रामस्वरूप मंत्री
आज भारतीय लोकतंत्र का जिस्म तो बुलंद है, पर इसकी रूह रुग्ण हो चली है। ऐसे में जोड़, जुगत, जुगाड़ या तिकड़म से सियासत को साधने वाले दौर में मधु लिमए की बरबस याद आती है। राजनीति के चरमोत्कर्ष पर हमें सन्नाटे में से ध्वनि, शोर में से संगीत और अंधकार में से प्रकाश-किरण ढूँढ लेने की प्रवीणता हासिल करने का कौशल मधु लिमये में दिखता है। प्रखर समाजवादी, उत्कृष्ट वक्ता व शानदार लेखक मधु लिमये (1 मई 1922 – 8 जनवरी 1995) की आज 98वीं जयंती है।
मधु लिमए सचमुच विचार वेता भी थेेेेेेेे, और ब्रह्मास्त्र को आमने-सामने झेलने वाले योद्धा भी मुट्ठी भर बेचारी योद्धाओं मेंं अपने दुबलेे-पतले लेकिन तेजस्वी मधु लिमए सच्चे अगली पंक्ति के चिंतक योद्धधा थे ।कभी भी ना थकने वाले ,कोई भी समझौता न करने वाले , बड़े से बड़े झूठ के खिलाफ तन कर सच बोलने की अदम्य निष्ठा वाले ,संकटों के भंवर जाल में बेहद बेचैन लेकिन अंदर कहीं बेहद धीर गंभीर मधु लिमए का भारतीय राजनीति मैं कोई सानी नहीं ।
स्वाधीनता संग्राम में तक़रीबन 4 साल (40-45 के बीच), गोवा मुक्ति संग्राम में पुर्तगालियों के अधीन 19 महीने (1955 में 12 साल की सज़ा सुना दी गई), और आपातकाल के दौरान 19 महीने मीसा के तहत (जुलाई 75 – फरवरी 77) वे मध्यप्रदेश की कई जेलों में रहे। लिमये तीसरी, चौथी, पाँचवीं व छठी लोकसभा के सदस्य रहे, पर इंदिरा जी द्वारा अनैतिक तरीक़े से पाँचवीं लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाए जाने के विरोध में इन्होंने अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया था।
ख़बरपालिका की मानिंद आज विधायिका भी सूचना तथा मनोरंजन का साधन मात्र हो गयी है। यह व्यक्ति, समाज तथा अन्य संस्था के बीच बढ़ती संवादहीनता की खाई को पाटने में यह कोई भूमिका निभाने की बजाय गैरज़िम्मेदार लोगों के झुंड से घिरी हुई है। लिमये की कुशाग्र बहस को याद करते हुए संसद से यह सहज अपेक्षा बंधने लगती है कि यह सामूहिक संवाद के स्तर को ऊँचा करे, राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को तेज़ करे, यथास्थिति को तोड़े, मज़बूत लोगों का बयान होने की बजाय बेज़बानों की ज़बान बनी रहे एवं लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत करे।
संसदीय प्रणाली के नियमों के तहत जन आकांक्षाओं के अनुरूप मुद्दों को इतने सशक्त रूप से रखा या उठाया जा सकता है, वास्तव में देश को इसका ज्ञान मधु जी के संसद के कार्यों के द्वारा ही हो सका था। उन्होंने भी शायद विशेषाधिकार नियमों का उपयोग कर देश को चमत्कृत किया था। सोशलिस्ट पार्टी के उस समय संसद में बहुत कम सदस्य थे, इसके बावजूद उस दौरान मधु जी ने तत्कालीन सरकार को अनेक बार कटघरे में खड़ा किया और निरुत्तर किया । लोहिया जी के निधन के बाद मधु जी प्रथम पंक्ति के समाजवादी नेताओं में अग्रणी थे ।कहना चाहिए कि समाजवादी सिद्धांतों और कार्यक्रमों के वो ही मुख्य व्याख्याता थे। सिद्धांत, नीति ,कार्यक्रम ,रणनीति आदि के विषय में मधु जी का भाषण स्पष्ट और सटीक होता था । 1977 में गैर कांग्रेसी वाद को रणनीति के अंतर्गत केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनवाने की मुहिम में मधु जी की भूमिका अग्रणी रही थी, किंतु 1977 में बनी गैर कांग्रेसी सरकार में उन्होंने मंत्रिपरिषद में शामिल होना स्वीकार नहीं किया । सत्ता से अलग रहकर संगठन में अधिक महत्वपूर्ण और ज्यादा लोकोपयोगी कार्यों का वर्णन उनको अधिक श्रेयस्कर लगता था । साथ ही यह उनकी पदों से दूर सादगी के जीवन के गति का घोतक भी था ।
लिमये सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1949-52), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1953 के इलाहाबाद सम्मेलन में निर्वाचित), सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष (58-59), संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष (67-68), चौथी लोकसभा में सोशलिस्ट ग्रुप के नेता (67), जनता पार्टी के महासचिव (1 मई 77-79), जनता पार्टी (एस) एवं लोकदल के महासचिव (79-82) रहे। लोकदल (के) के गठन के बाद सक्रिय राजनीति को अलविदा कहा।
दो बार बंबई से चुनाव हारने के बाद लोगों के आग्रह पर वे 64 के उपचुनाव में मुंगेर से लड़े व अपने मज़दूर नेता की सच्ची छवि के बल पर जीते। दोबारा 67 के आमचुनाव में प्रचार के दौरान तौफीक दियारा में उन्हें पीट-पीट कर बुरी तरह से घायल कर दिया गया, वो सदर अस्पताल में भर्ती हुए जहां भेंट करने वालों का तांता लगा हुआ था। सहानुभूति की लहर व अपने व्यक्तित्व के बूते वे फिर जीते। पर, तीसरी दफे वे कॉलेज में डिमोंस्ट्रेटर रहे कांग्रेस प्रत्याशी डी पी यादव से त्रिकोणीय मुक़ाबले में हार गये।
यह भी चकित करने वाला ही है कि तमाम प्रमुख नाम मोरारजी की कैबिनेट में थे, पर मधु लिमये का नाम नदारद था। मोरारजी चाहते थे कि आला दर्जे के तीनों बहसबाज जार्ज, मधु व राज नारायण कैबिनेट में शामिल हों। वो अपने वित्त मंत्री के कार्यकाल में लिमये के सवालों से छलनी होने का दर्द भोग चुके थे। पर, लिमये ने रायपुर से सांसद और मध्य प्रदेश के वरिष्ठ समाजवादी नेता पुरुषोत्तम कौशिक को मंत्री बनवाया। गांधी शांति प्रतिष्ठान में जब जेपी ने लिमये को कैबिनेट में शामिल होने को कहा, तो मधु जी ने मानीखेज़ ढंग से कहा, “समाजवादी कांग्रेस से बाहर निकले, कारक तत्त्व तो वही हैं”।
जनसंघ से आए लोगों की दोहरी सदस्यता (जो आरएसएस के भी सदस्य थे) का विरोध कर मोरारजी की सरकार गिराने व चरण सिंह की सरकार बनवाने वाले प्रमुख सूत्रधारों में से एक थे। संसद में जिस मंत्री को नज़र उठा कर देख लेते थे, वो सहम उठता था।
जब मधु लिमये बिहार के बांका से चुनाव लड़ रहे थे, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री व कांग्रेसी नेता दारोगा राय ने क्षेत्रवाद का घिनौना स्वरूप पेश करते हुए विरोध करना शुरू किया, वे अपनी सभाओं में बोलते थे – “मधु लिमैया, बम्बइया”। इस पर लिमये जी के मित्र जार्ज साहब ने धारदार भाषण दिया था, और चुटकी ली थी, “ग़नीमत है कि दारोगा जी चम्पारण आंदोलन के वक़्त परिदृश्य में नहीं थे, नहीं तो ये गांधी को तो बिहार की सीमा में घुसने ही नहीं देते। अच्छा हुआ कि श्रीमान त्रेता युग में पैदा नहीं हुए, नहीं तो ये अयोध्या के राम की शादी जनकपुर (नेपाल) की सीता से कभी होने ही नहीं देते। मुझे तो कभी-कभी चिंता होती है कि दारोगा जी का यही रवैया रहा तो लोग दूसरे गांव जाकर विवाह ही नहीं कर पाएंगे, और आधे युवक-युवती कंवारे रह जाएंगे। यह क्षेत्रवाद का ज़हर हमें रसातल में पहुंचा देगा।” बस, मधु लिमये के पक्ष में ग़ज़ब के जनसमर्थन का माहौल बना, और उन्होंने दो बार इस संसदीय क्षेत्र की नुमाइंदगी की।
आज उसी मर्यादा, सलीक़े व सदाशयी लोकव्यवहार का संसदीय राजनीति में सर्वथा अभाव दिखता है। हम अगर विचार-विनिमय, बहस व विमर्श की चिरस्थापित स्वस्थ परंपरा को फिर से ज़िंदा कर पाए, तो जम्हूरियत की नासाज रूह की थोड़ी तीमारदारी हो जाएगी और यही होगी लिमये जी के प्रति सच्ची भावांजलि।
( लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार एवं सोशलिस्ट पार्टी मध्य प्रदेश के अध्यक्ष है)