शिक्षा के अधिकार के जमीनी सिपाही
दलित समुदाय के 32 वर्षीय रवीन्द्र के पास उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के कछौना विकास खण्ड में स्थित अपने गांव पुर्वा में इतनी कम जमीन है कि उसका परिवार भूमिहीन की श्रेणी में आता है। गांव के अन्य रोजगार की तलाश में नवजवानों की तरह उसने भी 8-10 वर्ष पहले अपने माता, पिता, एक भाई व एक बहन को छोड़कर पास के सबसे बड़े शहर 90 किलोमीटर दूर लखनऊ जाने का निर्णय लिया। हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण न कर पाने की वजह से उसकी औपचारिक शिक्षा कक्षा 8 तक ही मानी जाएगी। उसकी पृष्ठभूमि के नवजवान लखनऊ आकर प्रायः चार प्रकार के काम करते हैं – दैनिक मजदूरी, रिक्शा चलाना, ठेले पर या वैसे ही फुटकर चीजें बेचना अथवा किसी के घर या दुकान पर छोटी-मोटी तनख्वाह वाली नौकरी कर लेना। रवीन्द्र ने कपड़े की दुकानों से कपड़ा खरीद कर उसे घूम-घूम कर अपनी साइकिल पर बेचने का फैसला किया।
आज रवीन्द्र की शादी हो गई है व तीन बच्चे हैं। वह एक किराए के कमरे में रहता है जिसका किराया रु. 1,500 मासिक है। उसका कुल महीने का खर्च रु. 5,000 है। शैक्षणिक वर्ष 2016-17 में उसने अपने 8 वर्षीय पुत्र आयुष गौतम का दाखिला शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 की धारा 12(1)(ग) के तहत निःशुल्क शिक्षा हेतु आर.डी. पब्लिक स्कूल, आलमनगर में करा लिया और 7 वर्षीय पुत्री का दाखिला उसी प्रावधान के तहत सिद्धार्थ पब्लिक स्कूल में करा लिया। अधिनियम की उक्त धारा के तहत अलाभित समूह जिसमें जाति के आधार पर चयन का प्रावधान है और दुर्बल वर्ग जिसमें आर्थिक आधार पर चयन का प्रावधान है के कुल मिलाकर 25 प्रतिशत तक बच्चे कक्षा 1 से 8 तक निःशुल्क शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।
रवीन्द्र एक सामाजिक व्यक्ति है। उसे सिर्फ अपने बच्चों के दाखिले से चैन नहीं था। उसने 17 अन्य बच्चों का भी दाखिला कराया। इसी नाते उसे अभिभावक संघ का अध्यक्ष बनाया गया जो माता-पिता की बच्चों के दाखिला हेतु फार्म भरने से लेकर दाखिले में अन्य किसी प्रकार की दिक्कत आने पर उनकी मदद करता है।
शैक्षणिक सत्र 2017-18 में रवीन्द्र ने 92 बच्चों के विभिन्न निजी विद्यालयों में दाखिले हेतु अभिभावकों की मदद की।
किंतु रवीन्द्र की राह आसान नहीं रही है। बेसिक शिक्षा अधिकारी के कार्यालय में विभिन्न अभिभावकों के साथ जाने की वजह से वहां के कर्मचारियों को शक हुआ कि वह कहीं दलाल तो नहीं जो बच्चों के दाखिले के बदले में अभिभावकों से मोटी रकम वसूल रहा हो। वह सामाजिक काम में इतना मशगूल हो गया कि अपनी आजीविका कमाने के काम में वह पूरा समय नहीं दे पा रहा था। आज की तारीख में उन दुकानों से जहां से वह बेचने के लिए कपड़ा लेता है उस पर रु. 50,000 से 60,000 का कर्ज हो गया है।
46 वर्षीय प्रवीण श्रीवास्तव लखनऊ के कैसरबाग स्थित क्वीन्स कालेज में भौतिकी शास्त्र पढ़ाते हैं। 2011 में वे इण्डिया अगेन्स्ट करप्शन में शामिल हुए व फिर आम आदमी पार्टी में। किंतु पार्टी की उत्तर प्रदेश में निष्क्रियता देख उन्होंने सामाजिक कार्यों को तरजीह देना ही बेहतर समझा। 2015-16 में प्रवीण श्रीवास्तव ने करीब 50 बच्चों का व 2016-17 में 30-40 बच्चों का दाखिला सरकारी विद्यालयों में कराया। वर्तमान शैक्षणिक सत्र में उन्होंने करीब 250 बच्चों के शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत दाखिले हेतु ऑनलाइन फार्म भरवाए। रोजाना अपने कालेज से दिन में 1 बजे छुट्टी के बाद प्रवीण अक्सर अभिभावकों के साथ बेसिक शिक्षा अधिकारी कार्यालय जाकर उनकी समस्याएं सुलझाने का प्रयास करते हैं अथवा विद्यालयों में जाकर उनके प्रबंधकों से बात कर माता-पिता को जो भी दिक्कतें आ रही होती हैं उनका हल निकालने की कोशिश करते हैं। उनका मोबाइल 9415269790 एक चलता फिरता हेल्पलाइन बन गया है जिसपर कोई भी अभिभावक कोई जानकारी, सुझाव या मदद मांग सकता है। प्रवीण कभी किसी को निराश नहीं करते। मृदुभाषी होने के कारण गरीब से गरीब भी उनसे बात करने में संकोच नहीं करता। गरीब बच्चों की किताबों से लेकर ड्रेस, आदि में वे सालाना चंदा इक्टठा कर करीब रु. 15,000 अपनी तरफ से खर्च भी कर देते हैं।
मीनू सूर 58 वर्षीय टेªड यूनियन कार्यकर्ती हैं जो गोविंदनगर, कानपुर में घरेलू महिला कामगार यूनियन के नाम से अपना संगठन चलाती हैं। 1964 में वे पूर्वी पाकिस्तान से आईं और 45 वर्ष पहले कानपुर में बस गईं। इस वर्ष उन्होंने महेश नामक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ मिलकर शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत दाखिले हेतु करीब 300 ऑनलाइन फार्म भरवाए। इनमें से 275 बच्चे विभिन्न विद्यालयों में इस समय पढ़ रहे हैं। ये ज्यादातर घरों में काम करने वाली महिलाओं के ही बच्चे हैं।
चिंतामणि सेठ भी 58 वर्ष के हैं और लंका, वाराणसी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार के बाहर गुमटी व ठेले वालों के संगठन के अध्यक्ष हैं। इन्होंने 2016-17 में करीब 250-300 अभिभावकों की शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत अपने बच्चों को विभिन्न विद्यालयों में दाखिला दिलाने में आ रही दिक्कतों को दूर किया। इस वर्ष चिंतामणि सेठ ने 140 बच्चों के दाखिले हेतु ऑनलाइन फार्म भरवाए।
रवीन्द्र, प्रवीण, मीनू सूर व चिंतामणि जैसे लोग आज शिक्षा के अधिकार अधिनियम की अलख जगाए हुए हैं नहीं तो सरकारी शिक्षा विभाग तो इस अधिनियम को पूरी तरह से लागू करने की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहा और निजी विद्यालय इसके लागू किए जाने का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें अपनी व्यवस्था में सरकार का हस्तक्षेप मंजूर नहीं है। उपर्युक्त जमीनी कार्यकर्ता जैसे लोग नहीं होते तो यह अधिनियम तो असामयिक मृत्यु का शिकार हो जाता।
किंतु शिक्षा के अधिकार अधिनियम को लागू कराने में इन कार्यकर्ताओं को शासन, प्रशासन व मीडिया का सहयोग न के बराबर मिलता है। न्यायालय भी इतने संवेदनशील नहीं कि तुरंत फैसले सुनाएं। उदाहरण के लिए प्रवीण श्रीवास्तव की मदद से 2016-17 में 14 अभिभावक, जिनके बच्चों का दाखिला आदेश होने के बावजूद लखनऊ का सिटी मांटेसरी स्कूल नहीं ले रहा था, उच्च न्यायालय गए किंतु पूरा शैक्षणिक सत्र बीत जाने के बावजूद अभी तक कोई फैसला नहीं आया है। सवाल यह है कि यदि ये बच्चे संभ्रांत परिवारों के होते तो क्या न्यायालय इनका एक वर्ष यूं ही बरबाद होने देता?
लेखकः संदीप पाण्डेय
ए-893, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016