सबक सिखाने के दौर में
प्रेम सिंह
सामाजिक एक्टिविस्ट स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले की जहां ठीक ही कड़ी निंदा की जा रही है, वहीँ कई लोग स्वामी जी के कुछ पूर्व प्रकरणों का हवाला देकर इसे सही परिणति बता रहे हैं. यह निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण है. जिन्हें उनके विचारों और कार्यों से सहमति नहीं है, वे अपना मत रखने के स्वतंत्र हैं. वे उनका विरोध करने के लिए भी स्वतंत्र है. हालाँकि, ऐसा करते हुए उन्हें स्वामी अग्निवेश की पृष्ठभूमि पर भी नज़र डालनी चाहिए.
इधर देखने में आ रहा है कि संघी ब्रिगेड के ‘हिंदुत्ववादी लुम्पनों’ के हमलों से त्रस्त कुछ साथी उन्हें सबक सिखाने के लिए दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों की एकजुटता का आह्वान करते हैं. स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले की प्रतिक्रिया में भी यह स्वर काफी उभर का आ रहा है. कुछ साथियों ने ललकारा है कि जब दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों का एका हो जायेगा, तब हिंदुत्ववादी लुम्पनों की खैर नहीं रहेगी. आरएसएस का हिंदूत्व और उससे जुड़ा गर्व पराजित मानसिकता की कुंठा से पैदा होता है. इसीलिए वह हमेशा नकारात्मक बना रहने के लिए अभिशप्त है. साथियों की दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों की एकजुटता से हिंदूत्ववादी लुम्पनों को सबक सिखाने की ललकार भी सकारात्मक नहीं कही जा सकती. यह एक तरह से कुंठित आक्रोश की पुकार है.
इस सन्दर्भ में पहला निवेदन यह है कि दलित, पिछड़े, आदिवासियों का एका आरएसएस/भाजपा के साथ बखूबी हो चुका है और चल रहा है. आरएसएस/भाजपा का ‘एकात्म’ नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद के साथ हो चुका है. कहने की जरूरत नहीं है कि आरएसएस/भाजपा के साथ एकजुट दलित, पिछड़े, आदिवासियों का भी. जहाँ तक अल्पसंख्यक मुसलामानों की बात है, वे कितने दिनों तक अलगाव में रह कर आरएसएस/भाजपा का विरोध करते रह सकते हैं? आखिर वे भी हम सब जैसे भारतवासी हैं. उन्हें भी दीन के साथ कुछ न कुछ सत्ता का सहारा चाहिए. आरएसएस शिया मुसलमानों में घुस कर काम कर रहा है. इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरएसएस का काम देर से ही सही, परिणाम लेकर आता है. वर्ना आज हालत यह नहीं होती कि उसने समस्त वैज्ञानिक, प्रगतिशील और क्रन्तिकारी चिंतन की धाराओं को एक ‘पांचजन्य’ से पीट दिया है! वैसे भी मुसलमान इतना जानता है कि वह किसी भी सूरत में हिंदूत्ववादी लुम्पनों की खुली कुटाई नहीं कर सकता. दलित, पिछड़े और आदिवासी ही उसे सबक सिखा देंगे!
दूसरा निवेदन है, अगर इस देश के बुद्धिजीवियों को दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों को हिंदूत्ववादी लुम्पनों को सबक सिखाने के लिए ही एकजुट करना है, तो स्वीकार कर लेना होगा कि लोहिया का आह्वान – ‘जिंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं – उनका एक मुगालता था. लोहिया ने यह समझ कर कि अस्मिता का विमर्श और राजनीति दक्षिणपंथी ताकतों की सहायक न बन जाएं, राजनीति में दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिला, अल्पसंख्यकों की एकजुटता का सूत्र दिया था. इसके पीछे उनका नई भारतीय सभ्यता के निर्माण का स्वप्न था, जिसे आधुनिक विश्व में अपनी जगह बनानी थी. उनकी परिकल्पना में भारत की आबादी का यह अधिकांश हिस्सा उपनिवेशपूर्व की ब्राह्मणवादी विचारधारा और उपनिवेशकालीन पूंजीवादी विचारधारा के शिकंजे से कमोबेस मुक्त रहा है. इन समूहों की एकजुटता से लोकतंत्र में राजनीतिक सत्ता हासिल करके दुनिया के सामने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से अलग बराबरी की नई व्यवस्था कायम की जा सकती है. उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए उन्होंने विशेष अवसर का सिद्धांत (आरक्षण) रखा था. लोहिया के इस सूत्र का अभी तक वोट की राजनीति के लिए ही इस्तेमाल हुआ है. आरएसएस/भाजपा ने भी देखा-देखी वह कर लिया.
अगर बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि इन समूहों की एकजुटता से हिंदूत्ववादी लुम्पनों को सबक सिखाना है, तो यह वोट की राजनीति से भी पीछे जाने वाली बात होगी. कारपोरेट पूंजीवाद देश के नेताओं को ही नहीं, बुद्धिजीवियों को भी नचा रहा है. ध्यान दिला दें, हिंदूत्ववादी लुम्पनों को सबक सिखाने के लिए दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यकों की एकजुटता का आह्वान करने वाले बुद्धिजीवी धुर आरक्षण विरोधी अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के समर्थन में ‘भीड़’ बन गए थे!