1 अगस्त 2018
प्रेस रिलीज़
असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर : जिम्मेदारी, सावधानी और संयम की जरूरत
असम में अवैध रूप से रहने वाले बंग्लादेशी नागरिकों की मौजूदगी की समस्या काफी जटिल और पुरानी है. असम में बांग्लादेशी घुसपैठ के विरुद्ध अस्सी के दशक में जब वहां के छात्रों ने आंदोलन किया था तो उनका समर्थन पूरे देश के समाजवादियों और गांधीवादियों ने किया था। तब वह आंदोलन धर्मनिरपेक्ष था और उसका जोर असमिया नागरिकों की अस्मिता बचाने पर था। हालांकि उसमें बांग्लाभाषियों का विरोध था, लेकिन आंदोलन में असमिया समाज के सभी तबके के लोगों ने हिस्सा लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की और जब वे ब्रह्मपुत्र घाटी में एक रैली में गईं तो वहां नारा भी लगा था कि ‘हाथ में बीड़ी मुहं में पान असम बनेगा पाकिस्तान’। वह सब कांग्रेस का वोट बैंक था. बांग्लादेश से लगी सीमा पर ढीली-ढाली सुरक्षा व्यवस्था होने के कारण घुसपैठ जारी रही। इस बीच नेल्ली नरसंहार ने उस आंदोलन का सांप्रदायिक और वीभत्स रूप भी उजागर किया। उस नरसंहार में अल्पसंख्यक समुदाय के औरतों-बच्चों को काट डाला गया था। उनके बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने 1985 में असम समझौता किया. असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की परिकल्पना उसी प्रक्रिया का परिणाम है. इसके मुताबिक जिनके नाम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में नहीं दर्ज होंगे, उन्हें भारत का नागरिक नहीं माना जायेगा. इसमें विदेशी नागरिकों की पहचान करके उन्हें बाहर करने का निर्णय लिया गया। लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव और बांग्लादेश से इस तरह का कोई समझौता न होने के कारण वह काम हो नहीं पाया।
मौजूदा सरकार ने सोमवार को जो राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जारी किया है, उसमें 40 लाख से ऊपर लोगों के नाम नहीं हैं. उनके परिवारों को जोड़ा जाए तो यह संख्या एक करोड़ से ज्यादा होगी. ऐसा बताया जा रहा है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से बाहर किये गए 40 लाख लोगों में से ज्यादातर भारतीय नागरिक हैं. इनमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं. एक राज्य में इतनी बड़ी संख्या में लोगों को असुरक्षा की स्थिति में डाल देना बताता है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करने में कर्तव्य का सही तरह से निर्वाह नहीं किया गया है. ऐसा लगता है कि सरकार को समस्या के समुचित समाधान के बजाय चुनावी फायदे के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जारी करने की जल्दी थी. इस आवश्यक कार्य को गैर-राजनीतिक तरीके से किया जाना चाहिए था. लेकिन भाजपा नेतृत्व ने वैसी परिपक्वता का प्रमाण नहीं दिया.
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अध्यक्ष अमित शाह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के प्रकाशन को पराक्रम की तरह पेश कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल के भाजपा प्रभारी कैलाश विजयबर्गीय असम के बाद पस्श्चिम बंगाल पर धावा बोलने की शैली में बयान दे रहे हैं. अमित शाह ने पूरे मसले को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ने की बेजा बयानबाजी संसद में की है. भाजपा नेताओं की इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना बयानबाज़ी से इस मुद्दे पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा दिया गया शुरूआती संतुलित बयान निरर्थक हो गया है. सत्तारूढ़ पार्टी और उसके अध्यक्ष को समझना चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के नाम पर पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की उनकी मंशा से है. दरअसल, देश की इस पुरानी और जटिल समस्या पर भाजपा की निगाह लंबे समय से थी. केंद्र और राज्य में सत्ता में बैठने के बाद उसने रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया और जनगणना आयुक्त के कार्यालय का इस्तेमाल कर उसे ऐसा रूप दिया है कि उस पर लंबे समय तक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति की जा सके. साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के रास्ते पर भाजपा का तात्कालिक लक्ष्य 2019 के लोकसभा चुनाव हैं. हिंदी क्षेत्र में विपक्षी दलों की एकजुटता से भाजपा मध्यावधि चुनाव हार चुकी है. उसकी भरपाई वह पूर्वोत्तर और पश्चिम बंगाल से करना चाहती है.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होने वाले नागरिकों के पहचान के इस कार्यक्रम में न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए यह जरूर कहा है कि यह सूची अंतिम नहीं है बल्कि एक मसविदा है और इसके आधार पर कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। चुनाव आयोग ने भी कहा है कि राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर लोगों के मतदाता अधिकार को बाधित नहीं करेगा. लेकिन इस संवेदनशील मुद्दे पर जो राजनीति की जा रही है उसे न्यायालय कैसे रोक सकता है? जबकि सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत भी राजनीतिक बयान देकर वहां हस्तक्षेप कर चुके हैं। यह सत्तारूढ़ पार्टी सहित सभी पार्टियों के नेतृत्व की जिम्मेदारी है. सोशलिस्ट पार्टी देश के राजनैतिक नेतृत्व से अपील करती है कि इस संवेदनशील मुद्दे पर वोट की राजनीति करने के बजाय मिल कर सुनिश्चित करें कि एक भी भारतीय नागरिक राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से बाहर नहीं रहे. चाहे वह किसी भी प्रदेश का रहने वाला हो. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करते वक्त यह जिम्मा स्वयं नागरिकों का था कि वे साबित करें कि भारत के नागरिक हैं, जबकि संयुक्त राष्ट्र यह जिम्मेदारी राज्य पर भी डालता है। दूसरे, अवैध रूप से रहने वाले बंग्लादेशी नागरिकों, चाहे वे हिंदू हैं या मुस्लमान, पर भारतीय नागरिकता कानून और संयुक्त राष्ट्र (यूएनओ) के प्रावधानों की रोशनी में कार्रवाई करें.
सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि भारत को पूरा हक है कि वह अवैध तरीके से घुस आए लोगों की पहचान करे. अगर संभव है तो उन्हें उनके देश वापस भेजे, अगर नहीं संभव है तो उन्हें परमिट देने या नागरिकता देने पर विचार करे। इस बारे में नागरिकता संशोधन विधेयक 2014 में गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने की व्यवस्था तो है, लेकिन मुस्लिमों के लिए नहीं है। भारत संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है. संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य 2024 तक दुनिया से नागरिकों की राज्यविहीनता समाप्त करना है। अगर इतनी बड़ी संख्या में लोगों को राज्यविहीन किया जाएगा तो इससे एक अंतरराष्ट्रीय समस्या पैदा होगी। ‘विश्वगुरु’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का दावा करने वाले भारत को इस समस्या पर सांप्रदायिक नजरिए से नहीं, संवेदनशील मानवीय नज़रिए से विचार करना चाहिए। इसमें सभी दलों की राय लेनी चाहिए, सुप्रीम कोर्ट को संविधान और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुरूप निर्णय देना चाहिए।
डॉ. प्रेम सिंह
अध्यक्ष