प्रेम सिंह
पिछले दिनों ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित एक खबर पर नज़र गई थी. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का दावा छपा था कि उन्होंने राजनीति का आख्यान (नैरेटिव) बदल दिया है. पिछली सदी के अंतिम दशकों में जब इतिहास से लेकर विचारधारा तक के अंत की घोषणा हुई थी तो उसका अर्थ था कि नवउदारवाद के रूप में एक आत्यंतिक (अल्टीमेट) विचारधारा/व्यवस्था हासिल कर ली गई है. लिहाज़ा, सुनिया में अब अन्य किसी विचारधारा की जरूरत ख़त्म हो गई है. इस आत्यंतिक विचारधारा को कई नामों से पुकारा जाता है. मसलन उच्च-पूंजीवाद, कारपोरेट पूंजीवाद, बाजारवादी पूंजीवाद, उपभोक्तावादी पूंजीवाद आदि. एकमुश्त रूप में कहें तो नवसाम्राज्यवादी पूंजीवाद. इस विचारधारा के तहत निर्मित व्यवस्था में उठने वाली समस्याओं के निवारण के लिए गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) का एक विश्वव्यापी मजबूत तंत्र बनाया गया है. इस तंत्र को चलाने वाले लोगों को ही इस टिप्पणी में फोर्ड फाउंडेशन के बच्चे कहा गया है. फोर्ड फाउंडेशन के बच्चे कुछ भी दावा कर सकते हैं, क्योंकि यह उनकी अपनी व्यवस्था है. भारत को प्रवेशद्वार बना कर अब वे राजनीति भी करते हैं. मुक्त अर्थव्यवस्था की तरह उनकी राजनीति भी ‘मुक्त’ होती है. उसमें नवउदारवादी विचारधारा से इतर मौजूद अथवा संभावित किसी भी विचारधारा का घोषित निषेध होता है. भारत में फोर्ड फाउंडेशन के बच्चों की तादाद बढ़ रही है. पार्टियों को चुनाव जिताने का ठेका लेने वाले भी अब सक्रिय राजनीति में आने लगे हैं.
नवउदारवादी अथवा कारपोरेट राजनीति के तहत राजनीति की भाषा एक तरफ स्तरहीन हुई है, और दूसरी तरफ राजनीतिक शब्दावली (पोलिटिकल टर्मिनोलॉजी) अर्थ-भ्रष्ट होती गई है. आइए देखें आम आदमी पार्टी (आप) ने किस अर्थ में राजनीति का आख्यान बदल दिया है? नवउदारवादी राजनीति का आख्यान ‘नया’ होगा ही. यह आग्रह बेमानी है कि फोर्ड फाउंडेशन के बच्चे जो कर रहे हैं, वह नहीं करके कुछ अलग करें. केवल इतना कहना है कि वे जो करते हैं उसे उसी रूप में कहें. लेकिन वे और उनके पैरोकार, जो ज्यादातर प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष खेमे से आते हैं, भी सच्चाई नहीं बताते. बल्कि उन्होंने उसके लिए उत्तर-विचारधारा (पोस्ट आइडियोलॉजी) जैसा एक सजावटी पद (टर्म) गढ़ लिया है.
अर्थ-भ्रष्ट होती जा रही राजनीतिक शब्दावली के संदर्भ में केवल एक पद को लेकर थोड़ी चर्चा करते हैं, क्रांति. फोर्ड फाउंडेशन के बच्चों के अनुसार दिल्ली में ‘क्रांति’ के छह साल हो चुके हैं. सरकारी कम्युनिस्टों की भारत में तीन राजनीतिक पार्टियां हैं. वे तीनों ‘केजरीवाल-क्रांति’ की समर्थक हैं. दुनिया और भारत में समाजवादी क्रांति का विचार कम्युनिस्टों और कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ जोड़ कर देखा जाता है. भारत के लोकतांत्रिक समाजवाद के प्रणेताओं को अथवा यूरोप के सोशल डेमोक्रेट्स को सिद्धांत और रणनीति के स्तर पर सच्ची क्रांति के स्तर तक पहुंचा हुआ नहीं माना जाता. कम्युनिस्टों का आप को ‘सतत समर्थन बताता है कि वे केजरीवाल-क्रांति’ को भले ही परिपूर्ण समाजवादी क्रांति नहीं मानते हों, उस दिशा में होने वाला एक प्रयास या प्रयोग अवश्य मानते हैं. प्रकाश करात केजरीवाल को अन्ना आंदोलन के दौर में ही लेनिन बता चुके हैं, जिसका उल्लेख मैंने उस आंदोलन की समीक्षा करते हुए किया है. मैंने यह भी स्पष्ट किया है कि केजरीवाल अथवा आप के लिए संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता कोई मूल्य नहीं है. यहां उस सब के विस्तार में नहीं जाया जा सकता. आप की कार्य-शैली के भ्रमित करने वाले और भ्रष्ट तरीकों पर भी यहां कुछ नहीं कहना है. वह सब जनता का धन झोंक कर अरबों रुपयों की विज्ञापनबाज़ी करने और पहले राज्यसभा तथा अब विधानसभा चुनावों में टिकटों की बंदरबांट और लेन-देन से जग-जाहिर है.
कम्युनिस्ट नवउपनिवेशवादी पूंजीवाद के दौर की नवउदारवादी ‘क्रांति’ का समर्थन क्यों करते हैं? इसके कारण उपनिवेशवादी पूंजीवाद के चरित्र और भूमिका के बारे में कम्युनिस्टों की समझ में तलाशे जा सकते हैं. लेकिन यहां वैसी गंभीर विवेचना का अवसर नहीं है. यहां केवल इसके एक व्यावहारिक कारण पर विचार किया गया है. सरकारी कम्युनिस्टों को पिछले साठ-पैंसठ सालों में सरकारी पद-पुरस्कारों की बुरी लत लग चुकी है. यह सर्वविदित है कि कांग्रेस की एक कांख में आरएसएस और दूसरी कांख में सरकारी कम्युनिस्ट पलते रहे हैं. आरएसएस उस स्पेस का फायदा उठा कर लगातार अपने अजेंडे पर काम करता रहा, कम्युनिस्ट सरकारी संस्थाओं और पद-पुरस्कारों पर कब्जे को ही क्रांति मान कर बैठ गए. जब तक कांग्रेस उन्हें यह अवसर दे रही थी वह ठीक थी, अब केजरीवाल देता है तो वे ‘केजरीवाल-क्रांति’ के साथ हैं. ज़ाहिर है, यह केवल आरएसएस/भाजपा के विरोध का मामला नहीं है. कम से कम दिल्ली में, जहां आप का गठन और अचानक उत्थान हुआ है, कांग्रेस दूसरी बड़ी पार्टी है और प्रगतिशील/धर्मनिरपेक्षतावादियों के आड़े वक्त में साथ छोड़ने के बावजूद लोकसभा चुनाव 2019 में वह दूसरे नंबर पर रही है. लेकिन कम्युनिस्ट पद-पुरस्कारों को लेकर ज़रा भी जोखिम नहीं उठाना चाहते. ‘दिल्ली में तो केजरीवाल’ का जो हल्ला मचाया गया है, उसमें कम्युनिस्टों की बड़ी भूमिका है. भले ही इस हल्ले में मोदी-भक्तों की भी अच्छी-खासी जमात शामिल हो!
कुछ भले समाजवादी केजरीवाल को समाजवादी बना लेने का तर्क लेकर उसके नेतृत्व में गए थे. उन्हें अभद्रतापूर्वक बाहर किया गया तो कम्युनिस्टों ने ख़ुशी मनाई कि आधे-अधूरे दिल्ली राज्य में पद-पुरस्कारों को दूसरों के साथ साझा नहीं करना पड़ेगा. समाजवादियों ने आम आदमी पार्टी की विचारधारा(हीनता) पर सवाल नहीं उठाया था; पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के सवाल पर बखेड़ा हुआ था. देश की राजनीति में नवउदारवाद की तानाशाही चल रही है. समाजवादी शायद यह नहीं समझ पाए कि इस तानाशाही के तहत राजनीति करने वाली पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र चल ही नहीं सकता. प्रसंगत: बता दें कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का रिकॉर्ड पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के मामले में सबसे अच्छा रहा है. लेकिन आज वही पार्टी व्यक्ति-तानाशाही का सबसे बड़ा नमूना बनी हुई है. वह इस वक्त देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है, लेकिन एक भी नेता पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के पक्ष में आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. यह आरएसएस के हिटलर-प्रेरित फासीवाद का नहीं, कारपोरेट पूंजीवाद की अंधभक्ति का कमाल है. भारत में नई आर्थिक नीतियों के जनक मनमोहन सिंह नामचीन अर्थशास्त्री हैं. वे शास्त्रीय पद्धति से नई आर्थिक नीतियों नीतियों का कार्यान्वयन करते थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्लाइंड खेलते हैं. जिस तरह मोदी को अंधभक्त अच्छे लगते हैं, कारपोरेट राजनीति के दौर में उसी तरह भारत और दुनिया के कारपोरेट घरानों को भी अंधभक्त नेता/बुद्धिजीवी चाहिएं. पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के खात्मे की यह एक अकेली परिघटना भविष्य में भाजपा के पराभव का प्रमुख कारण बन सकती है. बहरहाल, कम्युनिस्ट दिल्ली में किसी भी कीमत पर आप की सरकार चाहते हैं. धर्मनिरपेक्षता के लिए नहीं, पद-पुरस्कारों पर कब्जे और सत्ता में थोड़ी-बहुत हिस्सेदारी के लिए.
इस संदर्भ में चार प्रसंगों का संक्षेप में उल्लेख करना चाहूंगा : (1) मेरे शिक्षक रहे डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी से हाल में बात हो रही थी. उन्हें दिल्ली हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान मिला है. उन्होंने कहा कि ‘भैय्या कुछ भी कहो, केजरीवाल ने पानी-बिजली मुफ्त कर दिया’. मैंने मन ही मन मुस्करा कर सोचा कि ‘धन और धरती बंट के रहेंगे’ के नारे से शुरू हुई समाजवादी क्रांति मुफ्त पानी-बिजली हड़प लेने तक सिमट चुकी है! (2) मेरे दो शिक्षक साथी कामरेड तृप्ता वाही और विजय सिंह स्तालिनवादी हैं. उनकी बेटी लोकसभा चुनाव में पूर्वी दिल्ली से आप की उम्मीदवार थी. तृप्ता जी उसके लिए समर्थन हासिल करने हमारी पार्टी की एक मीटिंग में पहुंच गईं जो जस्टिस राजेंद्र सच्चर की पहली पुण्यतिथि पर आयोजित की गई थी. मुझे उनकी ‘हिम्मत’ पर काफी आश्चर्य हुआ. (3) साथी अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने फरवरी 2014 में कई मुद्दों को लेकर दिल्ली में 10 दिन का अनशन किया था. कांग्रेस की अपमानजनक पराजय के बाद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन चुके थे. मैं लगभग हर दिन अनशन-स्थल पर जाता था. अनशन के अंतिम दिनों में अपने भाषण में मैंने कामरेड नरेंद्र द्वारा सुझाए गए नारे ‘कारपोरेट के तीन दलाल, मोदी राहुल केजरीवाल’ का उल्लेख किया. कामरेड नरेंद्र वहां मौजूद थे. अखिलेंद्र जी ने कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद उठ कर माइक पर घोषणा की कि वे इस नारे से सहमत नहीं है. वे केजरीवाल को कारपोरेट राजनीति का हिस्सा नहीं मानते थे.
(4) भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की समानांतर समीक्षा करने वाले मेरे लेखों की पुस्तक ‘भ्रष्टाचार विरोध : विभ्रम और यथार्थ” पर दिल्ली में 29 जनवरी 2015 को एक परिचर्चा का आयोजन हुआ था. केजरीवाल कांग्रेस के समर्थन से दिसंबर 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे. हालांकि आप के एक महत्वपूर्ण नेता प्रशांत भूषण ने उस समय कहा था कि आप को कांग्रेस नहीं, भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनानी चाहिए. किरण बेदी का भी यही मत था. उस समय प्रशांत भूषण ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) को एक भ्रष्ट पार्टी बताया था. समाजवादी जन परिषद (सजप) के एक-दो उम्मीदवारों को आप के समर्थन देने की पेशकश पर उन्होंने कहा था कि पार्टी में शामिल होकर ही ‘क्रांति’ का लाभ लिया जा सकता है. लेकिन केजरीवाल और उनके पैरोकार काफी तेजी से दौड़ रहे थे. केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर बनारस से चुनाव लड़ा था, ताकि मोदी की जीत सुनिश्चित हो सके. दिल्ली में करीब एक साल के अंतराल के बाद फरवरी 2015 में फिर विधानसभा चुनाव होने थे. हालांकि ‘देश में मोदी और दिल्ली में केजरीवाल’ का सत्तासीन होना तय हो चुका था, लेकिन परिचर्चा में शामिल दो साथियों संदीप पांडे और अपूर्वानंद को पूरी तसल्ली नहीं थी. उन्होंने पुस्तक की विषय-वस्तु को दरकिनार कर कार्यक्रम को केजरीवाल और आप को जिताने के आह्वान का मंच बना दिया.
ये प्रसंग व्यक्तिगत आलोचना के लिए नहीं, प्रवृत्ति-विशेष का उदघाटन करने के लिए दिए गए हैं. छल, घृणा, दुश्मनी, हेकड़ी, पाखंड, भ्रम, और झूठ का एकतरफा राजनीतिक कारोबार ज्यादा दिन नहीं चल सकता. उसे लंबी आयु तभी मिलती है, जब दूसरे पक्ष भी उसमें शामिल होते हैं. नवउदारवादी ‘क्रांति’ आज की भारतीय राजनीति का समवेत आख्यान है. अलबत्ता छल, घृणा, दुश्मनी, हेकड़ी, पाखंड, भ्रम, झूठ आदि सबके अपने-अपने हैं. इस सब को प्रतिक्रांति कहने वालों के लिए राजनीतिक विमर्श में जगह नहीं है.
प्रेम सिंह सोशलिस्ट पार्टी के पूर्व अध्यक्ष हैं।
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