लोकसभा चुनाव 2019 : विपक्षी एकता के लिए एक नज़रिया
प्रेम सिंह
विपक्षी एकता के जटिल विषय पर चर्चा करने से पहले कुछ स्पष्ट तथ्यों को देख लेना मुनासिब होगा. पहला, पिछले करीब तीन दशकों से जारी नवउदारवादी नीतियों का कोई विपक्ष देश में नहीं है. न मुख्यधारा राजनैतिक पार्टियों के स्तर पर, न बौद्धिक वर्ग के स्तर पर. लिहाज़ा, देश के संसाधनों, श्रम और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों/प्रतिष्ठानों को कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचने का सिलसिला इसी तरह चलते रहना है; किसानों, असंगठित और संगठित क्षेत्र के मज़दूरों, कारीगरों, छोटे उद्यमियों, बेरोजगारों की जो बुरी हालत है, उसमें बदलाव की संभावना नहीं है; और आर्थिक विषमता की खाई इसी तरह बढ़ती जाएगी. नतीज़तन, समाज में तनाव, अलगाव, आत्महत्या, अपराध, अंधविश्वास, झूठ, फरेब जैसी प्रवृत्तियां जड़ जमाती जायेंगी. दूसरा, 2019 के लोकसभा चुनाव में वर्तमान सरकार की पराजय के बावजूद साम्प्रदायिक कट्टरता का उन्मूलन नहीं होगा. मौजूदा साम्प्रदायिक कट्टरता का चरित्र नवउदारवादी व्यवस्था के साथ गहराई से सम्बद्ध है. विपक्षी पार्टियाँ और सेक्युलर बुद्धिजीवी इस सच्चाई से आँख चुरा कर धर्मनिरपेक्षता बचाने की गुहार लगाते हैं. वे यह समझने को तैयार नहीं हैं कि संविधान के मूलभूत मूल्यों में से समाजवाद को त्याग देने के बाद धर्मनिरपेक्षता को नहीं बचाया जा सकता. बल्कि कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिक कट्टरता बढ़ती जायेगी और समाज पर उसका कहर ज्यादा तेज़ी से टूटेगा. तीसरा, संविधान और संस्थाओं का अवमूल्यन नहीं रुकेगा, क्योंकि यह संविधान और उस पर आधारित संस्थाएं कारपोरेट उपनिवेशवाद अथवा नवसाम्राज्यवाद के तहत नवउदारवादी भारत (जिसे कभी ‘शाइनिंग इंडिया’ और कभी ‘न्यू इंडिया’ कहा जाता है) बनाने के लिए तैयार नहीं किये गए थे. चौथा, व्यक्तिवाद, परिवारवाद, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, धन-बल, बाहु-बल आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों के सम्मिश्रण से बनी राजनीति देश में आगे भी बदस्तूर चलती रहेगी. चौथा, संसाधनों की बिकवाली और सार्वजनिक उद्यमों के विनिवेश की प्रक्रिया में राजनीतिक पार्टियों/नेताओं को जो अवैध और कानूनन चंदे के रूप में अकूत धन मिलता है, उसके बल पर राजनीति धन का खेल बनी रहेगी.
आशावादी इसे निराशावाद न समझें, यह हकीक़त है. इस हकीक़त के मद्देनज़र 2019 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता का अर्थ चुनावी एकता ही हो सकता है. यह एकता चुनाव-पूर्व होनीं चाहिए और उसे यथार्थवादी नज़रिए, यानी चुनावी जीत के नज़रिए से अंजाम देना चाहिए. मोदी-शाह ने लोकतंत्र को चुनाव जीतने की हविस में तब्दील कर दिया है. लोकतान्त्रिक मर्यादा उनके लिए कोई मायने नहीं रखती. मोदी-शाह के नेतृत्व में 2019 का लोकसभा चुनाव एक ऐसा मर्यादा विहीन घमासान होगा कि लोकतंत्र पनाह मांगता घूमेगा! विपक्ष को चुनावी दौड़ में मोदी-शाह की शिकार-वृत्ति का शिकार नहीं होना चाहिए. उस रास्ते पर जीत मोदी-शाह की ही होगी. विपक्ष को देश के संविधान का सम्मान और नागरिकों पर भरोसा करते हुए लोकतंत्र की मर्यादा के दायरे में चुनाव लड़ना चाहिए.
यह सही है कि चुनाव लोकतंत्र का सबसे अहम पक्ष है. लेकिन साथ में यह भी सही है कि लोकतंत्र है तो चुनाव हैं. लोकतंत्र चलता रहेगा तो नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद से लड़ने वाली राजनीति के लिए कुछ न कुछ संभावना बनी रहेगी. डॉ. लोहिया ने कहा है कि राजनीति बुराई से लड़ने का काम करती है. भारत के नेता और बुद्धिजीवी हालाँकि ऐसा नहीं मानते प्रतीत होते, लेकिन भारत की मौजूदा नवउदारवाद/नवसाम्राज्यवाद की मातहत राजनीति अपने आप में एक बुराई बन गई है. राजनीति स्थायी रूप से बुराई की वाहक बन कर न रह जाए, इसके लिए चुनावों में सरकारों का उलट-फेर होते रहना ज़रूरी है. यह लोकतंत्र के रहते ही संभव है. लिहाज़ा, विपक्षी पार्टियों की चुनावी एकता लोकतंत्र के सार्थक बने रहने की दिशा में बड़ी भूमिका निभा सकती है.
भाजपा के साथ एनडीए में छोटे-बड़े 35 से ऊपर दल शामिल हैं. लोकसभा चुनावों में एक साल से कम समय रह गया है. चुनावों तक इस गठबंधन में टूट-फूट की संभावना कम ही लगती है. लोकजन शक्ति पार्टी, अपना दल, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी आदि का जो असंतोष दिखाई देता है, वह सरकार की नीतियों या असफलता को लेकर नहीं, 2019 में ज्यादा से ज्यादा सीटें पाने के लिए है. मोदी-शाह यह अच्छी तरह समझते हैं.
इधर विपक्ष की फुटकर गठबंधनों की रणनीति से कुछ संसदीय और विधानसभा सीटों पर भाजपा को हराया गया है. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में यह फुटकर गठबंधन की रणनीति कारगर नहीं हो सकती. राष्ट्रीय स्तर का चुनाव राष्ट्रीय स्तर की रणनीति से लड़ा जाना चाहिए. उसके लिए राष्ट्रीय समझ पर आधारित राष्ट्रीय स्तर का गठबंधन जरूरी है. सवाल है कि एनडीए के बरक्स बनने वाला बाकी दलों का गठबंधन कांग्रेस के साथ बने या कांग्रेस से अलग. नेताओं और बुद्धिजीवियों की तरफ से दोनों तरह के विचार और प्रयास सामने आ रहे हैं. यहाँ विचारणीय है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों दो-दलीय संसदीय लोकतंत्र के पक्ष में हैं. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण अडवाणी कह चुके हैं कि देश में दो ही पार्टियां होनी चाहिए. बाकी दलों को इन्हीं दो पार्टियों में विलय कर लेना चाहिए. भाजपा अमेरिका के पैटर्न पर अध्यक्षीय प्रणाली के भी पक्ष में है. दरअसल, कारपोरेट पॉलिटिक्स की यही ज़रुरत है कि भारत में अमेरिका की तरह केवल दो पार्टियां हों.
ऐसी स्थिति में कांग्रेस से अलग गठबंधन बनेगा तो बहु-दलीय संसदीय लोकतंत्र की संविधान-सम्मत प्रणाली को वैधता और मज़बूती मिलेगी. संविधान भारतीय राज्य के संघीय ढाँचे को स्वीकृति देता है. लेकिन आज़ादी के बाद से ही केंदवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता रहा है, जिसे वर्तमान सरकार ने चरम पर पहुंचा दिया है. राज्य के संघीय ढाँचे का सत्ता, संसाधन और गवर्नेंस के विकेंद्रीकरण से अविभाज्य संबंध है. भाजपा और कांग्रेस से अलग चुनाव-पूर्व गठबंधन बनने पर संघीय ढांचे और विकेंद्रीकरण का थोड़ा-बहुत बचाव ज़रूर होगा. प्रधानमंत्री मोदी कितना भी कांग्रेस-मुक्त भारत की बात करते हों, वे कांग्रेस को ही अपना विपक्ष मानते हैं. इसका मायना है कि वे कंग्रेसेतर विपक्ष की अवधारणा को ख़त्म कर देना चाहते हैं. यह कांग्रेस के भी हित में है कि 2019 नहीं तो 2024 में मतदाता उसे बहुमत से जिताएं, ताकि राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री बनने में कोई बाधा न रहे.
कांग्रेस पिछले चार सालों में किसान-मज़दूरों-बेरोजगारों के हक़ की बात छोडिये, गहरे संकट में पड़ी देश की सबसे बड़ी अकलियत के बचाव में एक बार भी सड़क पर नहीं उतरी है. इसका मुख्य कारण उसका सत्ता-भोगी चरित्र है. लेकिन यह रणनीति भी है. कांग्रेस शायद चाहती है कि मुसलमान इतना डर जाएं कि भविष्य में आँख बंद करके केवल कांग्रेस को वोट दें. दलित और पिछड़े समुदायों के राजनीतिकरण के बाद कांग्रेस की एकमुश्त वोट बैंक के रूप में मुलसमानों पर ही नज़र है. कांग्रेस से छिटकने के बाद मुसलमानों का ज्यादातर वोट राजनीति की तीसरी ताकत कही जाने वाली पार्टियों को मिलता है.
मोदी की जुमलेबाजी लोगों को हमेशा बेवकूफ नहीं बनाये रख सकती. न ही येन-केन प्रकारेण चुनाव जीतने और सरकार बनाने की शाह की ‘चाणक्य-नीति’ हमेशा कारगर बनी रह सकती है. मोदी ने सरकार को कारपोरेट घरानों के मुनाफे का औज़ार बना दिया है. यह सबसे अमीर आदमी को सबसे पहले फायदा पहुँचाने वाली सरकार बन गई गई है. सरकार की इस अंधेरगर्दी से तबाह किसान-मज़दूर-कारीगर-उद्यमी-बेरोजगार आज नहीं तो कल भाजपा के खिलाफ वोट डालेंगे. कारपोरेट घरानों का धन और खरीदा हुआ मीडिया उसकी सत्ता नहीं बचा पाएंगे. कांग्रेस उसी घड़ी के इंतजार में बैठी लगती है. अगर राजनीति की तीसरी कही जाने वाली शक्ति की अवधारणा राष्ट्रीय स्तर पर ख़त्म हो जाती है, तो वह वोट कांग्रेस को ही मिलेगा. और कांग्रेस के पांच या दस साल राज करने के बाद फिर से भाजपा को. अगर कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर केंद्र में सरकार बन भी जाती है, तो कांग्रेस उसे कार्यकाल पूरा नहीं करने देगी. मध्यावधि चुनाव होने की स्थिति में फिर मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच होगा.
कांग्रेस से अलग राष्ट्रीय मोर्चा बनाने का अर्थ एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस का विरोध नहीं है. कांग्रेस अपने में समर्थ पार्टी है. उसका संगठन राष्ट्रीय स्तर पर है. पिछले लोकसभा चुनाव में करारी पराजय के बाद भी संसद में भाजपा के बाद उसका दूसरा स्थान है. जिन राज्यों में उसकी मज़बूती है, वहां वह पूरी ताकत से चुनाव लड़े. अगर राष्ट्रीय मोर्चा को चुनावों में पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाता है, तो कांग्रेस बाहर से राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को समर्थन दे सकती है. हालाँकि वैसी स्थति में एनडीए के कुछ घटक दल भी भाजपा का साथ छोड़ कर राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के साथ जुड़ सकते हैं.
भाजपा और कांग्रेस से इतर गबंधन को सामाजिक न्यायवादी राष्ट्रीय मोर्चा (नेशनल फ्रंट फॉर सोशल जस्टिस) नाम दिया जा सकता है. इसमें कम्युनिस्ट पार्टियों सहित वे सभी दल शामिल हो सकते हैं जो भाजपा और कांग्रेस के साथ मिल कर लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहते. राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण का काम बिना देरी किये शुरू किया जाना चाहिए. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक संयोजन समिति, जिसका एक संयोजक हो, बनाने से सहूलियत होगी. संयोजक के पद के लिए एक नाम शरद यादव का हो सकता है. प्रस्तावित मोर्चा के चार-पांच प्रवक्ता बनाए जाएं जो सीधे और मीडिया की मार्फत मोर्चा के स्वरूप, नीतियों और प्रगति पर लगातार रोशनी डालें. एक समिति चुनाव प्रचार की रणनीति और चुनाव सामग्री तैयार करने के लिए बनाई जाये.
राष्ट्रीय मोर्चा में छोटे विचारधारात्मक दलों की भूमिका का भी सवाल महत्वपूर्ण है. उनके सहयोग का रास्ता निकाला जाना चाहिए. बेहतर होगा कि विचाधाराहीनता (संविधान की विचारधारा सहित) की वकालत करने वाले दलों और व्यक्तियों को राष्ट्रीय मोर्चा से अलग रखा जाए. क्योंकि वे सीधे नवउदारवादी विचारधारा की पैदाइश, लिहाज़ा, समर्थक होते हैं. राजनीतिक समझदारी से काम करने वाले नागरिक संगठनों और व्यक्तियों को भी राष्ट्रीय मोर्चा से जोड़ने का काम होना चाहिए. इनमें कल-कारखानों, खदानों, कृषि, वाणिज्य-व्यापार, साहित्य, कला, अध्ययन, खेल आदि से जुड़े संगठन और व्यक्ति हो सकते हैं. राजनीतिक रूचि रखने वाले अप्रवासी भारतीयों, जो देश के बिगड़ते हालत पर चिंतित हैं, को भी राष्ट्रीय मोर्चा से जोड़ा जा सकता है. ऐसा प्रयास होने से देश में व्यापक सहमती का माहौल बनेगा और राष्ट्रीय मोर्चा भविष्य की राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा.
राष्ट्रीय मोर्चा की जीत की संभावनाएं बढ़ सकती हैं, यदि साझा न्यूनतम कार्यक्रम इस वायदे के साथ बनाया जाए कि नई सरकार किसानों, मज़दूरों, छोटे-मंझोले व्यापारियों/उद्यमियों, बेरोजगारों के पक्ष में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की समीक्षा करेगी. भाजपा और कांग्रेस यह वादा नहीं कर सकतीं. इसके अलावा, राष्ट्रीय मोर्चा का नेतृत्व अपने सामाजिक आधार के चलते विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच आदि के आदेशों को कांग्रेस और भाजपा जैसी तत्परता और तेज़ी से लागू नहीं कर सकता. ऐसा होने से कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट में कुछ न कुछ कमी आएगी. राष्ट्रीय मोर्चा की जीत से सरकारों द्वारा संविधान में उल्लिखित ‘राज्य के नीति निर्देशक तत्वों’ के अनुसार आर्थिक नीतियां बनाने की पुनर्संभावना को बल मिलेगा.
राष्ट्रीय मोर्चा के प्रधान नेता, जो प्रधानमंत्री का उम्मीदवार भी हो, का फैसला बहुत जटिल काम है. लेकिन 2019 का चुनाव जीतने के लिए विपक्षी नेताओं को यह फैसला समझदारी से करना ही होगा. मैंने 2014 के लोकसभा चुनाव के अवसर पर ‘तीसरे मोर्चे की प्रासंगिकता’ शीर्षक लेख लिखा था. उसमें कांग्रेस और भाजपा से अलग राजनीतिक दलों के चुनाव-पूर्व गठबंधन बनाने की वकालत की थी. गठबंधन के नेता के रूप में एक नाम सीपीआई के वरिष्ठ नेता एबी बर्धन का सुझाया था. उस समय चुनाव के बाद गठबंधन बनाने का आग्रह लेकर चलने वाले नेताओं की वजह से तीसरे मोर्चे का निर्माण नहीं हो पाया.
भाजपा और कांग्रेस से अलग विपक्षी गठबंधन की नेता के रूप में ममता बनर्जी और मायावती के नामों की चर्चा होती है. ममता बनर्जी साधारण पृष्ठभूमि से आती हैं. हालांकि कांग्रेस में रहते हुए उन्हें एक सत्तारूढ़ और साधन-संपन्न राजनीतिक पार्टी का आधार मिला हुआ था. लेकिन कांग्रेस से अलग होने के बाद उन्होंने कड़ी मेहनत से तृणमूल कांग्रेस को खड़ा किया. उन्होंने संघर्ष करके अपनी राजनीतिक हैसियत हासिल की है. उसीके चलते वे लगातार दूसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं. उनकी सरकार किसी अन्य दल पर निर्भर नहीं है. हाल के पंचायत चुनावों से पता चलता है कि मतदाताओं पर उनकी मज़बूत पकड़ बनी हुई है. बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की सुप्रीमो मायावती दलित समाज से आती हैं. आज की राजनीति में वे अकेली सेल्फ-मेड नेता हैं. उनकी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्ज़ा हासिल है. ज्यादातर प्रांतों में उनकी पार्टी की इकाइयां हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में मायावती को तीसरे मोर्चे का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने की बात की गई थी. मायावती के नेतृत्व में बनने वाली सरकार की राजनीतिक अर्थव्यवस्था (पोलिटिकल इकॉनमी) नवउदारवादी अर्थव्यवस्था से कुछ न कुछ अलग हो सकती है. वे फिलहाल विधायक या सांसद नहीं हैं. लिहाज़ा, राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण और चुनावों की तैयारी में अभी से पूरा समय दे सकती हैं.
यहाँ उपर्युक्त दो नाम इसलिए विचारार्थ रखे गए हैं क्योंकि इन दो नेताओं के अलावा अभी अन्य किसी नेता का नाम फिलहाल चर्चा में नहीं है. एम. करूणानिधि की उम्र करीब 95 साल हो गई है. मुलायम सिंह की उम्र 78 साल है, लेकिन उनका स्वास्थ्य ऐसा नहीं है कि वे राष्ट्रीय मोर्चा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हो सकें. अलबत्ता, सलाहकार की भूमिका वे बखूबी निभा सकते हैं. वे उत्तर प्रदेश के बाहर चुनाव प्रचार के लिए निकालें तो बड़ी उपलब्धि होगी. नीतीश कुमार का नाम पहले काफी चलता था, लेकिन वे महागठबंधन को तोड़ कर भाजपा के साथ जा चुके हैं. वे अब लौटें भी तो उनकी साख नहीं बन पाएगी. चंद्रबाबू नायडू हाल में एनडीए से निकले हैं. उनका भरोसा नहीं है कि वे वापस एनडीए में नहीं लौट जायेंगे. नवीन पटनायक चौथी बार उड़ीसा के मुख्यमंत्री हैं. 2009 में उन्होंने भाजपा नीत एनडीए छोड़ कर वामपंथी पार्टियों के साथ गठजोड़ किया था. वे मुखर नेता नहीं हैं और उड़ीसा के बाहर ज्यादा नहीं निकलते. 2019 के लोकसभा चुनावों को लेकर जो राजनीतिक गहमा-गहमी है, उसमें वे अभी शामिल नहीं हैं. हाल में कर्णाटक में कांग्रेस के समर्थन से बनी जनता दल (एस) की सरकार के शपथ-ग्रहण कार्यक्रम में भी वे नहीं थे. अभी तक वे अप्रतिबद्ध (नॉन कमीटल) हैं. वे राष्ट्रीय मोर्चा में रहें, इसकी कोशिश की जानी चाहिए. कहने की ज़रुरत नहीं कि भाजपा और कांग्रेस से अलग गठबंधन के नेता के रूप में जिस नाम पर सहमति बनती है उसे अपनी सोच का धरातल ऊंचा उठाना होगा.
पूर्व वाणिज्य और वित्त सचिव एसपी शुक्ला ने नई आर्थिक नीतियों के दुष्परिणामों पर शुरूआती दौर में ही गंभीर विचार और प्रतिरोध किया था. विपक्षी एकता के सवाल पर उनके साथ हाल में पूना में चर्चा हुई. मैंने उनके सामने ममता अथवा मायावती के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा बनाने का विचार रखा. उन्होंने कहा यदि ममता अथवा/और मायावती के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ा जाता है, तो यह राजनीति में 1989 में हुए सबाल्टर्न प्रवेश के बाद जेंडर प्रवेश का अगला चरण होगा. देश के सभी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट, जो संविधान के आधारभूत मूल्यों – समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र – और संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण को लेकर चिंतित हैं, उन्हें राष्ट्रीय मोर्चा के निर्माण और स्वीकृति की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. भारत में अक्सर नेताओं ने बुद्धिजीवियों-कलाकारों को प्रेरणा देने का काम किया है. आज की जरूरत है कि बुद्धिजीवी, कलाकार और नागरिक समाज के सचेत नुमाइंदे नेताओं का मार्गदर्शन करें.