यूपी चुनाव: सांप्रदायिक फासीवाद की खोखली चिंता
प्रेम सिंह
सांप्रदायिकता, जातिवाद, दल-बदल (बाहुबलियों, दागियों, धनपतियों समेतद्), निम्न स्तरीय आरोप-प्रत्यारोप, खैरात, विकास आदि के कोहराम से भरा सात चरणों में फैला यूपी विधासभा चुनाव आज समाप्त हो गया। सभी पक्षों की सांस 11 मार्च को आने वाले नतीजों पर अटकी है। चुनाव के पहले चरण से ही मतदान के रुझानों और नतीजों को लेकर अटकलबाजियों का बाजार गरम रहा है। नतीजे जो भी हों, इस बहुचर्चित चुनाव की सात विषेशताएं (नकारात्मक) स्पष्ट देखी जा सकती हैं : पहली, जीत की दावेदार पार्टियों के शीर्ष नेताओं की जनसभाओं, रैलियों, रोड शो आदि के चलते इस बार मतदाता ही नहीं, चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार भी भीड़ बना दिए गए हैं। अगर उनकी कुछ खबर लगी भी है तो यह कि वे किस जाति, धर्म या परिवार के हैं। दूसरी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने चुनाव जीतने के लिए संवैधानिक प्रावधानों के साथ सामान्य नैतिक मर्यादाओं का जो खुलेआम उल्लंघन किया है, वह दर्शाता है उनकी आस्था ही उनमें नहीं है। तीसरी, सेकुलर कही जाने वाली पार्टियां पूरे पांच साल सांप्रदायिकता को बढ़ाती और मजबूत करती हैं, लेकिन चुनावों के वक्त आरएसएस/भाजपा से लड़ने की जिम्मेदारी मुसलमानों पर डाल दी जाती है। उत्तर प्रदेश में यह खास तौर पर होता है। मजेदारी यह है कि खुद मुसलमान उत्साहपूर्वक यह भूमिका निभाते नजर आते हैं। चौथी, मीडिया की खबरों और रिपोर्टिंग में वस्तुनिष्ठता और तथ्यात्मकता की गिरावट बदस्तूर जारी है। पांचवी, सांप्रदायिकता की काट में जाति समीकरण से चुनाव जीतने से सांप्रदायिकता नहीं रुकती। छठी, केंद्र हो राज्य, सेकुलर पार्टियों की सत्ता के बावजूद समाज में सांप्रदायिकता की पैठ और फैलाव तेजी से बढ़ता जा रहा है। सातवीं, सेकुलर नागरिक समाज, खास कर चुनाव के वक्त, सांप्रदायिकता पर भारी चिंता जताता है। इस लेख में नागरिक समाज की सांप्रदायिकता को लेकर जताई जाने वाली चिंता पर विचार किया गया है।
यूपी विधासभा के साथ पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर विधानसभाओं के चुनाव भी संपन्न हुए हैं। लेकिन नागरिक समाज के सेकुलर खेमे की सारी चिंता यूपी विधानसभा चुनावों को लेकर रही है कि वहां आरएसएस/भाजपा न जीत जाए। आगे बढ़ने से पहले हम एक प्रसंग का उल्लेख करना चाहते हैं। पिछले साल सितंबर के महीने में कनाडा से रामशरण जोशी जी से फोन पर बात हुई थी। उन्होंने फोन पर यूपी चुनाव को लेकर चिंता जताते हुए पूछा था कि वहां क्या होने जा रहा है? बातचीत के दौरान उन्होंने आतुर भाव से कहा कि कुछ भी हो, कोई जीते, भाजपा नहीं जीतनी चाहिए। मैंने उनसे कहा कि उत्तर प्रदेश में यह बहुत आसान है। अगर प्रदेश की दो प्रमुख सेकुलर कही जाने वाली पार्टियां – समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी – मिल कर चुनाव लड़ें तो भाजपा की पराजय लगभग निश्चत है। उन्होंने निराशा जाहिर की कि ऐसा भला कहां हो पाएगा – दोनों पार्टियों में छत्तीस का आंकड़ा है! हमने कहा कि अगर देश के सेकुलर नागरिक समाज की आरएसएस-भाजपा के सांप्रदायिक फासीवाद को लेकर चिंता सच्ची है, तो सेकुलर कही जाने वाली राजनीतिक पार्टियों को उनकी चिंता पर ध्यान देना होगा। यानी आरएसएस/भाजपा का सांप्रदायिक फासीवाद राजनीतिक पार्टियों के लिए भी सच्ची चिंता का विषय बनेगा।
हमने जोशी जी से आगे कहा कि चुनाव जीतने के बाद सत्ता के बंटवारे का मसला आसानी से सुलझाया जा सकता है। जीत के बाद मायावती और अखिलेश यादव बारी-बारी से मुख्यमंत्री रहें। इस पर बात न बने तो अखिलेश मुख्यमंत्री रहें, बसपा का कोई नेता उपमुख्यमंत्री रहे और कांग्रेस-रहित विपक्ष मायावती को 2019 में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार करे। अगर इस पर भी बात न बने तो आधा समय मायावती और आधा समय कोई दूसरा महत्वाकांक्षी नेता प्रधानमंत्री बने। जोशी जी इस सुझाव पर बहुत खुश हुए और कहा कि मैं यह लिखूं और ऐसा हो इसके लिए प्रयास करूं।
बात आई गई हो गई। हमने लिखना इसलिए मुनासिब नहीं समझा कि सेकुलर नागरिक समाज को धर्मनिरपेक्षता-सांप्रदायिकता के सवाल और समस्या पर हमारा नजरिया पसंद नहीं आता है। इसके दो मुख्य कारण हैं: वह मान कर चलता है कि सांप्रदायिकता के लिए केवल आरएसएस-भाजपा पर प्रहार किया जाना चाहिए; और धर्मनिरपेक्षता-सांप्रदायिकता के सवाल और समस्या को नवउदारवाद के सवाल और समस्या से नहीं उलझाना चाहिए। जहां तक प्रयास करने की बात है, पिछले लोकसभा चुनाव के करीब एक साल पहले से जस्टिस राजेंद्र सच्चर, भाई वैद्य और मैंने कामरेड बर्द्धन के साथ मुलाकात और पत्राचार करके यह कोशिश की थी कि कांग्रेस और भाजपा से अलग चुनाव-पूर्व गठबंधन बनाया जाना चाहिए। उस गठबंधन में नवउदारवाद का विरोध करने वाली छोटी राजनीतिक पार्टियों और जनांदोलनकारी समूहों को भी शामिल किया जाए। यह सुझाव भी था कि राजनीति में तीसरी शक्ति कही जाने वाली पार्टियां किसी एक नेता का नाम आगे करके मिल कर चुनाव लड़ें। हमने कामरेड एबी बर्द्धन का नाम सुझाया था, यह जोड़ते हुए कि संबद्ध पार्टियां किसी अन्य नाम पर भी सहमति बना सकती हैं। इस आशय का एक लेख भी हमने ‘युवा संवाद’ और ‘मेनस्ट्रीम’ में लिखा था। नवउदरवाद विरोधी छोटी राजनीतिक पार्टियों/संगठनों को उपेक्षित करके चलने वाले बड़े नेताओं को तो खैर क्या ध्यान देना था, धर्मनिरपेक्ष नागरिक समाज ने भी उस प्रयास और सुझाव का नोटिस नहीं लिया। क्योंकि तब चुनाव का केंद्रीय मुद्दा केवल भाजपा विरोध नहीं, नवउदारवादी नीतियों का विरोध होता, जो नागरिक समाज को स्वीकार्य नहीं है।
अभी की स्थिति में भी हमारा एक सुझाव है कि बसपा या सपा-कांग्रेस गंठबंधन में एक की बहुमत जीत के बावजूद विधानसभा में मिल-जुली सरकार बनाई जाए। इससे 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए एक विष्वसनीय आधार तैयार हो सकेगा; साथ ही राज्यसभा में विपक्ष की मजबूती बनेगी, जिसके आधार पर राश्टपति-उपराश्टपति के चुनाव में प्रभावकारी हस्तक्षेप किया जा सकेगा। अगर जीत भाजपा की होती है तो दोनों पार्टियां विपक्ष में तालमेल बना कर भाजपा की सांप्रदायिक मुहिम को निरस्त करने का काम कर सकती हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले और दौरान भी नागरिक समाज की कमोबेश यही स्थिति थी। उसकी पुकार थी कि आरएसएस/भाजपा को बिहार में रोकिए वरना पूरे देश में फासीवाद फैल जाएगा। उस चुनाव में भाजपा हार गई थी। इसके बावजूद वैसी सभी घटनाएं जिन्हें फासीवाद की दस्तक या आगमन कहा जाता है, एक के बाद एक होती जा रही हैं। प्रोफेसर किरवले की हत्या अभी हाल में हुई है। फिर भी नागरिक समाज ने अपनी सारी आषाएं अब यूपी की जीत पर टिका दी हैं। बिहार की तरह यूपी में भी नागरिक समाज को भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले नेताओं से उनकी राजनीति के चरित्र को लेकर कोई शिकायत नहीं है। रिहाई मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शोएब या ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के प्रवक्ता एस दारापुरी इन नेताओं की धर्मनिरपेक्षता या किसी अन्य नीति/कार्यक्रम पर कोई सवाल उठाते हैं तो नागरिक समाज का उनके प्रति नाराजगी और नकार का रवैया होता है। नागरिक समाज के कुछ अति उत्साही नुमाइंदों ने यहां तक घोषणा कर डाली कि किसी सीट पर दो वोट से भी भाजपा का उम्मीदवार जीतेगा है तो उसका ‘पाप’ उन छोटी पार्टियों के उम्मीदवारों या निर्दलियों पर जाएगा जो चुनाव लड़ने की हिमाकत कर रहे हैं। अर्थात यूपी में नागरिक समाज भाजपा को हराने के लिए लोकतंत्र को गंवा देने की हद तक चला गया है।
यह प्रकट तथ्य है कि सेकुलर पार्टियों की जीत से समाज में सांप्रदायिकता, जातिवाद, कूपमंडूकता, अंधविश्वास का फैलाव नहीं रुकता है। बल्कि यह फैलाव अनिवासी भारतीयों तक हो गया है। सांप्रदायिकता, जातिवाद, कूपमंडूकता, अंधविष्वास में आकंठ डूबे ज्यादातर अनिवासी भारतीय मोदी और केजरीवाल के अंध समर्थक हैं। कहने की जरूरत नहीं कि कि वे नवउदारवाद के भी अंध समर्थक हैं और नवउदारवादी विचार, आंदोलन, राजनीति के अंध विरोधी। टीम केजरीवाल ने पंजाब विधानसभा चुनाव में अनिवासी पंजाबियों का चुनाव जीतने के लिए जम कर इस्तेमाल किया। अब वे गुजरात विधानसभा चुनाव में अनिवासी गुजरातियों पर काम कर रहे हैं। यूपी का ही प्रमाण लें और पीछे की रामकहानी छोड़ कर सांप्रदायिकता की हाल की कुछ विशिष्ट घटनाओं पर गौर करें। सेकुलर सत्तारूढ़ सपा सरकार और विपक्षी बसपा के रहते मुजफ्फर नगर के दंगे हुए, मुसलमानों को उनके घरों-गांवों से खदेड़ा गया, अखलाक की हत्या हुई, कई बेगुनाह मुस्लिम युवकों को आतंकवादी बता कर झूठे मुकदमों में फंसाया गया (रिहाई मंच द्वारा ऐसे 14 बेगुनाह मुस्लिम युवकों की रिहाई और विशेष कार्य बल (एसटीएफद्) द्वारा 22 दिसंबर 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन से खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी की विस्फोटकों सहित गिरफ्तारी के मामले में जस्टिस आरडी निमेश कमीशन की रिपोर्ट इसका उदाहरण हैंद्)। सपा-बसपा ने ने आज तक सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ कोई आंदोलन उत्तर प्रदेश में नहीं चलाया है। इनकी धर्मनिरपेक्षता कुछ मुसलमानों को टिकट और छोटे-मोटे पद/पुरस्कार देने तक सीमित है। बनारस भी यूपी में है। सेकुलर नागरिक समाज का चहेता केजरीवाल बनारस में चुनाव लड़ कर मोदी को जिता देता है। उसने अपना सारा वजन केजरीवाल के पीछे डाल दिया। नागरिक समाज को तब सेकुलर सपा-बसपा-कांग्रेस याद नहीं आईं, जिनकी वह आज कसमें खा रहा है। केजरीवाल ने जब गंगा में डुबकी लगा कर बाबा विश्वनाथ के मंदिर में ढोक लगाई तो एक नागरिक समाजी ने निर्लज्जतापूर्वक कहा कि इससे गंगा कुछ पवित्र ही हुई है! दरअसल, सेकुलर नागरिक समाज की सांप्रदायिकता पर जताई जाने वाली चिंता खोखली है। सांप्रदायिकता विरोध की आड़ में वह अपने वर्ग-स्वार्थ की पूर्ति करता है और उसका वर्ग-स्वार्थ नवउदारवाद के साथ जुड़ा है। मुक्तिबोध ने भारतीय नागरिक समाज के इस वर्ग-चरित्र को नेहरू युग में ही पहचान लिया था।
जिन लोगों ने मोदी को चुना है नागरिक समाज को उन्हें उनके विवेक पर छोड़ देना चाहिए। आशा करनी चाहिए कि वे अपने चुनाव की समीक्षा करेंगे और अगले चुनाव में बेहतर विकल्प चुनेंगे। नागरिक समाज मोदी और ‘भक्तों’ की खिल्ली उड़ाना भी छोड़ दे। इससे भाजपा के भीतर और भाजपा के बाहर की राजनीति में उन्हें मजबूती मिलती है। बेहतर यह होगा कि नागरिक समाज मोदी को लाने में अपनी भूमिका के बारे में ईमानदारी से विचार करे। तब उसे पता चलेगा कि मोदी को लाने में पहल उसकी थी; जनता बाद में चपेट में आई। कांग्रेस के दो टर्म हो चुके थे। नवउदारवाद के तहत विषमता, बेरोजगारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार ही बढ़ते हैं, वह कांग्रेस के षासन में भी हुआ। जनता ने कांग्रेस को चुना था, क्योंकि उसके पहले की एनडीए सरकार में विषमता, बेरोजगारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार बेतहाशा बढ़ा था, जिसे ‘शाइनिंग इंडिया’ के सरकारी प्रचार से छिपाने की भरसक कोशिश की गई थी। नागरिक समाज कोशिश कर सकता था कि कांग्रेस-भाजपा से अलग तीसरे मोर्चे की सरकार बने, ताकि जनता को नवउदारवादी दुष्चक्र से थोड़ी राहत मिल सके। लेकिन नागरिक समाज इंडिया एगेंस्ट करप्शन, जिसे एनजीओबाजों, कुछ नामी प्रोफेशनलों, पुरस्कृत हस्तियों, धर्म, ध्यान, योग आदि का धंधा करने वालों ने आरएसएस और कारपोरेट घरानों के साथ मिल कर नवउदारवाद को बचाने के लिए खड़ा किया था, के साथ ‘आम आदमी’ बन कर एकजुट हो गया। नवउदारवाद के खिलाफ खड़ा किया गया पिछले 25 सालों संघर्ष तहस-नहस कर दिया गया। दिल्ली की जीत पर हवन करके उसे ईश्वर का वरदान बताते हुए नागरिक समाज के नए नायक ने दिल्ली में बड़े उद्योगपतियों से हाथ मिला कर कहा कि वह पूंजीवाद के साथ है।
भारत में सांप्रदायिकता पूंजीवाद की कोख से जन्मी है। पूंजीवाद के मौजूदा चरण नवउदारवाद, जो तीसरी दुनिया के संदर्भ में नवसाम्राज्यवाद है, के तहत उसका बढ़ते जाना तय है। लिहाजा, नागरिक समाज को सांप्रदायिकता की खोखली चिंता छोड़ कर ईमानदारी से 2019 के लोकसभा चुनावों में नवउदारवाद विरोध का ठोस विकल्प बनाने की चिंता करनी चाहिए।
8 मार्च 2017