परीक्षा को पुनर्स्थिापित करने के बजाए षिक्षण सुनिष्चित करें
केन्द्रीय सरकार और उसकी वैचारिक प्रेरणास्रोत राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देष की षिक्षा व्यवस्था में कुछ मौलिक परिवर्तन करने की कोषिष कर रहे हैं। इनमें कक्षा दसवीं की बोर्ड परीक्षा को पुनः अनिवार्य करना तथा कक्षा आठ तक अनुत्तीर्ण न करने की नीति को वापस लेना भी षामिल हैं। पिछली केन्द्रीय षिक्षा सलाहकार बोर्ड की प्रगतिषील सोच की वजह से केन्द्रीय माध्यमिक षिक्षा बोर्ड में छात्रों को कक्षा दसवीं की बोर्ड परीक्षा न देने की छूट दे दी गई थी। हलांकि इस पर बहस होती रही। परन्तु कक्षा 8 तक परीक्षा न लेने के बारे में आम सहमति थी। इस देष में महात्मा गांधी, रविन्द्र नाथ टैगोर, जे. कृृश्णामूर्ति व अरविंद घोश के विचारों को लेकर जो षिक्षा के प्रयोग हुए हैं उसमें भी परीक्षा को षिक्षा की प्रकिया से अलग ही रखा गया है।
हाल ही में केन्द्रीय षिक्षा सलाहकार बोर्ड की बैठक में दिल्ली के षिक्षा मंत्री मनीश सिसोदिया ने, जिनकी पार्टी आम तौर पर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ रहती है, भी कक्षा 8 तक परीक्षा न लेने की नीति को वापस लेने की वकालत की। तर्क यह है कि बच्चों की पढ़ाई का स्तर बहुत गिर गया है और यदि बच्चों को परीक्षा के लिए पढ़ना पड़ेगा तो षिक्षा की गुणवत्ता सुधर जाएगी। मानव संसाधन मंत्री प्रकाष जावडेकर ने कहा है कि षिक्षा के अधिकार के अधिनियम, 2009, के खिलाफ जाकर, कानून में संषोधन कर, कक्षा 5 व 8 में पहले की तरह होने वाली परीक्षा की व्यवस्था पुनर्स्थिपित की जाएगी।
मनीश सिसोदिया ने कहा कि बिना पुस्तकें बदले, षिक्षकों को प्रषिक्षण दिए और बी.एड. का पाठ्क्रम बदले यह नीति लागू कर दी गई अतः कम से कम अभी तो इस नीति को वापस लिया जाना चाहिए। किंतु बच्चों की पढ़ाई न हो पाने के कारणों में ऊपर दिए गए में से एक भी नहीं है। षिक्षक षिक्षण की मौलिक न्यूनतम जिम्मेदारी पूरी नहीं कर रहे। इस देष में परीक्षा की प्रकिया षिक्षा की अवधारणा से इस कदर जुड़ी हुई है कि ज्यादातर लोग बिना परीक्षा के षिक्षा की कल्पना ही नहीं कर सकते। अतः परीक्षा न लेने की नीति लागू होने पर षिक्षकों ने पढ़ाने की प्रकिया को गम्भीरता से लेना बंद कर दिया। उन्हें लगा कि बच्चा अगली कक्षा में तो चला ही जाएगा तो पढ़ाने का कश्ट क्यों करें? षासन-प्रषासन द्वारा अन्य कामों में लगाकर भी उनको कक्षा कक्ष से दूर रखा जाता है।
परीक्षा को वापस लाने के बजाए यदि षिक्षक ठीक से पढ़ाने लगेंगे तो षिक्षा की गुणवत्ता में अपने-आप सुधार हो जाएगा। षिक्षकों और षिक्षा विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के लिए बच्चों को जिम्मेदार ठहराया जाए क्या यह उचित है?
फिर परीक्षाएं भी कितनी ईमानदारी से होती हैं? उत्तर प्रदेष व बिहार में कक्षा दस व बारह की बोर्ड परीक्षाएं बड़े पैमाने पर नकल कर उत्तीर्ण की जाती हैं। षिक्षकों, विद्यालय प्रबंधन व षिक्षा विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की मिलीभगत से घूस देकर परीक्षाएं उत्तीर्ण की जा सकती हैं। ज्यादा राषि देने पर परीक्षार्थी को ख्ुाद परीक्षा देने की भी जरूरत नहीं। अतः कक्षा 5 व 8 में परीक्षा को पुनर्स्थिापित करने से षिक्षा का स्तर सुधर जाएगा यह कोई जरूरी नहीं। बल्कि ऊपर की कक्षाओं की तरह नीचे भी भ्रश्टाचार की नई सम्भावनाएं पैदा हो जाएंगी।
परीक्षा की व्यवस्था को पुनर्स्थिापित करने का दूसरा नकारात्मक परिणाम होगा बच्चों के लिए एक कक्षा से दूसरी कक्षा में आगे बढ़ने में कठिनाई होने लगेगी। सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर पष्ठभूमि के बच्चों, जैसे दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, लड़कियों, के लिए जिनके माता-पिता बहुत षिक्षित नहीं हैं और घर में षिक्षा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाला माहौल नहीं, के किसी परीक्षा में असफल होने पर पढ़ाई छोड़ने का खतरा बढ़ जाएगा। कक्षा 8 तक परीक्षा न लेने की नीति अपनाई ही इसलिए गई थी कि भारत में करीब आधे बच्चे कक्षा 8 तक जाते जाते पढ़ाई छोड़ देते हैं।
यह देखते हुए कि भारत में इतनी बड़ी संख्या में बच्चे विद्यालय की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं और भारत की साक्षरता दर अन्य देषों की तुलना में, जिसमें छोटे छोटे प्रगतिषील देष भी षामिल हैं, काफी खराब है, एक बच्चों की मदद करने वाली षिक्षा व्यवस्था आवष्यक है न कि परीक्षा के नाम पर भय पैदा करने वाली।
हमें एक ऐसी षिक्षा व्यवस्था की जरूरत है जिसमें षिक्षक बच्चों के प्रति संवेदनषील हों व बच्चों की षिक्षा पूरी कराने में सहायक हों। जाहिर है कि जो बच्चे सीखने में ज्यादा समय लेंगे उन पर ज्यादा ध्यान देना होगा। सभी बच्चों को साथ में ले चलने की कोषिष करनी होगी न कि पीछे होने वालों को छोड़ देने की। बल्कि सामाजिक-आर्थिक दृश्टि से कमजोर पृश्ठभूमि वाले बच्चों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी करना पड़ेगा। भारत में षिक्षा के सार्वभौमिकीकरण के लिए एक बच्चों की दृश्टि से मददगार व्यवस्था के अलावा कोई अन्य तरीका हो ही नहीं सकता। इसके लिए जरूरी है कि षिक्षक एवं षिक्षा विभाग के अधिकारी अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाएं। जब तक वे इस काम को एक अभियान के रूप में नहीं लेते और प्रत्येक बच्चे को अपना बच्चा नहीं मानते तब तक यह काम नहीं हो सकता। बच्चों के साथ षिक्षक व्यक्तिगत रिष्ता बनाए बगैर षिक्षा दे ही नहीं सकते। यह सब करना तो परीक्षा लेने के कठिन काम है क्योंकि इसमें लोगों को लगना पड़ेगा और यह बात हमारे अंदर से आनी चाहिए। लेकिन एक बार षिक्षक और अधिकारी मन बना लेते हैं तो कोई इतनी कठिन बात भी नहीं। मुख्य बात मानसिकता बदलने की है।
अतः समाधान तो परीक्षा में न होकर कहीं और ही है। बल्कि परीक्षा का षिक्षा से कोई ताल्लुक ही नहीं है। परीक्षा तो मूल्यांकन के लिए होती है। लेकिन जब षिक्षा ही नहीं हो रही तो मूल्यांकन किस चीज का होगा? इसलिए षिक्षा पर जोर देने की जरूरत है। षिक्षा का मूल्यांकन बिना परीक्षा लिए किया जा सकता है। मूल्यांकन करने के लिए षिक्षक से बढ़िया कोई व्यक्ति हो ही नहीं सकता। बच्चे के बारे में उसकी राय ले लेना पर्याप्त है। बच्चे को क्यों परीक्षा की सजा दी जाए?
लेखकः संदीप पाण्डेय
उपाध्यक्ष, सोषलिस्ट पार्टी (इण्डिया)
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