लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया (2)
प्रेम सिंह
मौजूदा दौर की भारतीय राजनीति में नीतियों के स्तर पर सरकार और विपक्ष के बीच अंतर नहीं रह गया है. दरअसल, राजनीतिक पार्टियों के बीच का अंतर ही लगभग समाप्त हो गया है. लोग अक्सर एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आवा-जाही करते रहते हैं. क्योंकि विचारधारा ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का आधार नहीं रह गई है. केंद्र अथवा राज्यों में कौन सरकार में है और कौन विपक्ष में – यह चुनाव में बाज़ी मारने पर निर्भर करता है. चुनाव के बाद ही या अगला चुनाव आते-आते पार्टियां अपना गठबंधन, और नेता अपनी पार्टी बदल लेते हैं. इस चलन का अब बुरा नहीं माना जाता. यह अकारण नहीं है. 1991 में जब कांग्रेस ने नई आर्थिक नीतियां लागू की थीं, उस समय भाजपा के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कांग्रेस ने अब भाजपा का काम हाथ में ले लिया है. शायद तभी उन्होंने आकलन कर लिया था कि वे निकट भविष्य में देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं. वर्ना 80 के दशक तक यही सुनने को मिलता था कि आरएसएस/जनसंघ से जुड़े वाजपेयी अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता के बावजूद कभी भी देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. वाजपेयी गठबंधन सरकार के पहले दो बार अल्पकालिक, और उसके बाद पूर्णकालिक प्रधानमंत्री बने. अब नरेंद्र मोदी अकेले भाजपा के पूर्ण बहुमत के प्रधानमंत्री हैं.
1991 के बाद से मुख्यधारा राजनीति के लगभग सभी दलों का देश के संविधान के प्रतिकूल नई आर्थिक नीतियों के पक्ष में अनुकूलन होता गया है. लिहाज़ा, पिछले तीन दशकों में परवान चढ़ा निगम पूंजीवाद भारत के राजनीतिक दलों और नेताओं को खुले रूप में निर्देशित करता है. जब संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की जगह निगम पूंजीवाद की वैश्विक संस्थाओं – विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि, और देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों/कारपोरेट घरानों के आदेशों ने ले ली तो संविधान के समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे मूलभूत मूल्यों पर संकट आना ही था. इनमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हम लगभग गवां चुके हैं. इस क्षति का सच्चा अफसोस भी हमें नहीं है. नई पीढ़ियां इस प्रतिमान विस्थापन (पेराडाईम शिफ्ट) की प्राय: अभ्यस्त हो चुकी हैं. लोकतंत्र का कंकाल अलबत्ता अभी बचा हुआ है. यह कंकाल जब तक रहेगा, देश में चुनाव होते रहेंगे.
किसी देश की राजनीति में यह अत्यंत नकारात्मक स्थिति मानी जायेगी कि वहां सरकार और विपक्ष का फैसला तात्कालिक रूप से चुनाव की जीत-हार पर निर्भर करता हो. स्वाभाविक तौर पर होना तो यही चाहिए कि संविधान-सम्मत नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने और संवैधानिक संस्थाओं के बेहतर उपयोग और संवृद्धि की कसौटी पर सरकार और विपक्ष दोनों को कसा जाए. लेकिन निगम पूंजीवाद से अलग विचारधारा, यहां तक कि संविधान की विचारधारा पर भी राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता आस्था रखने को तैयार न हों, तो मतदाताओं के सामने विकल्प नहीं बचता. कांग्रेस और भाजपा निगम पूंजीवाद के तहत नवउदारवादी नीतियों की खुली वकालत करने वाली पार्टियां हैं. इन दोनों के अलावा जितनी छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां, देश के ज्यादातर बुद्धिजीवी, नागरिक समाज संगठन तथा एक्टिविस्ट भी घुमा-फिर कर नवउदारवादी नीतियों के दायरे में ही अपनी भूमिका निभाते हैं. मुख्यधारा मीडिया इसी माहौल की उपज है और उसे ही दिन-रात लोगों के सामने परोसता है. जिसे ‘गोदी मीडिया’ का प्रतिपक्ष बताया जाता है, वह मीडिया भी ज्यादातर नवउदारवाद के दायरे में ही काम करता नज़र आता है. इस बीच एक तरफ स्वतंत्रता संघर्ष के दौर के प्रतीक-पुरुषों को नेताओं द्वारा नवउदारवाद के हमाम में खींचा जाता है, दूसरी तरफ सत्ता की राजनीति में परिवारों से अलग जो नए चेहरे निकल कर आते हैं, उन पर जाति, धर्म और क्षेत्र की छाप लगी होती है.
किशन पटनायक ने 90 के दशक में इसे प्रतिक्रांति की शुरुआत कहा था. तब से पिछले 20-25 सालों में प्रतिक्रांति अच्छी तरह पक चुकी है. प्रतिक्रांति के पकने का प्रमाण है कि कुछ एनजीओबाज़, धर्म-अध्यात्म के धंधेबाज़, सरकारी आला अफसर और प्रोफेशनल हस्तियां भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन करते हैं और देश का पूरा लेफ्ट-राईट इंटेलीजेंसिया और मीडिया उसके पक्ष और प्रचार में एकजुट हो जाता है. आंदोलन की ‘राख’ से ‘आम आदमी’ की एक नई पार्टी निकल कर आती है जो आरएसएस/भाजपा तथा सोशलिस्टों/कम्युनिस्टों को एक साथ साध लेती है. कारपोरेट पूंजीवाद की यह अपनी पार्टी है जो अब कांग्रेस को भी घुटनों पर लाने का जोर भरती है! ऐसी स्थिति में कारपोरेट पूंजीवाद, जो नवसाम्राज्यवाद का दूसरा नाम है, के विरोध की राजनीति के लिए चुनावों के रास्ते जगह बनाना लगभग असंभव है.
लेकिन इस नकारात्मक यथार्थ के बावजूद चुनाव ही वह आधार बचता है, जहां से सकारात्मक स्रोतों को तलाश की जा सकती है. इसी मकसद से मैंने पिछले साल जून में ‘लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया’ निबंध लिखा था. विपक्ष के चुनावी गठबंधन के मद्देनज़र काफी विस्तार से लिखा गया वह निबंध हिंदी में ‘हस्तक्षेप डॉट कॉम’ पर और अंग्रेजी में ‘मेनस्ट्रीम वीकली’, ‘काउंटर कर्रेंट’, ‘जनता वीकली’ समेत कई जगह छपा था. वर्तमान में जैसा भी हमारा लोकतंत्र है, उसमें चुनावों की बहुआयामी भूमिका रेखांकित करते हुए निबंध में मुख्यत: चार सुझाव रखे गए थे : भाजपा और कांग्रेस से अलग भारतीय राजनीति की तीसरी शक्ति कही जाने वाली पार्टियों और वामपंथी पार्टियों का राष्ट्रीय स्तर का एक अलग गठबंधन ‘सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा’ (नेशनल फ्रंट फॉर सोशल जस्टिस) नाम से बनाया जाना चाहिए; विपक्ष के किसी एक नेता को उस मोर्चे का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना चाहिए; कांग्रेस को पांच साल तक बाहर से राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार का समर्थन करना चाहिए; और देश के बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय मोर्चे के गठन और कामयाबी की दिशा में अग्रसक्रिय (प्रोएक्टिव) भूमिका निभानी चाहिए. ये चारों बातें संभव नहीं हो पाईं. लोकसभा चुनाव घोषित हो चुके हैं और 11 अप्रैल 2019 को पहले चरण का मतदान होगा. ऐसे में लेख का दूसरा भाग लिखने का औचित्य शायद नहीं रह जाता है. लेकिन विपक्ष के पाले में बने चुनावी गठबंधनों और रणनीतियों के मद्देनज़र थोड़ी चर्चा की जा सकती है.
यह स्पष्ट है कि भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के मुकाबले न ‘सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा’ मैदान में है, न कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए). महागठबंधन जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं लेकिन एनडीए के मुकाबले कांग्रेस समेत विपक्ष ने राज्यवार फुटकर गठबंधन ही बनाए हैं. इन गठबंधनों की चुनावों में जो भी शक्ति और सीमाएं हों, चुनावों के बाद उनकी विश्वसनीयता और स्थायित्व को लेकर अभी से अटकलें लगाई जाने लगी हैं. माना जा रहा है कि जो भी फुटकर गठबंधन हुए हैं, उनका चरित्र विश्वसनीय और स्थायी नहीं है. उनमें शामिल कुछ पार्टियां/नेता भाजपा की बढ़त की स्थिति में एनडीए के साथ जा सकते हैं. करीब 35 पार्टियों का गठबंधन लेकर चलने वाले मोदी विपक्ष की इस सारी कवायद को ‘महामिलावट’ कहते हैं! कांग्रेस अपने से इतर गठबंधनों पर अस्थायित्व की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाती है.
हालांकि स्थिति इससे अलग भी हो सकती थी. हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा गया था. उन चुनावों में भाजपा को हरा कर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें बनी थीं. ध्यान दिया जा सकता है कि कांग्रेस की यह जीत किसान आंदोलन के चलते हुई थी. 5 जून 2017 को मध्यप्रदेश के मंदसौर कस्बे में पुलिस की गोली से 6 किसानों की मौत हुई थी. उस घटना से स्वत:स्फूर्त किसान आंदोलन उठ खड़ा हुआ. आंदोलन के संचालन के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति का गठन हुआ. महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में चल रहे किसान आंदोलनों के साथ मंदसौर से उठा आंदोलन दिल्ली तक पहुंच गया. कांग्रेस की उस आंदोलन में कोई भूमिका नहीं थी. लेकिन वह तीन राज्यों में चुनाव जीत गई.
पांच राज्यों में भाजपा की पराजय के बाद स्वाभाविक रूप से यह होना चाहिए था कि किसान आंदोलन की उठान को मज़दूर आंदोलन, छात्र-युवा आंदोलन और छोटे-मझौले व्यापारियों के आंदोलन के साथ जोड़ कर लोकसभा चुनाव तक एक प्रभावी आंदोलन बनाए रखा जाता. मोदी सरकार की किसान-मजदूर-युवा-लघु उद्यमी विरोधी नीतियों का सच लगातार सामने रखा जाता. इसके साथ मोदी सरकार का अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने वाला नोटबंदी का फैसला, अभूतपूर्व महंगाई और बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था की विफलता, चहेते बिजनेस घरानों को धन लुटाना, आर्थिक अपराधियों को देश छोड़ कर भागने में मदद करना, राफेल विमान सौदे में घोटाला करना, सरकारी परिसंपत्तियों-संस्थाओं-संयंत्रो को निजी हाथों में बेचना, संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं का ध्वंस करना जैसे ठोस मुद्दों को चर्चा में बनाये रखा जाता. वैसा होने पर मोदी और भाजपा चाह कर भी भावनात्मक मुद्दों को उस तरह नहीं उछाल पाते जैसा अब कर रहे हैं. लेकिन विपक्ष अपनी पिच तैयार नहीं कर पाया. वह ज्यादातर मोदी की पिच पर ही खेलता रहा. कांग्रेस ने बाकायदा जाति और धर्म की राजनीति करने का फैसला करके आरएसएस/भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति को वैधता प्रदान कर दी.
विपक्ष ने लोकसभा चुनाव को लेकर परिपक्वता का परिचय नहीं दिया है. जबकि मोदी-शाह राज में साम्प्रदायिक फासीवाद चरम पर है; अमित शाह अगले 50 साल तक सत्ता पर काबिज रहने की घोषणा कर चुके हैं; और इस लोकसभा चुनाव के बाद देश में आगे कभी चुनाव नहीं होंगे जैसी धमकी एक भाजपा नेता की तरफ से आ चुकी है. आगे चुनाव नहीं होने की सूरत तभी बन सकती है, जब देश की जनता का चुनावों से विश्वास उठ जाए. आज की आरएसएस/भाजपा यह चाहेगी और उस दिशा में भरपूर प्रयास करेगी. लिहाज़ा, चुनावी प्रक्रिया को पवित्रता और गरिमा प्रदान करना विपक्ष की जिम्मेदारी बनती है. लेकिन कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्ष चुनाव को गंभीरता से लेने के बजाय चुनाव की ही गरिमा गिराने पर लगा है. टिकटों की खरीद-फरोख्त और अपराधियों से लेकर सेलेब्रेटियों तक को चुनाव में उतारने की कवायद चल रही है. जनता की नज़र से यह सब छुपा नहीं है. ज़ाहिर है, विपक्ष को जनता का विश्वास टूटने की कोई चिंता नहीं है.
थोड़ा बुद्धिजीवियों की भूमिका पर भी विचार करें. ऊपर जिस निबंध का उल्लेख किया गया है वह इन पंक्तियों के साथ समाप्त होता है : ‘देश के सभी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट, जो संविधान के आधारभूत मूल्यों – समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र – और संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण को लेकर चिंतित हैं, उन्हें राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण और स्वीकृति की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. भारत में अक्सर नेताओं ने बुद्धिजीवियों-कलाकारों को प्रेरणा देने का काम किया है. आज की जरूरत है कि बुद्धिजीवी, कलाकार और नागरिक समाज के सचेत नुमाइंदे नेताओं का मार्गदर्शन करें.’ फासीवाद आने की सबसे ज्यादा बात करने के बावजूद बुद्धिजीवी उसके मुकाबले के लिए विपक्षी एकता की दिशा में कोई सार्थक भूमिका नहीं निभा पाए. वे भाजपेतर सरकार में पद-पुरस्कार तो पाना चाहते हैं, लेकिन समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के हक़ में नेताओं की आलोचना नहीं करना चाहते. धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल साम्प्रदायिकता कहलाती है. ऐसे बुद्धिजीवी भी सामने आए जिन्होंने राहुल गांधी की धर्म और ब्राह्मणत्व की राजनीति को आरएसएस/भाजपा से अलग और अच्छे के लिए बताया. बाकी ज्यादातर बुद्धिजीवियों ने इस विषय पर चुप रहने में भलाई समझी. यह एक उदाहरण है. दरअसल, आरएसएस/भाजपा का हिंदू-राष्ट्र धर्मनिरपेक्षता के चोर बाज़ार में बनता है!
निष्कर्ष रूप में कहा सकता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में जनता के स्तर पर मोदी सरकार के प्रति पर्याप्त नाराजगी है, लेकिन विपक्ष और बौद्धिक वर्ग ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह पूरी तरह से नहीं किया है. जो भी हो, राजनीति की तरह चुनाव भी संभावनाओं का खेल है. इस चुनाव में यह देखना रोचक होगा कि कारपोरेट-साम्प्रदायिक गठजोड़ की सारी जकड़बंदी और उसमें मीडिया की सहभागिता के बावजूद मतदाता मौजूदा संविधान-विरोधी सरकार को उखाड़ फेंके. यह भी हो सकता है कि सरकार की पराजय का प्रतिफल कांग्रेस को न मिल कर तीसरी शक्ति को मिले. वैसी स्थिति में अगले पांच साल के लिए देश की सत्ता की बागडोर सम्हालने की ऐतिहासिक भूमिका के बारे में तीसरी शक्ति के नेताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए. अगर इस बार यह नहीं होता है तो 2024 के लोकसभा चुनाव में पूरी तयारी के साथ प्रयास करना चाहिए.
यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद से सीधे टकराने वाली राजनीति का काम बंद हो जाना चाहिए. वह समस्त बाधाओं के बावजूद चलते रहना चाहिए. बल्कि वह चलेगा ही, और एक दिन सफल भी होगा. जैसे स्वाधीनता का संघर्ष उपनिवेशवादियों के समस्त दमन और कुछ देशवासियों की समस्त दगाबाजियों के बावजूद अपरिहार्य रूप से चला और सफल हुआ.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष हैं.)