जॉर्ज फर्नांडिस : एक तूफानी नेता का अवसान
प्रेम सिंह
जॉर्ज फर्नांडिस के निधन की सूचना सुबह ही डॉ. सुनीलम ने भेजी. मन कुछ देर तक खिन्न रहा. जॉर्ज करीब 10 साल से अल्जाइमर की बीमारी से ग्रस्त चल रहे थे और लम्बे समय से लगभग अचेतावस्था में थे. एक दौर में तूफानी रहे शख्स के लिए वैसी स्थिति एक लंबी त्रासदी से कम नहीं थी. सुनीलम ने लिखा था कि अंत्येष्टि कल दिल्ली में होगी. लिहाज़ा, यूनिवर्सिटी के लिए निकला. रास्ते पत्रकार श्याम सुंदर का फोन आया कि ‘एशियाविल’ के लिए जॉर्ज फर्नांडिस के बारे में आलेख भेजूं. मैंने अचकचा कर कहा कि ऐसे मौके पर मैं उनके बारे में क्या लिख सकता हूं! दिवंगत नेता को श्रद्धांजली देनी है, वह कुछ शब्दों की होगी.
श्याम जानते हैं मैंने जॉर्ज फर्नांडिस की उत्तरकालीन राजनीति, जो उन्होंने आरएसएस/भाजपा के साथ मिल कर की, पर समानांतर रूप से ‘जनसत्ता में कई लेख लिखे हैं. यही समझ कर उन्होंने शायद सोचा कि मैं उनके निधन पर विस्तार से लिख पाऊंगा. लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि अभी या बाद में उन पर बहुत विस्तार से लिख पाऊं.
मेरा जॉर्ज फर्नांडिस से व्यक्तिगत मिलना जनता सरकार गिरने के बाद अस्सी के दशक में हुआ. कुछ दिन उनके साथ काम करने का मौका भी मिला. ‘प्रतिपक्ष’ में लिखने की शुरुआत तभी से की. मेरे पास फोन नहीं होता था. कहीं से फोन किया उअर उनसे बात नहीं हो पाई तो कई बार पड़ोस के फोन पर उनका कॉल आता था. समाजवादी आंदोलन के एक जुझारू मजदूर नेता और राजनेता की उनकी छवि सभी की तरह मेरे ज़ेहन में भी थी. उसी के चलते देश की राजनीति और आगे के समाजवादी आंदोलन के प्रति एक विश्वास भी था. किशन पटनायक जनता पार्टी में शामिल नहीं हुए थे और उन्होंने चुनाव भी नहीं लड़ा था. वे सोशलिस्ट पार्टी का जनता पार्टी में विलय करने के पक्ष में नहीं थे. लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस सहित मधु लिमये, मधु दंडवते, रवि राय, चंद्रशेखर, सुरेंद्र मोहन, राजनारायण, भाई वैद्य आदि बहुत से नेता जनता पार्टी की टूट के बाद भी सक्रिय राजनीति में थे. इससे आशा बंधती थी कि एक दिन सोशलिस्ट पार्टी की पुनर्स्थापना कर ली जायेगी. विलय के समय जॉर्ज फर्नांडिस सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे. उनसे यह अपेक्षा ज्यादा बनती थी.
जब मधु लिमये का निधन हुआ तो जॉर्ज फर्नांडिस को पहली बार रोते हुए देखा. 1995 में मधु जी के निधन पर मराठी दैनिक ‘लोकमत’ ने लिखा था : “मधु लिमये के सहकर्मी जॉर्ज फर्नांडिस उनके जाने से अकेले हो गए हैं. औरों के लिए उनका जाना कुछ दिनों के लिए दुखदायी होगा. परन्तु भारतीय राजनीति में जिन दो संघर्षशील समाजवादियों की प्रभावी संसदीय भूमिका का आगे भी उल्लेख होता रहेगा, उनमें से जॉर्ज फर्नांडिस एक हैं. दोनों ही अपने विचारों के पक्के रहे. कदाचित इसीलिए जॉर्ज को आगे आखिरी समय में भी समाजवादी विचारों की रक्षा के लिए एकाकी लड़ाई लड़नी पड़ेगी. यह लड़ाई ही लिमये जी की याद दिलाती तहेगी.” कहने का आशय है कि विश्वास मेरे जैसे लोगों का ही नहीं था, यह सामान्य तौर पर भी था कि जॉर्ज फर्नांडिस समाजवादी आंदोलन में नए सिरे से प्रभावी भूमिका निभायेंगे.
जॉर्ज फर्नांडिस 1994 समता पार्टी बना चुके थे. 1996 में 13 दिन की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार गिरने के बाद बनी राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार के दौरान वे भाजपा के साथ विपक्ष में थे. 1998 में 13 महीने चली वाजपेयी सरकार में जॉर्ज फर्नांडिस शामिल थे और बाद में भाजपा के नेतृत्व में 24 दलों वाले एनडीए की स्थापना होने पर वे उसके संयोजक बने. 1999 में बनी वाजपेयी सरकार में वे रक्षा मंत्री थे. यानी मधु लिमये की मृत्यु के बाद उनसे की जा रहीं अपेक्षाओं के विपरीत जॉर्ज फर्नांडिस समाजवादी राजनीति के रास्ते से हट कर पूरी तरह से सांप्रदायिक व पूंजीवादी रास्ते बढ़ गए थे. उस रास्ते पर शरद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान आदि उनके हमसफ़र बने और अंत में उन्हें धोखा भी दिया. उनके इस राजनीतिक आचरण से हतप्रभ मैंने उन पर केन्द्रित 5 लेख लिखे थे, जो अब ‘कट्टरता जीतेगी या उदारता’ (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2004) पुस्तक के जॉर्ज फर्नांडिस खंड में संकलित हैं.
इस पुस्तक पर आयोजित चर्चा में बोलते हुए प्रोफेसर आनंद कुमार ने कहा था कि पुस्तक के इस खंड पर बोलना मेरे लिए एक दुखदायी अनुभव है. मैं भी इस शोक के अवसर पर जॉर्ज फर्नांडिस के उस दौर के राजनीतिक किरदार को लेकर कुछ कहना नहीं चाहता. लेकिन एक तेजस्वी सोशलिस्ट मजदूर नेता की उनकी शानदार भूमिका को जरूर याद करना चाहता हूं. वह इसलिए कि कारपोरेट राजनीति के इस दौर में जिस तरह से सरकारें कड़े संघर्ष के परिणामस्वरूप बने श्रम कानूनों को उद्योगपतियों के हित में बदल और ख़त्म कर रही हैं, उन्हें रोकने में जॉर्ज फर्नांडिस के संघर्ष का स्मरण मदद कर सकता है. जिस तरह से मौजूदा सरकार भारतीय रेल का निजीकरण कराती जा रही है, उसे देख कर जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में हुई 1974 रेल हड़ताल याद आती है. जनता पार्टी सरकार में उद्योगमंत्री के रूप में जॉर्ज फर्नांडिस ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों कोकाकोला और एबीएम को कड़े कानून बना कर देश से बाहर कर दिया था. आज जबकि देश अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चारागाह बन चुका है, साम्राज्यवाद विरोध की चेतना से प्रेरित जॉर्ज का वह फैसला याद आता है.
जॉर्ज फर्नांडिस से पहली बार मिलते वक्त उनकी जो छवि जेहन में बनी हुई थी, उसे ही नमन करते हुए उन्हें अपनी श्रद्धांजली देता हूं.
29 जनवरी 2019