– प्रेम सिंह

वैश्‍वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण के दौर में भारत में मुकम्मल राजनीतिक दर्शन – राजनीति का ऐसा चिंतन जो इस परिघटना के मद्देनजर स्वावलंबी समतामूलक अर्थव्यवस्था और सेकुलर लोकतंत्र के पक्ष में वंचित आबादी की जमीन से किया गया हो – की रचना का काम अवरुद्ध है। नवउदारवाद पूरी ताकत से ऐसा राजनीतिक चिंतन फलीभूत नहीं होने देने में काफी हद तक सफल रहा है। कतिपय सक्रिय राजनीतिक कार्यकताओं व बुद्धिजीवियों द्वारा नवउदारवाद के बरक्स राजनीतिक चिंतन के जो फुटकर प्रयास हुए हैं, राजनीतिक विमर्श में उसकी जगह नहीं बन पाती है। इसका स्वाभाविक नतीजा है कि भारतीय जीवन के हर क्षेत्र में उत्तरोत्तर नवउदारवादी शिकंजा कसा जा चुका है। हमारे दौर के महत्वपूर्ण राजनीतिक चिंतक किषन पटनायक ने विकल्पहीनता की इस स्थिति में ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ का दावा पेश किया था। उनके इस सर्वथा सार्थक और प्रासंगिक प्रयास का नवउदारवादी सत्ता-प्रतिष्‍ठान द्वारा विरोध स्वाभाविक था। लेकिन अपने को जनांदेालनकारी और समाजवादी-गांधीवादी कहने वाले कतिपय निहित स्वार्थी तत्वों ने भी उनके विचार को आगे बढ़ने से रोका।

ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद के पूंजीवादी साम्राज्यवाद विरोधी चिंतन व संघर्श की विरासत का सहारा लिया जा सकता है, बल्कि लिया ही जाना चाहिए। लेकिन उस विरासत को नवउदारवादी शासक वर्ग, जिसमें प्रच्छन्न नवउदारवादियों का बड़ा हुजूम शामिल है, विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। इस हुजूम में ज्यादातर नागरिक समाज एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवी शामिल हैं। रही-सही कसर वह झगड़ा पूरी कर रहा है जो इस विरासत के पुरोधाओं को लेकर खड़ा किया जाता है।

आधुनिक भारतीय राजनीतिक दर्शन की यह विषेशता रही है कि उसकी रचना ज्यादातर सक्रिय राजनीतिक हस्तियों द्वारा हुई है। उपनिवेशवाद के बरक्स भारतीय मनीषा की जीवंत चिंताओं और तनावों से आधुनिक भारत का राजनीतिक चिंतन पैदा हुआ है। साहित्य, कलाएं और विद्वता (स्कालरशिप) इस राजनीतिक दर्शन से प्रेरित और कई बार उसके पूरक रहे हैं। यह सही है कि नवउदारवादी दौर में भी भारतीय भाषाओं में अच्छा साहित्य रचा गया है। विशेषकर अंग्रेजी में मानविकी व समाजशास्त्र के विषयों में गंभीर विद्वतापूर्ण लेखन हुआ है। लेकिन नवउदारवाद के बरक्स एक समुचित राजनीतिक दर्शन के अभाव में ज्यादातर साहित्यकार और विद्वान नवउदारवादी तंत्र में कोआप्ट हो जाते हैं, या कर लिए जाते हैं। कहा जा सकता है कि अगर राजनीतिक दृष्टि – विज़न – नहीं है तो साहित्य और विद्वता भी दृष्टि – विज़न – से रहित रह जाते हैं। यह अकारण नहीं कि भ्रष्‍टाचार विरोध के नाम पर खड़े किए गए तथाकथित आंदोलन और ‘उसकी राख’ से खड़ी की गई तथाकथित राजनीतिक पार्टी की वकालत कई बड़े लेखक और विद्वान करते हुए पाए गए। विदेशी फंडिंग पर पलने वाला एक गुट नवउदारवादी-सांप्रदायिक गठजोड़ की मजबूती बनाते हुए राजनीतिक सत्ता हथियाने की तिकड़म करता है और भारत का बुद्धिजीवी वर्ग उसके समर्थन में सन्नद्ध हो जाता है। वे देख नहीं पाते कि राजा को नंगा बताने वाले खुद कौन-सी पोशाक पहने हैं!

मनमोहन सिंह के नेतृत्व में नवउदारीकरण के पक्ष में एक ‘चुप्पा युग’ चल रहा था। मनमोहन सिंह खुद तो चुपचाप अपना काम करते ही थे; वैश्‍वीकरण के समर्थक बुद्धिजीवी भी ज्यादा बढ़चढ़ कर दावे नहीं करते थे। उनका असल काम नवउदारीकरण के दुष्‍प्रभावों से बदहाल विशाल आबादी की आवाज को बार-बार यह कहते हुए चुप कराना था कि देश में नवउदारीकरण के पक्ष में आम सहमति बन चुकी है। यह बहुत अच्छा है, क्योंकि और कोई विकल्प नहीं है। मनमोहन सिंह के ‘ज्ञान आयोग’ में शामिल विद्वान और सोनिया गांधी की ‘राष्‍टीय सलाहकार परिषद’ में शामिल नागरिक समाज एक्टिविस्टों ने नवउदारीकरण को सर्वस्वीकार्य बनाने का काम किया।

अचानक इंडिया अगेंस्ट करप्‍शन, भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन, आम आदमी पार्टी के साथ बड़ी संख्या में नागरिक समाज एक्टिविस्टों, बुद्धिजीवियों, एनजीओ सरगनाओं, बाबाओं ने एकजुट होकर भारतीय राजनीतिक विमर्श को एक झटके में ‘चुप्पा युग’ से ‘लबार युग’ में पहुंचा दिया। कारपोरेट घरानों और एनआरआई ने तन-मन-धन से भ्रष्‍टाचार मिटाने के नाम पर किए उस ‘महान आंदोलन’ का भरपूर समर्थन किया। जम कर भाषणबाजी हुई। भाषा और वाणी का अवमूल्यन निम्नतम स्तर तक पहुंच गया। हालत यह हो गई कि प्रायः पूरा नागरिक समाज जहां-तहां जुबान साफ करने के लिए उतावला हो उठा। दिल्ली का जंतर-मंतर और रामलीला मैदान इसके लिए प्रमुख अड्डे बन गए। मुख्यधारा मीडिया के साथ सोशल मीडिया और लघु पत्रिकाओं – साहित्यिक पत्रिकाओं समेत – के संपादक/लेखक भी पीछे नहीं रहे। यह सब आरएसएस के इंतजाम में हुआ। जाहिर है, अंदरखाने ये सभी नवउदारवाद के लाभार्थी, लिहाजा समर्थक थे। वरना पिछले दो दशकों में बनी नवउदारवाद विरोधी ताकत को एनजीओबाजों के गुट द्वारा सांप्रदायिक ताकतों के साथ मिल कर तोड़ा नहीं जा सकता था।

देखते ही देखते भारत का राजनीतिक विमर्श एक ऐसा खुला बाजार बन गया कि बाबा रामदेव जैसे वाचाल धर्म के धंधेबाज का यह हौसला हो गया कि वह कामरेड एबी बर्द्धन के पास अपने ‘उच्च विचार’ लेकर जा पहुंचा; बर्द्धन समेत कितने ही समाजवाद के पक्षधर नेताओं और विचारकों ने जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। बाजारवाद के हमाम से निकले ‘आम आदमी’ ने गांधीजनों और जनवादियों को एक साथ मोहित कर लिया। इस तरह, कह सकते हैं, राजनीतिक चिंतन की चिंताजनक कमी की क्षतिपूर्ति वाणी-विलास से पूरी की गई। वाणी-विलास के साथ कल्पना-विलास इस कदर ‘उदात्त’ हो गया कि बाजारवाद के खिलाडि़यों में एक साथ गांधी, जेपी और लेनिन की छवियां देख ली गईं!

इस हल्ले में सत्याग्रह, स्वराज, वैकल्पिक राजनीति जैसे पदों/अवधारणाओं को धड़ल्ले से अवमूल्यित और विकृत किया गया। क्रांति तो जैसे ब्रज की गोपियों का दधि-माखन हो गया, जिसे कान्हा ग्वाल-बालों के साथ लूट-लूट कर खाते थे। राजनीतिक विमर्श की दुनिया से तथ्य और तर्क का जैसे दाना-पानी उठ गया। आष्चर्य की बात नहीं है कि लबारपंती के महोत्सव में गांधी, भगत सिंह, पटेल, जेपी, लोहिया, अंबेडकर आदि चिंतकों का इस हद तक अवमूल्यन कर डाला गया कि भविष्‍य में शायद ही उनके वास्तविक स्वरूप को प्रतिष्ठित किया जा सके। भारत के भविष्‍यद्रश्टा चिंतकों/नेताओं को भारत का भविष्‍य कारपोरेट पूंजीवाद में देखने वाले चिंतकों/नेताओं में घटित करने का यह सिलसिला जारी है।

भाषा और वाणी के मर्यादाहीन इस्तेमाल से मुख्यधारा और सोशल मीडिया की मार्फत पूरे देश में जो माहौल बना, उसी पर सवार होकर टीम नरेंद्र मोदी ने आमचुनाव फतह कर लिया। भारत के शासक वर्ग ने एकजुट होकर यह सब किया, ताकि संकट में आया नवउदारवाद न केवल साफ बच कर निकल आए, मजबूत व दीर्घजीवी भी बन जाए।

सत्याग्रह और स्वराज आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन की पुरानी और प्रतिष्ठित अवधारणाएं हैं। आषा की जा सकती है कि इन्हें देर-सवेर फिर से प्रतिष्ठित किया जा सकेगा। लेकिन वैकल्पिक राजनीति की अवधारणा अपेक्षाकृत नई और निर्माणाधीन है। यह सबसे ज्यादा जरूरी और सार्थक भी है; क्योंकि इसकी उद्भावना नवउदारवाद के बरक्स हुई है। वैकल्पिक राजनीति नवउदारवाद का मुकम्मल विचारधारात्मक विकल्प प्रस्तुत करने का गंभीर प्रयास है। वैकल्पिक राजनीति के बजाय राजनीति के विकल्प का विचार भी बहस में रहा है। इस विचार के तहत माना जाता है कि शक्ति राजनीति के पास न रह कर समाज के पास रहे। इस विचार की एक उपधारा राजनीति के पूर्ण निषेध की है। दूसरी उपधारा में राजनीति की भूमिका स्वीकार की जाती है। पहली उपधारा राजनीति को एक बुराई मान कर चलती है, जबकि दूसरी उपधारा राजनीतिक दलों की उपस्थिति स्वीकार करते हुए प्रचलित राजनीति को नागरिक समाज के प्रतिरोध से सही पटरी पर चलाने की हामी है। यहां हम इस महत्वपूर्ण बहस – वैकल्पिक राजनीति या राजनीति का विकल्प – में नहीं जा रहे हैं।

वैकल्पिक अथवा विकल्प की राजनीति की विचारधारा के केंद्र में 21वीं सदी में समाजवाद के स्वरूप का चिंतन निहित है। इस चिंतन के सूत्र टेक्नोलोजी, प्राकृतिक संसाधन, विकास, पर्यावरण, विशमता, गरीबी, भुखमरी, विस्थापन, आत्महत्याएं, नरसंहार, परमाणु व जैव सहित बेशुमार विध्वंसक हथियार, नागरिक व मानवाधिकार, अस्मिता जैसे जीवंत सवालों में उलझे हैं। वैकल्पिक राजनीति की विचारधारा में केंद्रीकृत समृद्धि के लक्ष्य की जगह विकेंद्रित समतापूर्ण संपन्नता पर निर्णायक बलाघात है। इसमें आधुनिक औद्योगिक पूंजीवादी विकास के माडल का निर्णायक नकार है। इसीलिए वैकल्पिक राजनीति का चिंतन स्वाभाविक तौर पर गांधीवाद की तरफ जाता हैं। डा. लोहिया से लेकर किशन पटनायक तक गांधीवाद की अपरिहार्यता पर बल दिया गया है। लोहिया, जिन्हें गांधी का विस्तार/क्रांतिकारी व्याख्याकार कहा जाता है, ने पूंजीवाद और साम्यवाद से अलग समाजवाद की विचारधारा में गांधीवाद का फिल्टर लगाने की एक सुचिंतित विचारणा प्रस्तुत की है।

वैकल्पिक राजनीति की रचना की प्रेरणा के पीछे बाबरी मस्जिद के ध्वंस की घटना भी नवउदारवादी नीतियों के स्वीकार जैसी महत्वपूर्ण है। मस्जिद का ध्वंस एक राजनीतिक पार्टी और उसके शीर्षस्थ नेताओं द्वारा ‘आंदोलन’ चला कर किया गया। संवैधानिक संस्थाएं, धर्मनिरपेक्ष राजनीति, आजदी के संघर्ष की साझी विरासत, सहअस्तित्व व सहिष्‍णुता की भावना, धर्म की उदार धारा – कोई भी वह ध्वंस नहीं रोक पाया। लिहाजा, सेकुलर लोकतंत्र की प्रतिष्ठिा वैकल्पिक राजनीति का अहम आयाम है।

नवउदारवाद के विकल्प की विचारधारा और उस पर आधारित राजनीति का निर्माण जल्दबाजी में संभव नहीं है। गांधी का एक कदम ही इस दिशा में काफी हो सकता है, बशर्ते वह उसी दिशा में उठाया जाए। वास्तविक नवउदारवाद विरोधियों में अगर सहमति और एका बनेगा तो राष्‍टीय स्तर का आंदोलन उत्पन्न हो सकता है। तब मुख्यधारा राजनीति पर भी उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा। और नवसाम्राज्यवादी गुलामी का जुआ उतार फेंका जा सकेगा।

वैकल्पिक राजनीति की इस संक्षिप्त प्रस्तावना के मद्देनजर देखा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी (आप) को वैकल्पिक राजनीति की वाहक बताने वालों का दावा शुरू से ही खोखला है। वह हास्यास्पद भी है – क्योंकि ‘आप’ सीधे नवउदारवाद की कोख से पैदा होने वाली पार्टी है। इस पार्टी में सस्ते सत्ता-स्वार्थ की खींचतान के चलते कुछ लोग फिर से वैकल्पिक राजनीति का वास्ता दे रहे हैं। यह पहले से चल रही लबारपंती का एक और विस्तार है। अचानक केजरीवाल को कौरव बताने वाले ये पांडव पहले ही वैकल्पिक राजनीति की विरासत को सत्ता की बिसात पर दांव पर लगा चुके हैं। यह एक लंबी कार्रवाई रही है। विदेषी फंडिंग से जनांदोलन और विचार का काम करने वाले कुछ लोगों ने लंबे समय से वैकल्पिक राजनीति की हत्या की सुपारी उठाई हुई थी। अन्ना, रामदेव, केजरीवाल की तिकड़ी ने मौका दिया और इन्होंने काम तमाम कर दिया।

ऐसे ही लोग किशन जी को वर्ल्‍ड सोशल फोरम के मुंबई जलसे में लेकर गए थे। किशन जी की यह निरंतर कोशिश रही कि वैश्‍वीकरण का विरोध करने वाले एनजीओकर्मियों का राजनीतिकरण हो। लिहाजा, एक बड़े आयोजन में संभावना तलाशने के उद्देश्‍य से उन्होंने वहां जाना स्वीकार किया थां। एनजीओकर्मियों द्वारा किए जाने वाले विभिन्न कार्यक्रमों में भी वे इसी मकसद से जाते थे। लेकिन एनजीओकर्मी किशन जी का पक्ष समझने और स्वीकार करने के बजाय किशन जी की उपस्थिति को अपने पक्ष की वैधता के लिए इस्तेमाल करते थे। क्योंकि ये सयाने लोग अच्छी तरह जानते हैं कि किशन जी का पक्ष स्वीकार करते ही वास्तविक संघर्ष का जोखिम उठाना पड़ेगा। फंडिंग बंद हो जाएगी। ऐसे ही एक कार्यक्रम में किषन जी बीमार पड़े और चल बसे। कई सच्चे समाजवादी कार्यकर्ताओं ने तब भी कहा था और आज भी मानते हैं कि एनजीओ वालों ने किशन जी की वैकल्पिक राजनीति की हत्या करने की तो निरंतर कोशिश की ही, उनके शरीर की हत्या में भी उन्हीं का हाथ है। किशन जी की परंपरा में वैकल्पिक राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक संस्कृति की सर्वश्रेष्‍ठ अभिव्यक्ति साथी सुनील की बलि भी इसी रास्ते ले ली गई है!

हमने किशन जी और सुनील का हवाला इसलिए दिया है कि वैकल्पिक राजनीति और विदेशी फंडिंग पर पलने वाले एनजीओ का साझा मंच कभी नहीं बन सकता। यह हो सकता है, जो कि बहुत कम होता है, कि एनजीओकर्म छोड़ कर कोई व्यक्ति वैकल्पिक राजनीति के साथ आ जाए या, जो बहुत ज्यादा होता है, वैकल्पिक राजनीति करने वाला व्यक्ति एनजीओ में चला जाए। दोनों का साझा नहीं निभ सकता। बल्कि साझेदारी की कोशिश में एनजीओ पक्ष ही मजबूत होता जाता है।

सभी जानते हैं ‘आप’ में विद्रोह का झंडा उठाने वाले लोग लोकसभा का चुनाव जीत जाते या इन्हें दिल्ली से राज्यसभा में भेज दिया जाता या पार्टी में अहम पद सौंप दिया जाता तो इनके लिए ‘आप’ वैकल्पिक राजनीति की खरी पार्टी बनी रहती और केजरीवाल, जिसके डुबकी लगाने से गंगा का उद्धार हो गया बताया जात है, वैकल्पिक राजनीति का मसीहा बना रहता।

इन लोगों का कहना था कि ‘आप’ को समाजवादी पार्टी बना लिया जाएगा। केजरीवाल को भी बना लेंगे; नहीं बनेगा तो पार्टी पर समाजवादियों के कब्जे के चलते उन्हें चलता कर दिया जाएगा। हो उल्टा गया है। अगर नीयत साफ होती तो जिन साथियों को ‘आप’ को समाजवादी बनाने का वास्ता देकर सदस्य बनाया था उन्हें यह कहते कि हमारी समझ और आकलन गलत था। हम यह पार्टी छोड़ते हैं और समाजवादी आंदोलन को मजबूत बनाने का काम करते हैं। जाहिर है, इनके लिए समाजवाद बहाना भर था, असली मकसद ज्यादा से ज्यादा समाजवादी साथियों को पार्टी में लाकर अपनी हैसियत मजबूत करना था। केजरीवाल के दरबार में अपनी ताकत बनाने के लिए इन्होंने कैप्टन अब्बास अली जैसे समाजवाद के जीवित आइकोन का इस्तेमाल करके लोहियागीरी और नारायण देसाई जैसे गांधीवाद के जीवित आइकोन का इस्तेमाल करके गांधीगीरी की चोरबाजारी कर डाली। इस पूरे पचड़े में सोपा-प्रसोपा-संसोपा अथवा किशन पटनायक का हवाला देना शरारतपूर्ण है।

इन लोगों ने केजरीवाल द्वारा इस्तेमाल करके फेंक दिए गए ‘स्वराज’ और अपनी तरफ से भरसक नष्‍ट कर दी गई वैकल्पिक राजनीति की धारा को इसलिए बहाना बनाया कि कुछ न कुछ सिलसिला चलता रहे। क्रांति अपने बच्चों की कड़ी परीक्षा लेती है। जान भी ले लेती है। यह भी देखा गया है कि कई बार वह खुद अपने बच्चों को खाना षुरू कर देती है। लेकिन प्रतिक्रांति की अपने बच्चों पर अपार ममता होती है। वह केजरीवाल के साथ इन लोगों को भी गोद में उठाए रखेगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *