8 सितंबर 2018
प्रेस विज्ञप्ति
सोशलिस्ट पार्टी का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले, जिसके तहत अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के पीड़ित नागरिक की एफआईआर अथवा शिकायत पर अभियुक्त को गिरफ्तार करने से पहले उच्च अधिकारियों द्वारा जांच अनिवार्य बनाने का नया प्रावधान किया गया है, की समीक्षा नहीं करना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह सर्वविदित तथ्य है कि सवर्ण जाति के लोगों की अधिक संख्या और बेहतर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत के चलते पीड़ित अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के नागरिक को उनके खिलाफ पुलिस स्टेशन पर शिकायत दर्ज कराना पहले से ही मुश्किल है। पुलिस स्टेशन पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति नागरिकों के प्रति पुलिस कर्मचारियों का व्यवहार आमतौर पर भेदभावपूर्ण होता है। अगर कोई अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति का व्यक्ति सवर्णों द्वारा प्रताड़ित होने पर शिकायत दर्ज कराने का साहस जुटाता है, तो न्याय की मांग है कि आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ पुलिस तुरंत कड़ी कार्रवाई करे।
सोशलिस्ट पार्टी यह सुझाव देना चाहती है कि इस जटिल समस्या को केवल सरकारी कर्मचारियों के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए। भारतीय आबादी का एक बहुत ही कम हिस्सा सरकारी दफ्तरों में काम करता है। जाति-ग्रस्त सामाजिक संरचना के कारण यह समस्या देश भर में फैली है। स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी अत्याचारों का सामना करने वाले सबसे कमजोर लोग अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के हैं। देश की विधानपालिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका द्वारा उनके अधिकारों और गरिमा को सुनिश्चित किया जाना संवैधानिक दायित्व है।
इसलिए यह जरूरी है कि एससी/एसटी अत्याचार (रोकथाम) अधिनियम के सभी मूल प्रावधानों को सुरक्षित रखा जाए जो कि संविधान की भावना के अनुरूप हैं। सोशलिस्ट पार्टी केंद्र सरकार से इस मामले में अध्यादेश जारी करने का आग्रह करती है, ताकि वह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर होने वाले अन्याय के खिलाफ निवारक का काम कर सके।
पार्टी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समेत देश के सभी नागरिकों से अपील करती है कि वे संयम से काम लें और इस तथ्य को ध्यान में रखें कि सरकार चुनावी लाभ के लिए इस मुद्दे का राजनीतिकरण कर रही है।
पन्नालाल सुराना
वरिष्ठ नेता
सोशलिस्ट पार्टी