क्या चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे से कश्मीर समस्या का समाधान निकल सकता है?
नरेन्द्र मादी ने प्रधान मंत्री बनने के बाद पहले दो वर्ष में जो दुनिया के तमाम देशों के तूफानी दौरे किए उसमें उनकी काफी ऊर्जा इस बात में खर्च हुई कि पाकिस्तान को एक आतंकवादी राष्ट्र के रूप में चिन्हित करा उसे अलग-थलग किया जाए। जब चीन ने ’एक पट्टी एक मार्ग’ शिखर सम्मेलन बुलाया तो उसमें दुनिया के करीब एक तिहाई मुल्क शामिल हुए और भारत ने उसका बहिष्कार कर अपने को अलग-थलग कर लिया। पाकिस्तान को वहां काफी महत्व मिला क्योंकि ’एक पट्टी एक मार्ग’ पहल, जो एशिया व यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं को जोड़ने की योजना है, का एक मुख्य अंग है ’चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा’।
’एक पट्टी एक मार्ग’ शिखर सम्मेलन के ठीक पहले नरेन्द्र मोदी ने श्रीलंका का दौरा कर यह कोशिश की कि श्रीलंका कम से कम भारत के साथ रहे। चंूकि अवसर एक अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध उत्सव का था, इसलिए दोनों देशों की साझा बौद्ध विरासत को रेखांकित किया गया। नरेन्द्र मोदी ने कहा कि बढ़ती हुई हिंसा का जवाब महात्मा बुद्ध का शांति का संदेश ही है। किंतु श्रीलंका के साथ-साथ बंग्लादेश व नेपाल ने भी ’एक पट्टी एक मार्ग’ शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया जिससे पता चलता है कि चीन का उनपर कितना प्रभाव है। चीन ने सम्मेलन में भाग ले रहे देशों का समर्थन हासिल करने के लिए बौद्ध वैश्वीकरण की बात की। अब यह अनुमान लगाया जा सकता है कि नरेन्द्र मोदी और ज़ी जिनपिंग यदि बौद्ध धर्म को आधार बना समर्थन जुटाने का प्रयास करते हैं तो उनमें कौन ज्यादा सफल होगा?
भारत ने ’एक पट्टी एक मार्ग’ शिखर सम्मेलन का इसलिए बहिष्कार किया क्योंकि चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा पाकिस्तान के कब्जे में कश्मीर का जो हिस्सा है उससे गुजरता हुआ बनाया जा रहा है। हलांकि यह स्पष्ट नहीं है कि सम्मेलन में भाग न लेकर भारत चीन व पाकिस्तान को यह आर्थिक गलियारा बनाने से कैसे रोक पाएगा? भारत को तो इस सम्मेलन में भाग लेकर विभिन्न देशों के जमावड़े के बीच अपनी बात कहनी चाहिए थी।
1972 में भारत और पाकिस्तान के पास जो कश्मीर के हिस्से हैं उनके बीच एक नियंत्रण रेखा तय की गई। जो शक्ति समीकरण है उसमें यह असम्भव दिखाई पड़ता है कि भारत या पाकिस्तान में से कोई भी पूरा कश्मीर, जिसके बारे में वे दावा करते हैं, अपने कब्जे में कर सकता है। एक समाधान तो यह सुझाया जाता है कि नियंत्रण रेखा को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए। दूसरा समाधान तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने सुझाया था। उन्होंने सीमारहित कश्मीर की बात की थी। यानी कश्मीर का एकीकरण कर उसे भारत और पाकिस्तान की संयुक्त देख-रेख में रखा जाए।
कश्मीर में आजादी के जज्बे को देखते हुए बेहतर होगा यदि भारत और पाकिस्तान आपसी सहमति से संयुक्त रूप से कश्मीर के लिए एक सम्मानजनक स्वायत्ता की व्यवस्था करें जो उसे स्वीकार्य हो। चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा बनने से उन देशों की संख्या बढ़ जाएगी जिनकी कश्मीर में शांति स्थापित करने व रखने में रुचि होगी। चीन भारत पाकिस्तान के बीच मध्यस्थ की भूमिका अदा कर सकता है और ऐसी एक संयुक्त व्यवस्था बना सकता है जिसमें कश्मीर इस आर्थिक परियोजना में बराबर के भगीदार के रूप में शामिल हो सके। वैसे भी इस आर्थिक परियोजना हेतु कश्मीरियों की सहमति तो आवश्यक है चूंकि यह उनके इलाके से गुजर रही है।
यह इस रूप में नहीं देखा जाना चाहिए कि भारत कश्मीर पर अपना दावा छोड़ रहा है। एक बात तो यह कि पाकिस्तान को भी अपना इस किस्म का दावा छोड़ना पड़ेगा। दूसरी बात कि दुनिया में मानवाधिकारों के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता के माहौल में कश्मीर भारत या पाकिस्तान की महत्वाकांक्षा के अधीन रहे ऐसा अब सम्भव नहीं। भारत और पाकिस्तान हमेशा-हमेशा के लिए कश्मीर पर सेना के माध्यम से शासन का सपना नहीं देख सकते। जो गतिरोध पिछले 70 सालों से चला आ रहा है उसका कहीं तो अंत होना चाहिए ताकि कश्मीरी सामान्य जिंदगी जी सकंे। कश्मीर में एक पूरी पीढ़ी ऐसी बड़ी हुई है जिसने सेना के बिना कोई जिंदगी देखी ही नहीं। निश्चित रूप से कश्मीरियों को इससे बेहतर जिंदगी जीने का अधिकार है।
चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे से भारत चीन व भारत पाकिस्तान के बीच दुश्मनियां कम हो सकती हैं क्योंकि तब इन तीनों मुल्कों के आर्थिक हित जुड़े होंगे। जब से देश में निजीकरण, उदारीकरण व वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियां लागू की गई हैं तब से हरेक सरकार ने पूंजी निवेश आकर्षित करने हेतु अपना पूरा प्रयास किया है। इसके अलावा नरेन्द्र मोदी तो मेक इन इण्डिया के तहत भारत में उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं। जब भारत के सामने एक क्षेत्रीय आर्थिक मंच का हिस्सा बनने का मौका आया है तो हम अपने को उससे वंचित रखना चाहते हैं?
रूस और चीन चाहें तो एशिया में भी यूरोप जैसा एक आर्थिक महासंघ बन सकता है जिसमें विभिन्न देशों के बीच यात्रा करने के लिए पासपोर्ट-वीसा की जरूरत खत्म की जा सकती है। इससे इस इलाके के देशों को अपनी सुरक्षा के भारी-भरकम बजट कम करने का मौका मिलेगा और भारत और पाकिस्तान के सैनिकों की रोज-रोज की गोलीबारी में जानें जाना बंद होंगी। सबसे बड़ी बात है कि कश्मीरियों को राहत की सांस लेने का मौका मिलेगा।
एक बार कश्मीर का मसला सुलझ जाए तो भारत चीन के बीच भी जो विवाद हैं वे सुलझाए जाने चाहिए। जैसे अभी भारत व पाकिस्तान कश्मीर को अपना अभिन्न हिस्सा मानते हैं उसी तरह चीन तिब्बत को अपना अभिन्न हिस्सा मानता आया है। किंतु तिब्बती अपने आप को एक स्वतंत्र देश मानते हैं और भारत में उनकी एक निष्कासित सरकार है। भारत में लोकतंत्र होने के कारण कश्मीर में होने वाली मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएं प्रकाश में आ जाती हैं किंतु तिब्बत में होने वाली मानवाधिकार हनन की घटनाओं के बारे में पता ही नहीं चलता। गैर-लोकतांत्रिक चीन ने तिब्बती आबादी का भयंकर दमन किया है और तिब्बती लोगों के अरमानों को कुचला है। एक आधुनिक वैश्वीकृत दुनिया में इसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? यदि भारत और पाकिस्तान कश्मीर पर अपना दावा छोड़ते हैं तो चीन को भी तिब्बत पर अपना दावा छोड़ना होगा। यह तय है कि स्वायत्त कश्मीर व तिब्बत में स्थानीय लोगों में खुशहाली होगी। चीन को अरुणांचल प्रदेश पर अपना दावा इसलिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि वहां कश्मीर या तिब्बत के विपरीत लोगों में कोई असामान्य आकांक्षा नहीं है।
उपर्युक्त भावना का सम्मान करते हुए पाकिस्तान को बलूचिस्तान पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए। नरेन्द्र मोदी ने कुछ समय के लिए बलूचिस्तान का मुद्दा उठाया, फिर किन्हीं कारणें से छोड़ भी दिया। उम्मीद है कि जब क्षेत्रीय अस्मिताओं को अपनी आकांक्षाएं पूरी करने का मौका मिल जाएगा तो दक्षिण एशिया में शांति होगी।
लेखकः संदीप पाण्डेय
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