पिछले तीन माह में यह स्पष्ट हो गया है कि कोरोना वायरस महामारी को रोकने में सरकार लगभग हर मोर्चे पर असफल रही है। न केवल सरकार कोरोना वायरस संक्रमण के तेजी से बढ़ते फैलाव को रोकने में असमर्थ रही है बल्कि उसके ही कारण देश के अधिकाँश लोगों को संभवतः सबसे बड़ी अमानवीय त्रासदी झेलनी पड़ी है। सरकार की असंवेदनशील, अल्प-कालिक और संकीर्ण सोच के कारण करोड़ों लोगों के मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ।
सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों और अधिकारियों ने वैज्ञानिकों और चिकित्सकों से सलाह नहीं ली जिसके कारण उसके अनेक निर्णय, नवीनतम शोध और प्रमाण पर आधारित नहीं रहे। सरकार ने अमरीकी उद्योग जगत की सलाहकार कंपनी, बाॅस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, को महामारी के नियंत्रण पर सुझाव देने के लिए ठेका दिया जबकि यह कम्पनी व्यापार-जगत और सरकारों को प्रबंधन सलाह देने के लिए जानी जाती है न कि जन-स्वास्थ्य आपदा प्रबंधन के लिए। फिर यह भी सवाल उठता है कि क्या कोई अमरीकी कम्पनी अब हमें बताएगी कि भारत आत्मनिर्भर कैसे बने? ताज्जुब की बात तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंदर स्वदेशी की अवधारणा मानने वालों को जैसे सांप सूंघ गया है। या सत्ता इतनी प्रिय लगने लगी है कि उसके लिए देश को भी कुर्बान किया जा सकता है?
देश के प्रतिष्ठित चिकित्सक, महामारीविद और जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञों की संस्थाओं ने संयुक्त वकतव्य जारी किया है जिसमें उन्होंने सरकार की निंदा की है क्योंकि वह महामारी, जन स्वास्थ्य, रोग नियंत्रण और सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञों को महत्व देने के बजाए सामान्य प्रशासनिक अधिकारियों के भरोसे रही।
सामान्य स्वास्थ्य व्यवस्था दुरुस्त करने में भी सरकार नाकाम रही जो तालाबंदी के दौरान सबसे उच्च-प्राथमिकता होनी चाहिए थी। एक ओर तो कोरोना वायरस से संक्रमित रोगियों को अस्पताल में एक ही बिस्तर साझा करना पड़ा, और स्वास्थ्यकर्मियों की भी कमी रही, दूसरी ओर, सामान्य जीवन-रक्षक स्वास्थ्य सेवा कु-प्रभावित या स्थगित पड़ी रही, जैसे कि, हृदय रोग, कैंसर, टीबी, एचआईवी आदि, जिसके कारण हजारों लोगों को अनावश्यक पीड़ा झेलनी पड़ी और असामयिक मृत्यु हुईं।
निजी क्षेत्र के अनियंत्रित मुनाफाखोरी पर भी सरकार लगाम नहीं लगा पाई। उदाहरण के तौर पर, निजी जांच लैब में कोरोना वायरस जांच की सरकार द्वारा तय अधिकतम कीमत रु. 4500 के कारण निजी जांच लैब 200 प्रतिशत मुनाफा कमाती रहीं क्योंकि असली कीमत रु 1500 से अधिक नहीं है। इस अधिकतम सीमा तय करने के बाद, सरकार के भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् ने 83 कोरोना वायरस जांच किट (आरटी-पीसीआर) का मूल्यांकन किया और 35 को संतोषजनक पाया जिसमें से 20 देशी कंपनियों द्वारा तैयार किए गए हंै। ऐसे ही एक संतोषजनक पाए हुए टेस्ट किट जिसको पुणे स्थित कंपनी ने बनाया है की कीमत रू 100 है। इसके बावजूद इन जांच पर अधिकतम कीमत को संशोधित नहीं किया गया बल्कि हाल ही में यह अधिकतम सीमा भी समाप्त कर दी गयी है।
कोरोना वायरस जांच के रु 4500 पर सवाल खड़े करते हुए, एड्स सोसाइटी ऑफ इंडिया ने कहा कि जन-स्वास्थ्य आपदा के दौरान निजी लैब को क्यों रोजाना रु 10-15 करोड़ का मुनाफा कमाने दिया गया, और अनेक लोग जो कोरोना वायरस नहीं बल्कि अन्य इलाज के लिए अस्पताल आये थे, जैसे कि, गर्भावस्था प्रसूति, डायलिसिस (गुर्दा रोग), कैंसर, सर्जरी, आदि, उनके लिए भी कोरोना वायरस जांच अनिवार्य कर दी गयी? निजी अस्पतालों ने निजी सुरक्षा उपकरण (पीपीई) के नाम पर रोगियों से हजारों रुपये वसूले।
स्वास्थ्यकर्मियों में कोरोना वायरस संक्रमण दर अत्यंत चिंताजनक है और स्वास्थ्य व्यवस्था में संक्रमण-नियंत्रण की खामियों को उजागर कर रहा है। स्वास्थ्यकर्मियों के लिए निजी सुरक्षा उपकरण की कमी भी इसका एक बड़ा कारण है। यह समस्या महामारी आपदा के आरंभ से ही बनी हुई है पर इसका अभी तक पूर्ण रूप से निवारण नहीं हो पाया है। कुछ प्रदेशों में, जैसे कि हिमाचल प्रदेश में, निजी सुरक्षा उपकरण की खरीद में भ्रष्टाचार भी सामने आया है।
कोरोना वायरस सम्बन्धी सभी आंकड़ें भी सरकार पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक नहीं कर रही है बल्कि महामारी नियंत्रण में सफलता का दावा कर रही है।
मीडिया ने पिछले महीनों में प्रवासी मजदूर की त्रासद स्थिति पर निरंतर प्रकाश डाला है। जो लोग दैनिक मजदूरी कर के अपना जीवन यापन करते हैं, सरकार उनकी वास्तविकता से कितनी अनभिज्ञ है इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार द्वारा घोषित तालाबंदी ने समाज के इस बड़े वर्ग के दृष्टिकोण को मद्देनजर लिया ही नहीं। इनमें से करोड़ों की तादाद में लोग अपने घरों से दूर रहते हैं और दैनिक आय पर ही निर्भर थे। सरकार ने जब प्रवासी मजदूर को घर तक यात्रा करने से रोकने का भरसक प्रयास किया तो लोगों को अनावश्यक हिंसा और पीड़ा झेलनी पड़ी जिसका उल्टा असर कोरोना वायरस महामारी नियंत्रण पर भी पड़ा।
यदि प्रवासी मजदूरों को तालाबंदी के प्रथम सप्ताह में, या तालाबंदी के मध्य भी जब सरकार को यह स्पष्ट हो गया था कि तालाबंदी लम्बी चलेगी तब भी यदि इनको घर वापस जाने दिया जाता, तो इतनी बेवजह अमानवीय पीड़ा न झेलनी पड़ती और इनके संक्रमित होने की सम्भावना भी अति-कम रहती। सैंकड़ों लोगों को मजबूरन पैदल, साइकिल या भीड़-भाड़ वाले परिवहन से घर तक जाने के लिए विवश होना पड़ा और दुर्घटना, भुखमरी और थकान के कारण दर्जनों असामयिक मृत्यु हुईं। आखिरकार जब सरकार ने श्रमिक रेल सेवा का इंतजाम किया तो वह अत्यंत असंतोषजनक व अपर्याप्त रही। 80 से अधिक लोग इन गाड़ियों में भुखमरी और थकान के कारण मर गए।
प्रवासी श्रमिकों के घर जाने से सम्बंधित सर्वोच्च न्यायलय का एक विलम्ब से आदेश आया कि उन्हें मुफ्त परिवहन सेवा उपलब्ध कराई जाए। इससे पहले जिन लोगों को सरकारी या निजी परिवहन को पैसे देने पड़े हैं उनको पैसे वापस लौटाए जाने चाहिए। इसी तरह जिन निजी संस्थानों ने कोरोना के जांच हेतु शुल्क वसूला है वह लोगों को वापस लौटाया जाना चाहिए।
कोरोना वायरस महामारी ने यह जग-जाहिर कर दिया है कि जन-स्वास्थ्य आपदा के दौरान सिर्फ सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली पर ही भरोसा किया जा सकता है। स्वास्थ्य सेवा का राष्ट्रीयकरण एक बड़ी आपातकालीन प्राथमिकता है। स्वास्थ्य सेवा के राष्ट्रीयकरण में, सभी निजी स्वास्थ्य सेवा, कर्मी, जांच लैब, चिकित्सकीय उपकरण और दवा बनाने वाले, दवा विक्रेता, बायो-टेक फर्म, आदि सभी को शामिल किया जाए।
कोरोना वायरस सम्बंधित स्वास्थ्य सेवा की देख-रेख करने वाले उच्च-स्तरीय चिकित्सकों को जब स्वयं संक्रमण हो गया तब वह निजी अस्पताल में जा कर इलाज करवा रहे हैं जो सरकारी सेवा पर सवाल खड़े कर देता है। यदि 2017 के न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल के इलाहबाद हाई कोर्ट के आदेश को पूरी इमानदारी से लागू किया जाता तब आज अधिक सशक्त सरकारी स्वास्थ्य सेवा होती जो बेहतर ढंग से जन-स्वास्थ्य आपदा में काम आती। इस आदेश ने सभी सरकारी तनख्वाह पाने वाले और निर्वाचित पदों पर आसीन लोगों के लिए यह अनिवार्य किया था कि वह सिर्फ सरकारी स्वास्थ्य सेवा से ही इलाज करवाएं और उसी चिकित्सक से करवाएं जो उस समय वहां उपलब्ध हो। इस आदेश को उत्तर प्रदेश में एवं पूरे देश में इमानदारी के साथ लागू करना चाहिए। जो ऊंचे पदों पर आसीन सरकारी अधिकारी और निर्वाचित पदों पर आसीन लोग निजी क्षेत्र में कोरोना वायरस या अन्य रोगों का इलाज करवा रहे हैं, उनको किसी भी रूप में जनता के पैसे से सहायता नहीं मिलनी चाहिए (जैसे कि सीजीएचएस, आदि से)। यह कितनी अजीब बात है कि प्रभावशाली वर्ग निजी अस्पताल में सरकारी पैसे से इलाज करा लेता है और जब प्रवासी मजदूर गैर-सरकारी परिवहन से घर वापस लौटता है क्योंकि उसके पास विवशतावश कोई चारा ही नहीं था तो उसे रु. 1000 नकद और राशन के राहत पैकैट के सरकारी लाभ से वंचित कर दिया जाता है।
एक तरफ कोरोना वायरस का संक्रमण बढ़ता जा रहा है और दूसरी तरफ सरकार ने तालाबंदी खोलने का निर्णय ले लिया है। सवाल यह है कि फिर तालाबंदी का औचित्य ही क्या था? महामारी नियंत्रण में हुई लापरवाही और त्रुटियों के लिए उच्च-पदों पर आसीन लोगों, प्रधानमंत्री और गृह मंत्री समेत, को जिम्मेदार ठहराना आवश्यक है जिनके कारण न केवल महामारी नियंत्रण असफल रही बल्कि इतनी बड़ी संख्या में जनता को बर्बर अमानवीयता एवं त्रासदी झेलनी पड़ी।
लेखकः सुरभि अग्रवाल, शोभा शुक्ल, बाॅबी रमाकांत व संदीप पाण्डेय
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