उसके द्वारा बड़े स्तर पर हुए ओबीसी राजनीतिकरण का परिणाम है।

एस ई सी सी के जातिगत डेटा में भारतीय समाज और राजनीति में एक नया दौर लाने की क्षमता है, जो मंडल कमिशन की रिपोर्ट द्वारा लाए बदलावों से भी अधिक महत्वपूर्ण होगा। यही सच्चाई हमारे राजनेताओं को सता रही है, जो इस डेटा को जब तक हो सके छुपाना चाहते हैं। न्यायसंगत और समतावादी समाज की कल्पना करने वाले हर इंसान को इस डेटा के तुरंत सार्वजनिक किए जाने की ज़ोरदार मांग करनी चाहिए।

सुरभि अग्रवाल
रीसर्च सेल, सोश्लिस्ट पार्टी (इंडिया)
surabhiagwl@gmail.com

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