मुख्य मुद्दा राजनीति और धर्म के रिश्ते का है | अकसर कहा जाता है कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए । सबसे बड़े राजनेता महात्मा गांधी थे और समाजवादी आंदोलन के सबसे बड़े चिंतक डॉ॰ लोहिया । न महात्मा ने न लोहिया ने धर्म को राजनीति से अलग किया । जहां लोहिया ने “राजनीति को अल्पकालीन धर्म और धर्म को दीर्घकालीन राजनीति” कहा वहीं महात्मा गांधी प्रत्येक दिन प्रार्थना-सभा में जाते रहे और धर्म से अपने को अलग करने की कल्पना तक न करने की बात करते रहे । इन सबके बावजूद न गांधी ने न लोहिया ने देश और राष्ट्र को, भारतीयता को किसी धार्मिक समुदाय से जोड़ा ।
गांधी थे जो कह सकते थे कि देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जिन्ना को बना दो, गांधी 1947 में कह सकते थे कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपया दे दो, लोहिया कह सकते थे कि जो मुसलमान से नफरत करता है वह पाकिस्तान का हितैषी है और अगर एक मुसलमान की जान बचाने के लिए दस हिंदुओं की जान देनी पड़े, तो दे देनी चाहिए ।
धर्म तो अपना बनाना सिखलाता है, नफरत करना नहीं, धर्म तो मनुष्य के उन उद्वेगों, चिंताओं, जिज्ञासाओं तथा उलझनों को शांत करने का स्त्रोत है । जिन्हें हजार-हजार भौतिक साधन शांत करने में असफल रहते हैं । सारी संपन्नताओं के बावजूद मनुष्य कभी पूर्णतः तुष्ट नहीं हो पायेगा, उसकी कल्पनाएं छलांग लगाती रहेंगी और वह धर्म का सहारा लेगा ।
जब तक धर्म संप्रदायवादी, अलगाववादी कट्टरपंथियों के हाथों में रहेगा, इसका गलत इस्तेमाल होता रहेगा । इसलिए धर्म को नकारने कि नहीं बल्कि उसे सहिष्णु रूप में रखने की जरूरत है । इसमें बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का सवाल कहाँ उठता है ? क्या भारतीय मानस ने कभी विभिन्न पंथों को उस रूप में देखा ? आज जो लोग धर्म के नाम पर राजनीति कर रहे हैं वे न भारतीयता की सेवा कर रहे हैं, न राष्ट्रियता को मजबूत कर रहे हैं । भारतीयता का प्रतीक तो वह भावना थी कि स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास एक मुसलमान ने किया था । क्या बिना वह दिन लाए भारत की राष्ट्रियता मजबूत होगी । जब राम मंदिर की नींव एक मुसलमान रखे और मस्जिद का शिलान्यास हिन्दू करे ?
नीरज कुमार
राष्ट्रीय अध्यक्ष, सोशलिस्ट युवजन सभा