भारत में उच्च षिक्षा की दयनीय स्थिति
किसी भी देष में उच्च षिक्षा की नींव विद्यालयी स्तर की षिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ती है। हमारे देष में 1968 के कोठरी आयोग की समान षिक्षा प्रणाली की सिफारिष को नजरअंदाज कर धीरे धीरे, खासकर निजीकरण, उदारीकरण व वैष्वीकरण की नई आर्थिक नीति के लागू होने के बाद से जो प्रकिया ज्यादा तेज हुई, दोहरी षिक्षा व्यवस्था लागू हो गई है। पैसे वालों के बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं तो गरीब के बच्चे सरकारी विद्यालयों में जहां पढ़ाई के नाम पर धोखा है। भारत ने सरकारी प्राथमिक, माध्यमिक, हाई स्कूल व इण्टरमीडिएट स्तर की षिक्षा को नजरअंदाज किया है। सरकारी विद्यालय में पढ़ने वाले बहुत भाग्यषाली माने जाएंगे यदि वे अपनी पढ़ाई पूरी कर पाएं। ये बच्चे उच्च षिक्षा प्राप्त करने के लिए भटकते हैं। चूंकि सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई होती नहीं इसलिए नकल कराकर परीक्षाएं उत्तीर्ण कराने की सुविधा ने व्यवस्थागत रूप धारण कर लिया है। पिछले शैक्षणिक सत्र में तो तब हद हो गई जब बिहार में सर्वश्रेष्ठ अंक पाने वाले रूबी राय, सौरभ श्रेष्ठ, राहुल कुमार व शलिनी राय भी फर्जी पाए गए। नकल कराने वाले लल्केष्वर प्रसाद, बिहार राज्य षिक्षा परिषद के अध्यक्ष व उनकी विधायक पत्नी ऊषा सिन्हा दोनों ही गिरफ्तार किए गए। जहां ज्यादातर बच्चे इसी तरह रु. 5,000 देकर नकल कर या रु. 10,000 देने पर किसी अन्य द्वारा परीक्षा दिए जाने की सुविधा का इस्तेमाल कर परीक्षा उत्तीर्ण कर रहे हों वहां उच्च षिक्षा की क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना की जा सकती है?
भारत में लगभग दस प्रतिषत बच्चे ही विद्यालय स्तर की षिक्षा पूरी कर महाविद्यालय या विष्वविद्यालय में प्रवेष पाते हैं। निजी विद्यालयों में षिक्षा प्राप्त किए छात्र और उनके अभिभावक चाहते हैं कि बच्चे उच्च षिक्षा हेतु जवाहरलाल नेहरू विष्वविद्यालय, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, आखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान या राष्ट्रीय विधि विष्वविद्यालय जैसे सरकारी संस्थानों में दाखिला पाएं। उच्च षिक्षा के गुणवत्तापूर्ण संस्थान जो ज्यादातर सरकारी क्षेत्र में हैं का इस्तेमाल निजी विद्यालयों से पढ़कर आए बच्चे अपना कैरियर बनाने के लिए करते हैं। वे भारतीय प्रषासनिक सेवा में जाते हैं, और आगे की उच्च षिक्षा या शोध के लिए विदेष जाते हैं अथवा भारतीय प्रबंधन संस्थान से षिक्षा प्राप्त कर अपना कोई व्यवसाय षुरू करते हैं।
भारत एक अजीब देष है जो अपने षिक्षा के बजट में बेसिक षिक्षा क्षेत्र के लिए सबसे कम पैसा आवंटित करता है और उच्च षिक्षा के लिए सबसे ज्यादा। शायद ऐसा शासक वर्ग की प्राथमिकताओं से स्वतः तय हो गया है। चूंकि उनके बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं उन्हें प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की गुणवत्ता से कोई मतलब नहीं। लेकिन उनके खुद के बच्चे सरकारी उच्च षैक्षणिक संस्थानों में पढ़ते हैं इसलिए इस पर वे सबसे ज्यादा पैसा खर्च करते हैं।
इस तरह ज्यादातर गरीब के बच्चे उच्च षैक्षणिक संस्थानों का मंुह तक नहीं देख पाते। उच्च षिक्षा का लाभ शासक वर्ग या सम्पन्न वर्ग के बच्चे ही उठा पाते हैं। नवोदय विद्यालय जैसे अच्छे सरकारी विद्यालयों की पृष्ठभूमि से आने वाले कुछ बच्चे जरूर अपनी मेहनत से अच्छी गुणवत्ता वाले उच्च षैक्षणिक संस्थान में दाखिला पा जाते हैं। कुछ कमजोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चे आरक्षण का लाभ पाकर भी अच्छे उच्च षैक्षणिक संस्थानों में प्रवेष पा लेते हैं। किंतु उच्च षैक्षणिक संस्थानों में पहुंच कर उन्हें नया संघर्ष झेलना पड़ता है चूंकि वहां पढ़ाई लिखाई का माध्यम कई बार अंग्रेजी होता है और उनकी विद्यालयी स्तर की पढ़ाई अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा में हुई होती है। हाल ही के एक शोध में पाया गया है कि अनुसूचित जाति या जनजाति पृष्ठभूमि से आए बच्चे, जो अंग्रेजी की जानकारी के अभाव में दोहरी चुनौती का सामना करते हैं, भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान, काषी हिन्दू विष्वविद्यालय, वाराणसी में सामान्य वर्ग के बच्चों से कुछ पीछे रह जाते हैं।
निजी विद्यालयों में पढ़े बच्चों के लिए हमेषा अच्छे अंक लाना ही प्राथमिकता रहती है इसलिए भी वे प्रतिस्पर्धा में आगे रहते हैं। किंतु इस प्रतिस्पर्धा की भावना के चलते षिक्षा के असली उद्देष्य से वे दूर रहते हैं। एक संवेदनषील इंसान और जिम्मेदार नागरिक बनना जो आस-पास के इंसानों और पर्यावरण का ख्याल रखे उनकी प्राथमिकता नहीं होती। न ही वे समाज का गहरा अध्ययन कर अपने ज्ञान का उपयोग मानव हित में कर पाते हैं या मानव सभ्यता की प्रगति के लिए अध्ययन, चिंतन व शोध उनका उद्देष्य नहीं होता। किसी तरह षिक्षा पूरी कर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ना उनकी प्राथमिकता होती है। जिस तरह तिकड़म से पढ़ाई पूरी होती है, नकल कर परीक्षा उत्तीर्ण होती है उसी तरह सिफारिष से या घूस देकर नौकरी भी प्राप्त करने के रास्ते बने हुए हैं।
भारतीय उच्च षैक्षणिक संस्थानों में से कुछ उंगली पर गिने जा सकने वालों को छोड़ दिया जाए जो अधिकांष षैक्षणिक संस्थान कहलाने लायक नहीं हैं। ये राजनीति के अड्डे बने हुए हैं जिनपर शासक वर्ग और उसमें भी सवर्ण जाति के लोगों का कब्जा है जो वंचित समाज के प्रतिनिधियों के लिए दरवाजे बड़ी मुष्किल से खोलते हैं। ये तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने में डूबा हुआ है। इसे देष-समाज से कोई मतलब नहीं है।
कोई आष्चर्य की बात नहीं कि हमारे उच्च षैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता, खासकर विष्व के अन्य देषों की तुलना में, काफी नीचे है। 2016 में हुए एक विष्व आर्थिक मंच के सर्वेक्षण में 138 देषों में भारतीय उच्च षैक्षणिक संस्थानों का स्थान 81 वां था। एक अन्य सर्वेक्षण में मानव पूंजी मानक, जिसमें मनुष्य की शारीरिक, मानसिक क्षमताओं का आंकलन शामिल है, के दृष्टिकोण से करीब 140 देषों में हमारा स्थान 105 वां है। एक ऐसा देष जहां विष्व में उच्च षिक्षा की नींव पड़ी हो, क्योंकि यूरोप में पहला विष्वविद्यालय स्थापित होने के 500 वर्ष पहले ही नालंदा एवं तक्षषिला विष्वविद्यालय अस्तित्व में आ चुके थे जहां दूर-दूर से लोग अध्ययन करने आते थे, उच्च षिक्षा की ऐसी दयनीय स्थिति शर्मनाक है। हमारे यहां उच्च षिक्षा एक धोखा है जहां पैसा देकर मान्यता हासिल की जा सकती है। जिस देष के पास इतनी बड़ी संख्या में वैज्ञानिक एवं अभियंता हो वह अपनी जरूरत की सारी उच्च प्रौद्योगिकी आयात करता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय अच्छे शोधकर्ता नहीं होते। विदेषी शैक्षणिक संस्थानों में जाकर वे बहुत अच्छा काम करते हैं। किंतु इस देष के संस्थानों में वे असफल रहते हैं इसलिए भारत के लिए उनकी क्षमता का कोई उपयोग नहीं हो पाता। आजादी के बाद से एक भी भारतीय शैक्षणिक संस्थानों में काम करने वाले शोधकर्ता को नोबेल पुरस्कार नहीं मिल पाया है।
लेखकः संदीप पाण्डेय
उपाध्यक्ष, सोषलिस्ट पार्टी (इण्डिया)
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फोनः 0522 2347365, मो. 9415269790 (प्रवीण श्रीवास्तव)