सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) ने सरकारी तनख्वाह लेने वाले व जन प्रतिनिधियों के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालय में पढ़ना अनिवार्य हो की मांग को ले कर एक हफ्ते के अभियान का समापन किया।
इस दौरान हमने बेसिक शिक्षा निदेशालय, निशातगंज, माध्यमिक शिक्षा कार्यालय, पार्क रोड व बेसिक शिक्षा अधिकारी कार्यालय, जगत नारायण रोड के सामने भी प्रदर्शन किए। 30 सितम्बर से 6 अक्टूबर, 2014 तक रोज दिन में 11 बजे से 12 बजे तक प्रदर्शन हुए। सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) ने इस मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा बनाने का फैसला किया है कि सरकारी वेतन पाने वालों व जन प्रतिनिधियों के बच्चों को सरकारी विद्यालय में पढ़ना अनिवार्य किया जाए। हमारा मानना है कि इसके सिवाय सरकारी विद्यालयों को ठीक करने का कोई उपाय नहीं है। हम अन्य राजनीतिक दलों को भी न्यौता देते हैं कि वे इस मुद्दे पर अपनी स्थिति स्पष्ट करें।
हमारी मांग है कि जैसे इन्दिरा गांधी की सरकार द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था उसी तरह सभी शैक्षिक संस्थानों का भी राष्ट्रीयकरण किया जाये, सभी सरकार द्वारा संचालित हों, सभी शिक्षकों को समान वेतन मिले, सभी स्कूलों में समान पाठ्यक्रम, और सभी छात्रों को मुफ्त और समान शिक्षा।
जब हम किसी सड़क के किनारे दुकान पर कुछ खा रहे होते हैं अथवा चाय की दुकान पर चाय पी रहे होते हैं तो हमें कई बार यह अहसास ही नहीं होता कि जो हाथ हमें खिला-पिला रहे हैं उन हाथों में असल में पेंसिल-किताब होनी चाहिए। इन बच्चें को जिन्हें आम तौर पर छोटू कह कर सम्बोधित किया जाता है के हम कई बार नाम भी नहीं पूछने की जरूरत समझते। इनमें से कुछ हमें साइकिल-मोटरसाइकिल की मरम्मत की दुकानों पर मिल जाएंगे। कुछ पटाखें, शीशे व बुनाई के कारखानों में मिलेंगे तो कई घरों में काम करते हुए मिल जाएंगे।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24, 21-ए व 45 बाल दासता को रोकने के लिए पर्याप्त होने चाहिए थे। अब तो कई कानून भी बन गए हैं। कारखाना अधिनियम, 1948, खादान अधिनियम, 1952, बाल मजदूर (प्रतिबंध एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1986, नाबालिग बच्चों को न्याय (संरक्षा एवं सुरक्षा), 2000 व मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 का क्रियान्वयन ईमानदारी से हो जाता तो काम करते हुए बच्चे कहीं दिखाई नहीं पड़ते। इन कानूनों के होते हुए भी बाल मजदूरी धड़ल्ले से चल रही है। इसका मतलब है कि न तो सरकार उपर्युक्त कानूनों के क्रियान्वयन के प्रति गम्भीर है और न ही नागरिकों को बाल मजदूरी से कोई दिक्कत है। कभी बच्चे के परिवार की मजबूरी बता कर या शिक्षा की बच्चे की जिंदगी में निरर्थकता बता हम किसी न किसी तर्क से बाल मजदूरी को जायज ठहरा देते हैं।
यदि हम ऐसी किसी सेवा का उपभोग कर रहे हैं जिसमें बाल मजदूर ने काम किया है तो हम भी स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। इसके अलावा हमें अपने से नैतिक सवाल यह भी पूछने पड़ेगा कि हमें किसी का बचपन छीनने का अधिकार किसने दिया?
यदि हम बच्चे को शिक्षा से वंचित कर रहे हैं तो हम उसके लिए जिंदगी में तरक्की के रास्ते बंद कर रहे हैं। कई बार यह कहा जाता है कि गरीबी के कारण बच्चा नहीं पढ़ पाता। किंतु यह भी तो सच है कि यदि उसे गरीबी का दुष्चक्र तोड़ना है तो शिक्षित होना पड़ेगा। ज्यादातर बाल मजदूर दलित एवं मुस्लिम समुदाय से हैं जो हमारे समाज के सबसे पिछड़े वर्ग हैं। इन्हें शिक्षा से वंचित रखने का मतलब होगा इनकी गरीबी की स्थिति बनाए रखना।
सामाजिक मानकों में सुधार तभी हो सकता है जब मौलिक आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा, मकान की जरूरतें पूरी हों और साथ हीे शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं अच्छी गुणवत्ता के साथ सभी को निःशुल्क उपलब्ध हों। ज्यादातर देशों जिन्होंने अपने सामाजिक मानकों में सुधार लाया है ने अपने नागरिकों के लिए अच्छी और निःशुल्क शिक्षा या स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्थाएं की हैं।
दुनिया के सभी विकसित देशों व कई विकासशाील देशों ने भी 99-100 प्रतिशत साक्षरता की दरें हासिल कर ली हैं। भारत में आधे बच्चे विद्यालय स्तर की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। इसमें से आधे बाल मजदूरी के शिकार हैं। जिन देशों ने 99-100 प्रतिशत साक्षरता की दरें हासिल की हैं उन्होंने अपने यहां समान शिक्षा प्रणाली लागू की है। इसके मायने यह हैं कि सभी बच्चों को लगभग एक गुणवत्ता वाली शिक्षा हासिल करने के अवसर उपलब्ध है।
इसीलिए हमारी मांग है कि भारत में भी समान शिक्षा प्रणाली लागू हो।
गिरीश कुमार पांडे, राज्य अध्यक्ष; डॉ संदीप पाण्डेय, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया)
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