(डा. प्रेम सिंह का यह लेख ‘समय संवाद’ स्तंभ के अंतर्गत मासिक पत्रिका ‘युवा संवाद’ के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित हुआ था। स्वतंत्रता दिवस पर हुए प्रधानमंत्री के भाषण और पर होने वाली चर्चा के संदर्भ में आपके पढ़ने के लिए इसे फिर जारी किया गया है।)
स्वतंत्रता दिवस के कर्तव्य
प्रेम सिंह
आत्मालोचन का दिन
पिछले स्वतंत्रता दिवस के ‘समय संवाद’ और उसके आगे-पीछे हमने जो लिखा] इस स्वतंत्रता दिवस पर उससे अलग कुछ कहने के लिए नहीं है। कहना एक ही बार ठीक रहता है। भले ही वह स्वतंत्रता जैसे मानव जीवन और मानव सभ्यता के संभवतः सर्वोपरि मूल्य के बारे में हो। दोहराव के भय से इस बार का ‘समय संवाद’ हम नहीं लिखना चाहते थे। फिर सोचा कि शासक वर्ग और उसका प्रस्तोता मीडिया दिन-रात दोहरावों की झड़ी लगाए रहते हैं तो हमें भी किंचित दोहराव के बावजूद अपनी बात कहनी चाहिए। आइए] भारी सुरक्षा घेरे में गांधी के आखिरी आदमी से बहुत दूर और ऊंचे आयोजित छियासठवें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश की आजादी के बारे में कुछ चर्चा और सवाल करें। इस आशा के साथ कि सड़सठवें साल में देश की आजादी पर आए संकट को समझा जाएगा और उसका मुकाबला हो पाएगा।
जिस आजादी पर हासिल होने के दिन से ही अधूरी होने का ठप्पा लगा हो] हर स्वतंत्रता दिवस पर यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि वह उत्तरोत्तर पूर्णता और मजबूती की ओर अग्रसर है। अगर किसी वर्ष कोई ऐसी घटना या फैसला सरकार] राजनीति अथवा नागरिक समाज के स्तर पर हो गया हो] जिससे आजादी का अवमूल्यन हुआ हो और वह खतरे में पड़ी हो] तो स्वतंत्रता दिवस के मौके पर यह सुनिश्चित किया जाए कि वह गलती स्वीकार करके उसे ठीक कर लिया गया गया है। स्वतंत्रता दिवस यह देखने का भी मौका होता है कि वैचारिक और नीतिगत मतभेदों के बावजूद आजादी को पूर्ण और मजबूत बनाने के दायित्व पर सभी राजनीतिक पार्टियां] संगठन और नागरिक समाज एकमत हैं। भारत जैसे विशाल और बहुलताधर्मी देश में अलग-अलग समूहों की अपने हितों की चिंता वाजिब है] लेकिन इस मौके पर हम यह देखें कि समग्रता में उससे देश की आजादी की काट न हो। यह सुनिश्चित करें कि बुद्धिजीवी खास तौर पर सावधान हैं] ताकि नई पीढ़ी आजादी का मूल्य भली-भांति समझ कर अपना कर्तव्य निर्धारित करती और निभाती चले। स्वतंत्रता दिवस और उसके आगे-पीछे आजादी के तराने गाने] तिरंगा लहराने और शहीदों के गुणगान का तभी कोई अर्थ है। स्वतंत्रता दिवस पर हम यह सुनिश्चित करें कि देश की आजादी को सच्चा प्यार करके ही उसके लिए कुर्बानी देने वालों का सच्चा सम्मान किया जा सकता है।
सवाल है कि क्या प्रत्येक आने वाले स्वतंत्रता दिवस पर देश की आजादी पूर्णता और मजबूती की तरफ बढ़ती है(गलतियां अगर होती हैं तो क्या उनसे सीख लेने की कोई नजीर सामने आती है( आजादी के प्रति सभी सरकारों] राजनीतिक पार्टियों और नागरिक समाज का साझा संकल्प है( अपने हितों की चिंता करने वाले समूह समग्रतः आजादी की रक्षा का ध्यान करके चलते हैं क्या देश के बुद्धिजीवी अपनी भूमिका में मुस्तैद हैं( क्या नई पीढ़ी आजादी के प्रति अपना कर्तव्य समझती है( क्या हम शहीदों का सच्चा सम्मान करते हैं?
बिना गहरी जांच-पड़ताल के पता चल जाता है कि ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं होने की चिंता भी ज्यादातर नेताओं से लेकर नागरिक समाज तक नहीं दिखाई देती। बल्कि कह सकते हैं कि पिछले 25 स्वतंत्रता दिवसों पर लाल किले से नवसाम्राज्यवादी गुलामी का परचम फहराया जाता रहा है। लाल किले के भाषण में बच्चों से लेकर नौजवानों तक आजादी को पूर्ण और मजबूत बनाने का संदेश नहीं दिया जाता। ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियां] नागरिक समाज और बुद्धिजीवी आजादी के इस अवमूल्यन में बेहिचक शामिल हैं।
15 अगस्त 1947 को मिली राजनीतिक आजादी को अधूरा माना गया था। कहा गया था कि अभी आर्थिक आजादी हासिल करना है। पिछले करीब तीन दशकों में आर्थिक गुलामी का तौक गले में डाल कर राजनीतिक आजादी को भी लगभग गंवा दिया गया है। हर साल शानोशौकत से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाने और देशभक्ति का भारी-भरकम प्रदर्शन करने के बावजूद] लंबे संघर्ष के बाद हासिल की गई आजादी नहीं] नवसाम्राज्यवादी गुलामी पूर्णता और मजबूती की ओर बढ़ती जाती है। नवसाम्राज्यवादी गुलामी का गहरा रंग देखना हो तो कोई भारत आए। यहां कारपारेट पूंजीवाद की गुलामी में पगे नेताओं] खिलाडि़यों] कलाकारों] बुद्धिजीवियों] सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों का उत्साह और उमंग देख कर लगता है मानो वे विज्ञापन की दुनिया के माॅडल हों! मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी मंडली ही नहीं] एपीजे अब्दुल कलाम और लालकृष्ण अडवाणी भारत के महाशक्ति बनने के गीत गाते नहीं थकते हैं। अधूरी आजादी का पूरा फायदा उठा कर भारत का शासक वर्ग कंपनियों के मुनाफे की वस्तु बन गया है।
इस उमंग भरे माहौल का दबदबा इतना ज्यादा है कि नवउदारवाद-विरोध की लघुधारा के कतिपय वरिष्ठ आंदोलनकारी और बुद्धिजीवी भी उसकी चपेट में आ जाते हैं। दोबारा पटरी पर आना उनके लिए कठिन हो जाता है। ऐसे में]नवउदारवादी नीतियों के चलते उच्छिष्ट का ढेर बना दी गई विशाल आबादी की दशा समझी सकती है। वह खटती और मरती भी है] और नकल भी करती है। इस तरह पूंजीवाद अपने शासक वर्ग के साथ-साथ अपनी (गुलाम) जनता भी तैयार करता चलता है।
इस बीच आरएसएस से लेकर गांधीवादी] समाजवादी] मार्क्सवादी आदि सभी राजनीतिक-वैचारिक समूह आजादी पर आने वाले संकट और उसे बचाने की चिंता जता चुके हैं। लेकिन नवसाम्राज्यवाद की ताकत कहिए या आजादी की सच्ची चेतना का अभाव या दोनों] उस चिंता का खोखलापन अथवा कमजोरी जगजाहिर होते देर नहीं लगती। आजादी बचाने की पुकार उठती है और बुलबुले की तरह फूट जाती है। ऐसा नहीं है कि आजादी को बचाने के सच्चे प्रयास नहीं हुए या अभी नहीं हो रहे हैं] लेकिन सच्चाई यही है कि इस मामले में शोर ज्यादा मचाया गया है। आजादी को बचाने के लिए ठोस विचार और रणनीति के तहत दीर्घावधि आंदोलन नहीं खड़ा हो पाया है। आज की हकीकत यह है कि आजादी बचाने की वास्तविक चिंता करने वाले लोग अब बहुत थोड़े और उपेक्षित हैं।
ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता दिवस पर सर्वाधिक गंभीरता और प्राथमिकता से देश के पराधीन होते जाने की परिघटना पर विचार होना चाहिए। उसके बगैर न केवल नवउदारीकरण के दौर में भिखारी बना दी गई जनता के लिए हमारी चिंता का कोई हासिल नहीं है( हमारे प्रगतिशील] लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष बौ़िद्धक कर्म का भी स्वतंत्र अर्थ नहीं रह जाता है। क्रांति के दावों की दयनीयता तो स्वयंसिद्ध है ही।
नवउदारवादी दौर में बने कारपोरेट इंडिया की सत्ता पर आरएसएस जब-जब धावा बोलता है] तब-तब सेकुलर खेमे के बुद्धिजीवी उसके ‘देशद्रोही’ चरित्र को उद्घाटित करने में लग जाते हैं। ऐसा करते वक्त वे अपने को देशभक्ति और आजादी का पक्का पैरोकार होने का प्रमाणपत्र देते ही हैं] सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह और कांग्रेस को भी वह थमा देते हैं। बार-बार दोहराई जाने वाली इस कवायद का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकलता। न सांप्रदायिकता कम होती है] न नवउदारवाद थोड़ा भी पीछे हटता है। बल्कि दोनों कट्टर होते और एक-दूसरे में समाते जाते हैं। उस सम्मिलित कट्टरता के प्रहार से समाजवाद] लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की जमीन धसकती चली जाती है। भारत के संविधान में निहित समाजवाद] लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और संकल्प की रक्षा ही आजादी की रक्षा है। हमारी राजनीति] अर्थव्यवस्था और सामाजिकता की यही कसौटी हो सकती है।
यह सही है कि आरएसएस पूंजीपतियों से सांठ-गांठ रखता है। उसका नया जमूरा नरेंद्र मोदी पूंजीपतियों के आगे नाच रहा है। लेकिन] कांग्रेस पूंजीपतियों की सबसे बड़ी करुणानिधान पार्टी है] इस सच्चाई को सेकुलर खेमा जोर देकर कभी नहीं कहता। वह आरएसएस के ‘रहस्मय चरित्र’ की गहराइयों में काफी नीचे तक धंसता है] लेकिन कांग्रेस के ‘खुला खेल पूंजीवादी’की तरफ से आंख फेरे रहता है। वह नेहरू-इंदिरा की कांग्रेस का भी सेवक बना रहा और अब सोनिया गांधी की कांग्रेस का सेवक है। नरेंद्र मोदी बुरा है] क्योंकि कारपोरेट घरानों को रिझाने में लगा है। सेकुलर खेमे की शिकायत वाजिब है कि मीडिया उसे पूंजीवाद का नया ब्रांड बना कर समाज के सामने परोस रहा है। लेकिन यही मीडिया नरेंद्र मोदी के पहले मनमोहन सिंह को कारपोरेट पूंजीवाद का पुरोधा बना कर जमा चुका है। सेकुलरवादियों समेत नागरिक समाज की स्वीकृति दिला चुका है। अटल बिहारी वाजपेयी अपना अलग से पूंजीवाद लेकर नहीं आए थे। उन्होंने अपने ‘स्वदेशी’ पैर मनमोहन सिंह के ‘अमेरिकी’जूते में ही डाले थे। नरेंद्र मोदी को भी मनमोहन सिंह लेकर आए हैं। उनका सत्ता का आपसी झगड़ा है। अमेरिका और कारपोरेट घराने जिस की तरफ रहेंगे वह जीत जाएगा।
ऐसे में सवाल पूछा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी से मनमोहन सिंह किस मायने में बेहतर हैं; सिवाय इसके कि नवउदारवाद को भारत में लाने और जमाने वालों में वे अव्वल नंबर पर हैं। उसी हैसियत के चलते वे तीसरी बार प्रधानमंत्री होने के दावेदार हैं। सांप्रदायिक ताकतों को ठिकाने लगाने की कुछ ताकत अभी भारतीय जनता में बची है। लेकिन नवसाम्राज्यवाद के सामने वह लाचार बना दी गई है। जनता की यह लाचारी आगे बढ़ती जानी है। इसकी सीधी जिम्मेदारी मनमोहन सिंह और उनके सिपहसालारों की है।
पिछले दो सालों से मनमोहन सिंह पर नागरिक समाज का काफी तेज गुस्सा देखने को मिला। यह गुस्सा तभी आना चाहिए था जब उन्होंने देश के संविधान को दरकिनार कर विश्व बैंक के आदेश पर नई आर्थिक नीतियां लागू की थीं और देश की आजादी को सीधे नवसाम्राज्यवादी शिकंजे में फंसा दिया था। वे राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, न आज हैं। वे ऐसा कर पाए और उस दम पर दो बार देश के प्रधानमंत्री बन गए, यह नागरिक समाज की सहमति के बिना संभव ही नहीं था। नागरिक समाज को अब भी जो गुस्सा आ रहा है, वह देश के स्वावलंबन और संप्रभुता को चट कर जाने वाली उन नीतियों के खिलाफ नहीं है। वह नवउदारवाद का साफ-सुथरा चेहरा और अपने लिए और ज्यादा फायदा चाहता है। ऐसे गुस्से का कोई परिणाम देश की आजादी के पक्ष में नहीं निकलना है। भाजपा के पक्ष में भले ही निकले, जिसका स्टार प्रचारक नागरिक समाज की समस्त लालसाओं को चुटकियों में पूरा करने का ढोल पीट रहा है।
कुमार प्रशांत ने ‘जनसत्ता’ के अपने एक लेख में मनमोहन सिंह को संजीदा इंसान बताया है। यह भी कहा है कि बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने हमेशा शालीनता का आचरण किया है, जिससे विदेशों में भारत का मान बढ़ा है। मनमोहन सिंह की यह प्रशंसा उन्होंने नरेंद्र मोदी से तुलना करते हुए की है, जिन्होंने एलान करके 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के लालकिले से दिए गए भाषण के मुकाबले अपना भाषण किया। स्वतंत्रता दिवस नेताओं के व्यक्तित्वों की तुलना करने का अवसर नहीं होता। नरेंद्र मोदी और आरएसएस खुद ही एक्सपोज हो गए कि उनकी नजर में स्वतंत्रता दिवस का सम्मान नहीं है। अडवाणी ने दबी जबान से मोदी के इस कृत्य की आलोचना भी की।
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर ‘जनसत्ता’ के पन्ने मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की तुलना में रंगने का औचित्य नहीं था। तुलना का तूमार बांधने के लिए खबरी चैनलों की भरमार है। उन्होंने वह काम बखूबी किया भी। हमने दोनों का भाषण नहीं सुना। न ही टीवी चैनलों पर होने वाली वे बहसें सुनी, जिनका जिक्र नाराजगी के साथ कुछ टिप्पणीकारों ने अगले दिन अखबारों में किया। चैनल यह नहीं कर सकते थे, अगर स्वतंत्रता दिवस की गरिमा, संवैधानिक दायित्व, लोकतांत्रिक मूल्य, संघीय ढांचा और देश की अखंडता का हवाला देने वाले ‘विषेषज्ञ’ वहां नहीं जाते। इधर विषेषज्ञ कुछ ज्यादा ही हो गए हैं और उनमें ज्यादातर ने अपने को ऐसे एंकरों के हाथ बेच दिया है, जो कूपमंडूक और नवउदारवाद व सांप्रदायकिता के निःसंकोच गुण गाने वाले हैं।
गंभीर समझे जाने वाले बुद्धिजीवियों को यह बताना चाहिए था कि प्रधानमंत्री के भाषण में स्वतंत्रता की पूर्णता और मजबूती के लिए क्या कहा गया है; उस लिहाजा से दोनों के भाषणों में कोई फर्क नहीं था। दोनों नवउदारवाद की प्रतिष्ठा को स्वाभाविक कर्म मान कर बोले। संविधान की कसौटी पर दोनों के भाषण अवैध थे। दोनों में अंतर यही है कि मनमोहन सिंह नवउदारवाद की ब्रांडेड मशीन हैं, जो सीधे विश्व बैंक से खिंच कर आई है और मोदी आरएसएस के कारखाने में ढल कर निकली ‘देसी’ मशीन है। दोनों में बाकी सब समान है। मोदी को मुसलमान ‘पिल्ले’ नजर आते हैं तो मनमोहन को किसान निठल्ले। वे हैरानी से पूछते हैं कि किसान खेती (यानी आत्महत्या) क्यों करते हैं! कोई और काम क्यों नहीं कर लेते; पहले से ही कई करोड़ नौजवानों और अधेड़ों की बेरोजगार सेना जमा होने के बावजूद एक मशीन ही ऐसा कह सकती है, जिसमें संदेश पहले से फीड किया गया हो!
मोदी की भर्त्सना का खास मतलब नहीं है। मोदी को लाने वालों में सबसे पहला नाम मनमोहन सिंह का है। आरएसएस बाद में आता है। मोदी जिस संगठन से आते हैं, उसने आजादी के संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया। मौका पड़ने पर अंग्रेजों का साथ दिया। वह पुराना किस्सा है। लेकिन मनमेाहन का नया कमाल देखने के लायक है। उन्होंने और सोनिया गांधी ने मिल कर आजादी के संघर्ष की पार्टी को नवसाम्राज्यवादी गुलामी की पार्टी में तब्दील कर दिया है। बेहतर होता कि स्वतंत्रता दिवस पर बुद्धिजीवी यह सच्चाई जनता को बताते।
हमने एक ‘समय संवाद’ में लिखा था, ‘‘मिश्रित अर्थव्यवस्था के करीब तीस सालों के दौर में जो साम्राज्यवादी बीज दब गया था उसने अस्सी के दशक में राजीव गांधी की छाया पाकर फूलना शुरू किया। नब्बे के दशक में उसने एक बार फिर से जड़ पकड़ ली और इक्कीसवीं सदी का जयघोष करते हुए उसकी कोपलें खिल उठीं। आज साम्राज्यवाद की संतानें ऐसा जता रही हैं मानो वे सदियों पुराना वटवृक्ष हैं। जैसे 1857 और 1947 हुआ ही नहीं था। अगले पचास साल भी नहीं लगेंगे जब साम्राज्यवाद की संतानें कहेंगी कि 1947 होना ही नहीं चाहिए था। अगर उसका 1857 की तरह दमन कर दिया जाता तो भारत को महाशक्ति बनने के लिए 2020 का इंतजार नहीं करना पड़ता। जी हां, मनमोहन सिंह उसी साम्राज्यवादी बीज से उत्पन्न हुई संतान हैं। साम्राज्यवाद के सांचे में जो भी समाए हुए हैं, वे मनमोहन सिंह के बच्चे हैं। उनमें छोटे बच्चे भी हैं और बड़े भी। (‘मिलिए हुकुम के गुलाम से’, 2009) नरेंद्र मोदी मनमोहन सिंह का ही छोटा बच्चा है, जो अब बड़ा बनने के लिए मचल उठा है।
हमने गुजरात कांड पर ‘गुजरात के सबक’, 2002) और अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक विचारधारा और शैkSली पर ‘जानिए योग्य प्रधानमंत्री को’, 2002) पुस्तिकाएं प्रकाशित की थीं। सेकुलर साथियों, जिनमें सोनिया के सेकुलर सिपाही भी शामिल थे, ने काफी उत्साह से उन पुस्तिकाओं का स्वागत और प्रचार किया था। पहुंच वाले साथियों ने उन्हें कांग्रेस के प्रचार प्रकोष्ठ और प्रवक्ताओं तक पहुंचाया था। 2004 में राजग की हार हुई और यूपीए की सरकार बनी। लेकिन 2009 के चुनाव के पहले प्रकाशित हमारी पुस्तिका ‘मिलिए हुकुम के गुलाम से’ के प्रकाशन पर उन सब ने चुप्पी साध ली। उसमें मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की, विशेष तौर पर भारत-अमेरिका परमाणु करार के हवाले से, साम्राज्यवादपरस्ती का उद्घाटन है। साथियों ने उस पुस्तिका का न स्वागत किया, न प्रचार। इससे स्पष्ट पता चलता है कि सेकुलर खेमे की चिंता केवल सांप्रदायिकता को लेकर है, नवउदारवाद के खिलाफ वह नहीं है। जबकि सांप्रदायिकता की आड़ में नवउदारवाद फलता-फूलता है।
भारतीय राज्य के खिलाफ हिंसक संघर्ष चलाने वाले अतिवामपंथी समूह कहते हैं कि वे भारत के संविधान को नहीं मानते। उन्हें देखना चाहिए कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के नेतृत्व में भारत का शासक वर्ग भी भारत के संविधान को नहीं मानता है। यह ठीक है कि भारत का शासक वर्ग कारपोरेट पूंजीवाद की पुरोधा वैश्विक संस्थाओं के आदेश पर काम करता है। लेकिन अपने को माओवादी बताने वाले भी जिन आदेशों को मानते और लागू करना चाहते हैं, वे भारत की जनता के उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की धारा से नहीं निकले हैं; जिसका कुछ आधार लेकर भारत का संविधान बनाया गया था। बल्कि आजादी के संघर्ष को वे मान्यता ही नहीं देते। उनकी पूर्वज पार्टी सीपीआई ने देश की आजादी को अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का परिणाम माना था, न कि जनता के संघर्ष और बलिदान का। आजादी की पूर्व संध्या पर उसने भारत छोड़ो आंदोलन और उसके क्रांतिकारियों के खिलाफ ब्रिटिश हुकूमत का समर्थन किया था।
आजादी अधूरी है, यह अंबेडकर ने भी स्वीकार किया था। लेकिन उनके स्वीकार में अवमानना का भाव नहीं था। उनका संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर उसे पूर्ण करने का सपना था। कांग्रेस के भरोसे वे भी नहीं थे। समता का लक्ष्य हासिल करने का रास्ता लोकतंत्र को मानते थे। लोकतांत्रिक अहिंसक संघर्ष में अंत तक उनकी आस्था रही। इसका अर्थ यह भी बनता है कि आजादी के बाद, गांधी की तरह, अंबेडकर भी कांग्रेस की उपयोगिता नहीं देखते थे। उन्होंने अपनी पार्टी बनाई और सोशलिस्ट पार्टी के साथ चुनाव लड़ा। भविष्य की राजनीति के लिए सोशलिस्ट पार्टी के साथ तालमेल का प्रयास भी उनके दिवंगत होने के पहले हुआ।
लेकिन कम्युनिस्टों ने अधूरी आजादी का ठीकरा कांग्रेस और उसके नेताओं के सिर फोड़ा। अधूरी आजादी से भी ज्यादा उनकी बड़ी शिकायत यह है कि साम्यवादी क्रांति क्यों नहीं की गई; उनकी नजर में भारत के स्वतंत्रता सेनानियों और उनके साथ जुटने वाली जनता का यह दोष था। आजादी के अधूरेपन में उन्होंने न अपना कोई साझा या दायित्व स्वीकार किया, औरअ जाहिर है, न उसे पूरा करने के लिए संविधान का रास्ता स्वीकार किया। कम्युनिस्टों की अंतर्राष्ट्रीयता में ‘पिछड़े,दकियानूसी, सामंती, सांप्रदायिक, जातिवादी भारत’ को छोड़ कर सब कुछ हो सकता था। आज के आधिकारिक मार्क्सवादियों के लिए भी संविधान और संसदीय लोकतंत्र मजबूरी का सौदा है।
भारतीय राज्य बुरा है, कम्युनिस्टों के लिए बात यहीं तक सीमित नहीं रहती। वह अगर उनके कब्जे में नहीं है, तो उनकी मंशा होती है कि उसे दुनिया में होना ही नहीं चाहिए। भारतीय राज्य पर कब्जा नहीं हो पाने पर उन्होंने कांग्रेस की सरपस्ती में संस्थाओं पर कब्जे की रणनीति अपनाई। इस रणनीति के निष्ठापूर्वक निर्वाह का नतीजा यह है कि वे उस रणनीति के बंदी बन कर रह गए हैं। यह सही है कि इस तरह से कम्युनिस्टों ने काफी ताकत हासिल की, लेकिन नवसाम्राज्यवाद विरोध के लिए उस ताकत का कोई उपयोग नहीं है।
दरअसल, उन्होंने सारी ताकत इस बात में लगा दी कि भारत बेशक कांग्रेस के कब्जे में रहे, भारतीय संदर्भों से जुड़ी समाजवाद या सामाजिक न्याय की कोई धारा जगह नहीं बना पाए। शिक्षा, साहित्य, संस्कृति और शोध संस्थाओं के शीर्ष पर रह कर उन्होंने अपने से अलग विचारों/विचारकों के प्रति संकीर्णता का बर्ताव किया। ऐसे में, जाहिर है, जगह आरएसएस की ही बननी थी, जो अपने स्थापना काल से ‘भारत माता भारत माता’ चिल्लाता चला आ रहा था और कम्युनिस्टों की तरह कांग्रेस में गहरी घुसपैठ रखता था। दरअसल, अधूरी आजादी से असंतुष्ट हो पूर्णता हासिल करने के लिए आरएसएस अगर समय में सुदूर स्थित ‘स्वर्णलोक’ की तरफ भागा, तो कम्युनिस्ट स्थान में सुदूर स्थित ‘स्वर्णलोक’ की तरफ। दोनों की आज तक भी कमोबेस वही स्थिति बनी हुई है।
यह स्पष्टीकरण देने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यह समीक्षा वाद-विवाद के लिए नहीं की जा रही है। बल्कि आजादी का बचाव हो; वह पूर्ण, मजबूत और उच्चतर हो, इस उद्देश्य से की जा रही है। देश की आजादी को सीधे नवसाम्राज्यवादी शिकंजे में फंसा दिया गया है। ऐसे में आरएसएस को ठीक करने के पहले अगर अपने को ठीक नहीं किया जाता, तो नवउदारवाद के खिलाफ मोर्चा कभी नहीं जीता जा सकता।
पूंजीवाद के बीमार
वैश्विक परिदृश्य पर मचे हिंसा और मौत के तांडव के बावजूद पूंजीवाद की क्रांतिकारी भूमिका के सिद्धांतकार और पैरोकार आज भी अपनी स्थापना वापस लेने को तैयार नहीं होंगे। तीन-चैथाई दुनिया का उपनिवेशीकरण, संसाधनों की लूट,समूचे समुदायों का सफाया करके उनके भूभागों पर कब्जा, युद्धों, गृहयुद्धों, महायुद्धों के वर्तमान तक जारी अनवरत सिलसिले के समानांतर जीवधारियों और वनस्पतियों की असंख्य प्रजातियों का विनाश करते हुए दुनिया को संकट के मुहाने पर ले आने वाला पूंजीवाद आज भी ‘क्रांतिकारी‘ है। पूंजीवादी व्यवस्था की सर्वाधिक यथार्थपरक (रियलिस्टिक) और तर्कपूर्ण (रेशनल) समीक्षा करने वाला गांधी आज भी भारत में मानव प्रगति का सबसे बड़ा शत्रु माना जाता है। पूंजीवाद के बीमार दिमाग की इस समझ के साथ यह समझ लें कि आगे मनमोहन सिंह और मोदी ही आएंगे। गांधी, नेहरू, जेपी, लोहिया या अंबेडकर नहीं आने जा रहे हैं।
पूंजीवाद का बीमार दिमाग आज भी भारत की स्वतंत्र हस्ती नहीं स्वीकार कर पाता। इस बीमारी का बीज उपनिवेशवादी दौर में पड़ गया था। इसीके चलते उसके लिए अंग्रेज हमेशा सही और भारतीय लड़ाके, चाहे वे रजवाड़े हों,किसान हों, आदिवासी हों, हमेशा गलत थे। किसी भारतीय शासक ने भारत की जनता पर अंग्रेजों जैसा कहर नहीं बरपाया।1857 भारत के लोगों ने पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा। उसके दमन में अंग्रेजों ने जो नृशंसता की, दुनिया के इतिहास में उसका उदाहरण नहीं मिलता। किसी भारतीय शासक के राज्य में वैसे भयंकर अकाल नहीं पड़े, जैसे अंग्रेजों के काल में पड़े। जब भारत में अकाल के चलते एक साथ कई लाख लोग एडि़यां रगड़ कर मरते थे, तो भारत या इंग्लैंड में अंग्रेज का एक निवाला भी कम नहीं होता था। जो अंग्रेज, सिपाही हो या नौकरशाह, भारत आ गया, मालामाल होकर गया। भारत में उसका वैभव और रौब-दाब यहां के किसी भी शासक से ज्यादा था। उनकी अय्याशी के किस्से कम नहीं हैं। लेकिन अंग्रेजी राज यहां के शासकों से अच्छा था, पूंजीवाद के बीमार दिमाग में यह मान्यता घुट्टी की तरह गई हुई है।
उपनिवेशवादी शोषण ने भारत को आर्थिक रूप से जर्जर कर दिया था। सबसे ज्यादा शोषण किसानों, आदिवासियों, कारीगरों और मजदूरों का हुआ था। गांधी ने उस यथार्थ के मद्देनजर देश की स्वावलंबी श्रम आधारित विकेंद्रित अर्थव्यवस्था बनाने की बात की। अगर अपनी अर्थव्यवस्था नहीं है, तो आप स्वतंत्र भी नहीं हो सकते। उपनिवेशवादी शोषण की प्रक्रिया में पैदा हुए छोटे मध्यवर्ग ने गांधी का यह विचार स्वीकार नहीं किया। केवल राजनीतिक आजादी के आकांक्षी मध्यवर्ग ने गांधी की इस धारणा को न केवल अस्वीकार किया, पिछड़ा भी बताया। विकास के बने-बनाए पूंजीवादी माॅडल के भरोसे आर्थिक आजादी को वह हथेली पर धरी चीज मानता था। उसके मुताबिक पूरे भारत को मध्यवर्ग में तब्दील होना था। यानी किसानों, आदिवासियों, कारीगरों, मजदूरों, छोटे-मोटे दुकानदारों को उस विकसित भारत में नहीं रहना था। इसके साथ जो अन्य धारणाएं परोसी गईं, उन्हें फैंटेसी ही कहा जा सकता है। मसलन, इस विकास के साथ वर्ण, जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि की बाधाएं टूट कर दूर हो जाएंगी। फैंटेसी का इंतिहाई सिरा यह था कि पूरा भारत अंग्रेजी पढ़ेगा, समझेगा और बोलेगा।
मिश्रित अर्थव्यवस्था और नेहरूवादी समाजवादी लक्ष्य की बाधाओं को पूंजीवादी दिमाग ने पार कर लिया है। उसका नया मरकज अमेरिका है। ‘मैं गुलाम मोहि बेच गुसांई’ की तर्ज पर वह उसके पैरों में बिछा हुआ है। उसके लिए अमेरिका सही ही सही और अमेरिकी गुलामी का विरोध करने वाले गलत ही गलत हैं। पूंजीवाद के बीमार दिमाग से अगर कहें कि अंग्रेजों की अगुआई में कुछ अन्य यूरोपीयों ने अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियनों का सफाया करके, उनका प्रकृति प्रदत्त भूभाग व संसाधन लूट कर; अश्वेतों को जानवरों की तरह खटा कर यह सोने की लंका बसाई है, तो वे कहेंगे, तो क्या हुआ? जैसा कि वे आदिवासियों, किसानों और खुदरा व्यापारियों की तबाही पर कहते हैं। अगर उनसे कहें कि अमेरिका अन्य देशों की संप्रभुता और नागरिक स्वतंत्रता का किंचित भी सम्मान नहीं करता, बल्कि उनके खिलाफ षड़यंत्र करता है, तख्ता पलट करता है, तो भी वे कहेंगे, तो क्या हुआ? अमेरिका का अंधभक्त यह वही दिमाग है जो उपनिवेशवादी दौर में अंग्रेजों की सराहना में लगा था।
हमारे मित्र संदीप सपकाले ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर फेसबुक पर नेहरू-अंबेडकर की प्रशंसा की है, जिनके विकास के माॅडल के तहत उनका सशक्तिकरण हुआ है। उनका यह विचार अच्छा है। हालांकि पूंजीवाद के साथ मिल कर सामंती शक्तियों का जो सशक्तिकरण हुआ है, उसके मुकाबले समग्र समाज के रूप में दलितों का सशक्तिकरण नगण्य ही कहा जाएगा। जिन थोड़े-से दलितों का सशक्तिकरण हुआ है, वे भी सामंती तौर-तरीके अपनाते हैं। हमें साथी श्योराज सिंह बेचैन ने हाल में एक दिन बताया कि दलित समाज में अफसर होना ही कुछ होना माना जाता है। हम लेखक-विचारक अपने में कुछ भी बने रहें, दलित समाज में सम्मान नहीं मिलता। दलित राजनीति में भी अफसरों की ही पूछ है। मायावती के करीब कई दलित लेखकों-विचारकों ने पहुंचने की कोशश की, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली।
सपकाले के विचार के साथ दिक्कत यह है कि उन्होंने नेहरू-अंबेडकर की प्रशंसा करने के साथ, समाजवाद की बात करने वालों की भर्त्सना भी की है। यानी वे नवउदारवाद, उनके मुताबिक जिसके विरोध में कुछ लोग समाजवाद की वकालत करते हैं, को नेहरू और अंबेडकर की विचारधारा की परिणति मानते हैं। और उस परिणति को सही भी मानते हैं। नेहरू आजादी के संघर्ष के दौर से समाजवादी विचारों के लिए जाने जाते थे। आजादी के बाद सोशलिस्टों के कांग्रेस से बाहर आ जाने के बाद और उनकी तीखी आलोचना के जवाब में उन्होंने कांग्रेस पार्टी का लक्ष्य समाजवाद निर्धारित किया था। अंबेडकर नेहरू से अलग कुछ और भी सोच रहे थे, तभी उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाई थी। उनका लक्ष्य भी लोकतांत्रिक रास्ते से समाजवाद लाना था। सपकाले नेहरू और अंबेडकर को पूंजीवाद के समर्थन में खींचते हैं। इस तरह की खींचतान करके पूंजीवाद का समर्थन करने वाले दलित विचारकों की कमी नहीं है।
पूंजीवाद अगर दलितों को सामाजिक-आर्थिक मुक्ति दिला दे तो उसके स्वागत का कम से कम भारत में पूरा औचित्य बनता है। लेकिन ऐसा संभव नहीं है। पूंजीवाद चाहता तो कुछ निर्णायक प्रयास कंपनी राज के दौर में ही कर सकता था। मसलन, अंग्रेज चाहता तो जमींदारी प्रथा लागू करते वक्त कुछ जमींदार दलित समाज से भी बना देता। आदिवासियों के जंगल पर धावा बोलने वाले अंग्रेज को जमींदारी बड़ी बात लगती थी, तो दलितों को खेती अथवा बागवानी के लिए कुछ जमीन दे देता। चाहे चर्म उद्योग का ही, एकमात्र अधिकार दलितों को दे देता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसका सहोदराना सामंती शक्तियों के था – भारत में भी और इंग्लैंड में भी। हमें हैरानी होती है कि अश्वेतों के साथ अमेरिकी गोरों ने जो किया, उसके बावजूद दलित विचारक अमेरिका का गुणगान करते हैं।
दलित विमर्श, दलित अस्मिता, दलित चेतना की बात करते वक्त यह ध्यान रखना जरूरी है कि दलित समाज केवल आरक्षण के तहत अथवा अपनी मेधा से संगठित क्षेत्र में आ जाने वाले लोगों तक सीमित नहीं है। दलित समाज में सम्मान अगर केवल अफसरी से मिलता है, तो पूंजीवाद से लाभान्वित दलित समाज का दायरा और भी सिकुड़ जाता है। (हालांकि हम संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण को पूंजीवादी व्यवस्था की देन नहीं मानते। अलबत्ता अब जो निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग की जा रही है, वह पूंजीवादी व्यवस्था की देन होगा।) ध्यान दिया जा सकता है कि आगे बढ़े हुए दलित कभी भी दलितोत्थान के ऐसे प्रयास यानी रचनात्मक कार्य नहीं करते, जिनके चलते बाहर छूटे दलितों में शिक्षा और चेतना का प्रसार हो; उन्हें रोजगार के बारे में जानकारी, उचित निर्देशन और प्रशिक्षण मिल सके। यह रचनात्मक काम बड़े पैमाने पर करके वे खुद पहल कर सकते हैं कि आरक्षण का लाभ लेकर कुछ हद तक सशक्त बन चुके परिवारों के पहले अब बाहर छूटे परिवारों को आरक्षण मिले। लेकिन वे रचनात्मक काम नहीं करते। एनजीओ बनाते हैं, जो पूंजीवादी तंत्र का अभिन्न हिस्सा हैं।
यह सच्चाई जानने के लिए बहुत गहराई में जाने की जरूरत नहीं है कि दलित पूंजीवाद की बात करने वाले पूंजीवाद के पहलवानों के प्यादे ही रह सकते हैं। पूंजीवाद ने कितनी गहरी पैठ बनाई है और सवर्ण भारत के कितने लोग यूरोप-अमेरिका तक जमे हैं, उनमें टूटी-फूटी अंग्रेजी और गांठ में चवन्नी लेकर शामिल नहीं हुआ जा सकता। जाति को लेकर जाने पर बड़ी जाति वहां पहले से मौजूद है। जिस जाति को सदियों से छोटा बनाया गया हो, उसे सदियों से बड़ी जाति के मुकाबले कभी भी खड़ा नहीं किया जा सकता। अंबेडकर द्वारा प्रस्तावित जाति निर्मूलन ही उसका उपाय है।
सशक्त दलितों द्वारा पूंजीवाद की पूजा, दरअसल, दलित समाज के नाम पर व्यक्तिगत स्वार्थ की साधना है। यह प्रवृत्ति बाकी जाति समूहों में भी देखी जा सकती है और यह पूंजीवाद की देन है। समता विरोधी ब्राह्मणवाद की जितनी निंदा की जाए, कम है। लेकिन उसके साथ दलित समाज में ही विषमता बढ़ रही हो तो समझ लेना चाहिए खोट कहीं और भी है। सत्ता पाकर मद में आ जाना केवल सामंतवाद-ब्राह्मणवाद की मूल विशेषता नहीं है। जैसे भारत के अगड़े समाज को हजारों साल गुलाम रहने के कुछ कारण अपने चरित्र में खोजने चाहिए, उसी तरह वर्ण व्यवस्था के गुलाम बनाए गए पिछड़े और दलित समाज को भी आत्मालोचन करने की जरूरत स्वीकार करनी चाहिए।
हम फुले-अंबेडकर से लेकर आज तक के दलित विचारकों की ‘अंग्रेज-भक्ति’ का बुरा नहीं मानते। जो मानते हैं उन्हें देख लेना चाहिए कि यह अंग्रेजभक्त सवर्ण समाज ही था, जिसने 200 साल तक उन्हें यहां काबिज बनाए रखा। कई लाख भारतीयों की हत्या के बाद उन्हें अपनी ‘प्रजा’ का दर्जा देने आईं इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया की शान में पढ़े गए कसीदे देख लेने चाहिए। अंग्रेजों के भारत में आने और उपनिवेश कायम करने में दलितों की कोई भूमिका नहीं थी। लेकिन अगर दलित विचारक पूंजीवाद के पक्के पक्षधर बनते हैं, तो उसके साथ अंबेडकर का नाम ज्यादा दिन नहीं चल सकता है। अंबेडकर पूंजीवाद के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने निजी क्षेत्र में आरक्षण की न बात की, न संविधान में प्रावधान किया। वे चाहते थे कि जल्दी ही समता मूलक आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था बने और आरक्षण की जरूरत न रहे।
गांधी का कहना था कि अंग्रेजों ने हमें गुलाम नहीं बनाया, हम खुद उनके गुलाम बन गए। आज हम देखते हैं कि गांधी ने जिस समाज को आजादी की होड़ में लगाया था और आजादी हासिल भी की थी, वह गुलामी की होड़ में दौड़ रहा है। गोया उसे पूर्णता में हासिल करके रहेगा! इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है कि गांधी को अब सबसे ज्यादा गाली दलित विचारकों की ओर से पड़ती हैं। लेकिन दलितों द्वारा गांधी को गाली देने का व्यापार भी ज्यादा दिन नहीं चलने वाला नहीं है। गांधी को उनका सबसे ज्यादा नाम लेने वाली कांग्रेस ने खत्म कर दिया है।
नरसिम्हा राव से लेकर मनमोहन सिंह तक उन्हें कई बार नवउदारवाद के हमाम में खींच चुके हैं। आपने सुना ही है कि बराक ओबामा भी गांधी का भक्त है! पूंजीवाद के बीमार दिमाग को गांधी की जरूरत क्यों पड़ती है, इस पर हमने अन्यत्र विस्तार से लिखा है। वह दूसरों को धोखा देने से ज्यादा अपने को धोखे में रखने के लिए गांधी का नाम लेता है। वह जानता है उसने इंसानियत के ऊपर बाजार और हथियार का पहाड़ खड़ा किया हुआ है। वह यह भी जानता है कि उसे आगे यही करते जाना है। इस उपक्रम में वह कई करोड़ लोगों सहित असंख्य जीवधारियों की हत्या कर चुका है। गांधी के नाम में वह अपने इंसान होने की तसल्ली पाता है। पूंजीवादी दिमाग अपनी बीमारी की दवा के रूप में भी गांधी को रखता है, तो आने वाली दलित पीढ़ियों को उन्हें गाली देने की जरूरत नहीं रह जाएगी।
स्वदेशी का राग अलापने वाला आरएसएस पूंजीवाद का सबसे बड़ा बीमार है। रोग असाध्य न हो जाए, इसके पहले आरएसएस को गंभीरता से आत्मालोचन करना चाहिए। उसे सचमुच सोचना चाहिए कि इतने लंबे समय में एक भी चिंतक, कलाकार, साहित्यकार वह पैदा नहीं कर पाया है। सत्ता और सुविधाओं के लालच में भले ही कुछ रचनाकार और विचारक उसके साथ नाता बना लेते हों। संघ के बाहर स्वयंसेवक पराया और नकलची बन कर रह जाता है। विचार और कला की दुनिया से बहिष्कृत आरएसएस को अपने अलग ‘बौद्धिक’ और ‘सांस्कृतिक’ चलाने की नहीं, सोच और दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है। वरना एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में उसकी पहचान आगे भी कभी खड़ी नहीं हो पाएगी। उसके हिंदुत्व की सार्थकता केवल भाजपा को राजनीतिक सत्ता दिलाने तक ही सीमित रही है और आगे भी रहेगी। सत्ता हथियाने का हथकंडा जीवन दर्शन नहीं हो सकता।
इतिहास की सीख
आजादी अगर खोती है तो उसे दोबारा पाना बहुत कठिन होगा। उससे आसान है कि हम पूंजीवाद के बारे में अपनी धारणाओं को निर्णायक रूप से बदलें। भारत और तीसरी दुनिया के लिए आजादी के क्या मायने हैं और क्यों उपनिवेशवादी वर्चस्व से आजादी हासिल करने के बावजूद गुलामी फिर से कायम हो रही है, इस पर लोहिया के बाद सबसे प्रखर राजनीतिक चिंतन किशन पटनायक ने किया है। नब्बे के दशक से नई आर्थिक नीतियों के रूप में शुरू हुए नवसाम्राज्यवादी हमले के मुकाबले की ठोस राजनीति खड़ी करने की लगातर कोशिश भी उन्होंने की। एक माहौल बना भी कि नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ सन्नद्ध हुए छोटे, एक मुद्दे पर स्थानीय स्तर पर होने वाले जनांदोलनों को जोड़ कर नवउदारवाद के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति का निर्माण किया जाए। दलित, आदिवासी और शूद्र नेतृत्व आगे आए और उसकी अगुआई करे। लेकिन विदेशी धन पर पलने वाले एनजीओपरस्तों, जिनमें कई प्रमुख जनांदोलनकारी भी शामिल हैं, ने उनके प्रयासों को फलीभूत नहीं होने दिया।
चर्चा को समाप्त करने से पहले किशन पटनायक के महत्वपूर्ण और चर्चित निबंध ‘गुलाम दिमाग का छेद’ से एक उद्धरण द्रष्टव्य है, ‘‘हमारे जितने राष्ट्रीय बुद्धिजीवी हैं (जिस तरह से कुछ अंगरेजी अखबारों को राष्ट्रीय अखबार कहा जाता है, उसी तरह कुछ अंगरेजी वाले बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय बुद्धिजीवी कहा जा सकता है) उनमें कुछ अपवादों को छोड़ कर किसी ने यह नहीं माना है कि 1757 के प्लासी-युद्ध में पराजय के कारण भारत बरबाद हो गया, उसकी अपूरणीय क्षति हुई। ‘आजादी खोना बुरी बात तो है ही, लेकिन … ’। ‘लेकिन’ के लहजे में हमारा बुद्धिजीवी ऐसी बातें कहने लगेगा मानो आजादी खोना कोई पछतावे की बात नहीं है, उसकी कीमत पर हमने इतना सारा फायदा हासिल किया है कि हमें अंगरेजों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने हमें दास बनाया।
‘‘भारत के कितने अंगरेजी लिखने-बोलने वाले बुद्धिजीवी हैं जो भारत के आधुनिकीकरण के लिए अंगरेजी हुकूमत को श्रेय नहीं देत? जो यह नहीं मानते कि अगर भारत पर ब्रिटिश हुकूमत नहीं होती तो भारत आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अंगरेजी भाषा का उतना फायदा नहीं उठा पाता, जितना वह आज उठा रहा है? अपवाद के तौर पर ही ऐसे लोग मिलेंगे। 1857 की असफल क्रांति के बारे में हमारे कुछ प्रसिद्ध इतिहासकारों ने लिख दिया है कि जो हुआ, वह अच्छा ही हुआ। अगर 1857 की क्रांति सफल हो जाती तो भारत अज्ञान के अंधकार और अंधविश्वास के गर्त में डूबा रह जाता ऐसा मानने वालों के मस्तिष्क के बारे में सोचना पड़ेगा। प्रश्न यह है कि कहीं उनके मस्तिष्क में कोई छेद तो नहीं हो गया है, अन्यथा सामने पड़े हुए तथ्यों को वे कैसे जनरअंदाज कर देते हैं। उनके सामने यह तथ्य है कि कि जापान और चीन यूरोपीय हुकूमत के अधीन नहीं रहे। क्या चीन और जापान का आधुनिकीकरण भारत से कम हुआ है?’’ (‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’, पृ. 22)
जहिर है, हमारी आधुनिकता और आधुनिकीकरण की समझ इस तरह की बनी है कि भारत की स्वतंत्रता या स्वतंत्र भारत की जगह उसमें नहीं बन पाती। यह जटिल समस्या है जिसके समाधान के लिए सभी बौद्धिक समूहों और राजनीतिक पार्टियों के समग्र और गंभीर उद्यम की जरूरत है। इतिहास में हो चुकी गलतियों को अनहुआ नहीं किया जा सकता। लेकिन उनसे शिक्षा कभी भी ली जा सकती है। प्रसिद्ध कथन है, जो इतिहास से सबक नहीं सीखते, वे उसे दोहराने को अभिशप्त होते हैं। हमें इतिहास से यह सबक लेना होगा कि उपनिवेशवाद का विरोध किए बगैर नवसाम्राज्यवाद का विरोध नहीं किया जा सकता।
25 अगस्त 2013
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Dr. Prem Singh
Dept. of Hindi
University of Delhi
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Former Fellow
Indian Institute of Advanced Study, Shimla
India
Presently Visiting Professor
Center of Eastern Languages and Cultures
Dept. of Indology
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