गत 15 जून के दिन लदाख के गलवान घाटी में गस्त लगानेवाले बीस भारतीय फौजीयोंको चिनी फौजीयों ने मार गिराया. इस खबर से देश भर में गुस्से की लहर तेज हो उठी. जगह-जगह चिनी चिजों की होली की गयी. भारतीय उदयोगपतीयों ने एलान किया कि वे चीन का कच्चा माल नहीं खरीदेंगे. भारत सरकार ने कहाॅं की उन्होंने चीन सरकार को अपना रोश जताया.
विषेश ध्यान देने लायक यह बात है कि, 6 जून को ही भारतीय सेना अध्यक्ष ने कश्मीर से लौटते ही कहा कि चिनी अफसरों से बात हो गयी है. और लदाख सीमा पर वे शांति बनाये रखेगे. लेकिन दस दिन में ही उन्होंने भारत के 20 जवानों की हत्या की. बोलना एक और करना उसके उलटे – यह चीन के रवैये का अनुभव बार-बार आता रहा है.
उस विशय पर विपक्षी नेताओं से बात करते समय प्रधानमंत्री मोदीजी ने कहा था कि ‘भारत की किसी पोस्ट पर किसी का कबजा नहीं है, न कोई भारत में घुस आया है और न कोई घुसा हुआ है’ उस पर काफी तिखी प्रतिक्रियाएं आयी. अगर कोई हमारी सीमा में घुसकर नहीं आया था तो क्या भारत के जवान दुसरे की जमीन पर गये थे और मारे गये? बाद में यह खुलासा हुआ कि लेह से दौलत बेग ओल्डी (डी.बी.ओ.) इस हवाई अड्डे तक 324 कि.मी. की पक्की सड़क भारत बना रहा है. उसपर गलवान घाटी में भारत के जवान गस्त लगा रहे थे. तब चीनी फौजीयों के साथ उनकी झड़प हुई और 20 अपने जवान मारे गये. चीन के भी कुछ मारे गये होंगे.
इस तरह की हरकतें चीन लगातार करता आया है. इस विवाद की पृष्ठभूमि हमें ठीक से समझ लेनी चाहिए. 15 अगस्त 1947 को आजाद होने पर भारत सरकार ने अपनी सीमा का नक्षा छपाकर दुनिया के सामने रखा तब उसपर चीन सहित किसी ने कोई हरकत नहीं उठायी थी. चीन में राष्ट्रवादी चाॅग कैशेख को कम्युनिस्ट पार्टी की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पी.एल.ए.) ने पराजित करके बिजिंग में प्रजासत्ता की स्थापना की. चाॅग तैवान पहुँच गया जहाॅं से वह अपनी सरकार चलाता रहा. दुसरे विश्वयुद्ध में इंग्लंड-फ्रान्स तथा अमेरिका (और जर्मनी ने रूस पर हमला 1941 में किया तब से) रूस ये दोस्त राष्ट्र सहयोग कर रहे थे. विश्वयुद्ध समाप्ती के समय दुनिया में शांति बनाये रखने हेतू संयुक्त राष्ट्रसंघ (युनो) की स्थापना की गयी. उसकी सुरक्षा समिती में 5 देशों को व्हेटो अधिकार दिया गया. इंग्लड-फ्रान्स-अमेरिका-रूस के साथ चीन को भी वह अधिकार मिला. लेकिन उस पर बिजिंग का नहीं तैवान का अधिकार है एैसा पष्चिमी देश 1959 तक मानते रहे.
उसी समय अमेरिका बनाम रूस शीतयुद्ध शुरू हो गया था. चीन में कम्युनिस्ट सरकार बन जाने पर वह रूस के खेमें में गया. लेकिन चीन का प्रतिनिधित्व तैवान ही करता है ऐसा अमेरिका बोलता रहा. यह वास्तवता से परे है और चीनी जनता का अधिकार नकारा जाता है. ऐसा कई लोग बोलते रहे. भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अगुवाई करके पश्चिमी देशों को चीन का प्रतिनिधि बिजिंग को माना जाय ऐसा समझाने की कोशिश की. भारत और चीन के सांस्कृतिक, व्यापारी तथा अन्य संबंध सदियों से मित्रतापूर्ण रहे हैं. 1935 में जब जपान ने चीन पर हमला किया था, तब चिनी जखमी फौजियों पर इलाज करने के लिये भारतीय काॅंग्रेस ने डाॅ. दारकानाथ कोटणीस की अध्यक्षता में डाॅक्टरों की टीम भेजी थी. ये दो बडे एशियाई देश हाथ में हाथ मिलाकर चलेंगे तो दुनिया को सहायता ही मिलेगी ऐसा नेहरू जी का मानना था. उनके निमंत्रण पर चिनी प्रधानमंत्री चैएनलाय 1956 में भारत आये तब दिल्ली में जनता ने ‘हिंदी चिनी भाई भाई’ के नारे लगाये थे. वह सिलसिला 1959 तक चलता रहा.
उस दरमियान दो घटनाएं हुयी थीं. एक तो बौध्दबहुल तिब्बत पर धर्मगुरू दलाई लामा की राजनीतिक सत्ता चल रही थी. वह तरीका सामंतवादी है और कम्युनिस्ट पार्टी वह बरदाश्त नहीं कर सकती ऐसा कहकर चिनी फौज तिब्बत पर हमला कर गयी. तब अपनी जान बजाने के लिए दलाई लामा ने भारत की शरण ली. हिमाचल प्रदेश का धर्मशाला शहर दलाई लामा का स्थान तथा तिब्बत की सरकार है. इस बात से चिनी बहुत खफा हैं. भारत दलाई लामा को सुरक्षा न दे ऐसी उनकी मांग है. लेकिन जनतंत्रवादी भारत वह कबूल नहीं करता. दुसरा लदाख के अक्साई चीन इलाके पर 1947 पाकिस्तान का कब्जा है. उससे चीन ने दोस्ती करके वहाॅं 11,000 चै.कि.मी. प्रदेष पर कब्जा करके एक पक्की सड़क बना ली. 1959 में भारतीय जवान गस्त लगाने वहा गये थे तब चिनी फौजीयों ने उनको मार गिराकर उनके शव भारतीय फौज को सौपे. उस समय देशभर में गुस्से की लहर दौड़ी थी.
भारत ने वह बात उठायी तब चीन ने कहा भारत चीन सीमा निश्चित नहीं है और हम जो हमारा प्रदेश मानते हैं वहां हम कभी भी जा सकते हैं. उधर पूरब में अरूणाचल में भी चीनी फौज ने अपने तंबू गाढ़ दिये थे. वह भारत का इलाखा है और चीन ऐसा आक्रमण क्यों करता है ऐसा पुछे जाने पर चीन ने कहा कि, उस इलाके में 1914 में जो मॅकमोहन रेखा सीमा के रूप में मानी गयी थी, वह उस समय के अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों ने कबूल की थी, आज वह हमें कबूल नहीं है. इस तरह सीमा विवाद उजागर हुआ. अरूणाचल से चिनी फौजीयों को हटा देने का आदेश नेहरूजी ने 1962 में दिया लेकिन उस समय अपनी रक्षा व्यवस्था उधर बहुत कमज़ोर होने के कारण चिनी फौज आगे आती रही और भारत को पीछे पीछे हटना पडा. उससे पूरे देश को बड़ा सदमा पहुचा था. चंद दिनों में चीन ने इकतरफा शस्त्रसंधि का ऐलान किया और अपनी फौज पीछे बुला ली.
अगर 1914 से जो भारत-चीन सीमा मानी गई वह आज का चीन कबूल नहीं करता है तो सीमा निर्धारण का काम जल्द ही किया जाय. ऐसा भारत ने कहा और अपनी सीमा दर्शनेवाले 11 बड़े बड़े किताब श्वेतपत्रिका के रूप में प्रकाशित किये. उनके आधार पर चीन से वार्तालाप होता रहा लेकिन समझौता नहीं हुआ. याने चीन हमेशा टालता गया.
सीमाविवाद के कारण दो देशों के दरमियान व्यापार तथा अन्य व्यवहार रोक देना उचित नहीं ऐसा मानकर भारत ने चीन के साथ राजनीतिक संबंध बनाये रखे. व्यापार भी बढ़ता रहा. सीमाविवाद जल्दी हल हो जाय ऐसा भारत ने बार-बार कहा लेकिन चीन टालता रहा. 61 साल से यह सिलसिला चल रहा है. याद होगा कि, कई साल पहले चीन ने अरूणाचल तथा असम के कुछ इलाकों में आवाजाही की थी. उसे भारत ने रोका तो चीन ने कहा- सीमा निश्चित नहीं है. करीब दो साल पहले भूटान सरकार ढोकलाम सड़क बना रही थी. चीनी फौज ने वह काम रोका. भारत की फौज वहां गई. ‘चीन अपनी फौज वापिस ले’ ऐसा कहा. लेकिन 6 दिन तक मामला गरमाता रहा. फिर चीन ने अपनी हरकत छोड़ दी. अभी गलवान घाटी में भी उसने वैसा ही किया और हर बार यही रटता रहता है कि, सीमा निश्चित नहीं है.
अतः 61 साल से चला आया यह विवाद मिटाने के लिए हमें पक्का फैसला कर लेना होगा. कुछ लोग कहते है कि, चीन से युध्द करो. भारत के सैनाधिकारी कहते है कि हम तैयार हैं. चीन पर हवाई कारवाई कारगर ढंग से करने के लिए रूस से कई लड़ाकू विमान खरिदे गये हैं. डी.बी.ओ. से हम पाकिस्तान-चीन काराकोरम सड़क पर भी नज़र रख सकते हैं. यह सब ठीक है अपनी रक्षा व्यवस्था सलामत रखनी चाहिए लेकिन सीमाविवाद हल करने के लिए युध्द करना उचित होगा ऐसा नहीं मानना चाहिए. युध्द यह विवाद हल करने का तरिका नहीं होता. उसके लिए बातचीत ही करनी होती है. युध्द बहुत विनाशकारी होते हैं. चीन और भारत दोनों अण्वस्त्रधारी हैं. युध्द में उस अस्त्र का प्रयोग करना बड़ा खतरनाक है. अणु बम पहले किसने फेका इसका कोई माने नहीं रहता उससे जो विध्वंस होगा वह अपने दोनों और साथ-साथ कई पड़ोसी देशों को भी बहुत दहलानेवाला होगा. इसलिए युध्द के विकल्प का हम विचार न करें.
चीन पर दबाव डालने के लिए अन्य भी तरीके हैं. एक तो हम सही मायने में आर्थिक दृश्टी से आत्मनिर्भर बनने की भरसक कोशिश करें. चिनी पूंजी तथा सामान का बहिश्कार करें. साथ-साथ अमेरिका या जपान या रूस के शरण भी न जाएँ. सही मायने में हम स्वाश्रयी बनने का प्रयास करें. पश्चिमी पूंजीवादी विकास का माॅडेल हमें नकारना चाहिए. कई-मंजिली पुल, आलिशान हवाई अड्डे, बुलेट ट्रेन और बड़े बड़े कारखाने यह हमारा विकास का नक्षा नहीं होना चाहिए.
जनसाधारण की प्राथमिक ज़रूरतें अच्छे ढंग से पुरी हो सकें ऐसी चिजों का निर्माण करना तथा हर बालिग स्त्री-पुरूश को अच्छा रेाजगार उपलब्ध कराना और पर्यावरण की भी रक्षा करना यह हमारा उद्देश्य होना चाहिए. हमारे पास अच्छी उपजाउ जमीन, बड़ी बड़ी नदियां, अच्छी बरसात तथा बारोमास सूरज की रोशनी ये प्राकृतिक साधन पर्याप्त मात्रा में हैं. कम पूंजी निवेश करके ज़्यादा रोजगार देनेवाले खेती, जंगल विकास पशुपालन तथा छोटे उद्योग विकसित करना यह हमारा रास्ता होना चाहिए. आर्थिक दृश्टी से हम सक्षम होने पर चीन को कह सकेंगे कि, आनेवाली 1 मई (श्रमिक दिन) 2021 तक भारत-चीन सीमा नक्षे पर कबूल की जाय नही तो हम चीन से आर्थिक तथा राजनीतिक संबंध नहीं रखेंगे. ऐसा अल्टीमेेंटम हमें देना चाहिए. हम भारत की जनता इस पर डटे रहेंगे तभी हमारी तरफ आँख उठाने की हिम्मत चीन नहीं करेगा. इस तरह का पत्र आप प्रधानमंत्रीजी को भेजे ऐसी प्रार्थना.
पन्नालाल सुराणा
मो. 9423734089