भाजपा की दमनकारी नीति
भारतीय जनता पार्टी या उसका प्रेरणा स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लोकतंत्र में कोई खास विश्वास नहीं है। इसलिए वे अपने खिलाफ किसी भी विरोध को कुचलने की कोशिश करते हैं। विरोधियों के साथ वार्ता, जो लोकतंत्र का प्रचलित तरीका है में उन्हें विश्वास नहीं। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नहीं मानते और न ही लोकतंत्र में लोगों के अहमति प्रकट के किसी अधिकार को। दूसरे लोगों द्वारा की जा रही हिंसा को तो वे तुरंत कुचलने की कोशिश करते हैं लेकिन अपने लोगों द्वारा की गई हिंसा को नजरअंदाज कर देते हैं।
जुलाई 2016 से कश्मीर में बौछार वाले छर्रे की बंदूकों से सौ से ऊपर लोगों की जानें गईं और एक हजार के करीब घायल हुए। ऐसा लग ही नहीं रहा था सरकार कश्मीर के लोगों को इसी देश का नागरिक मानती है। उनके साथ दुश्मनों या सौतेलों जैसा व्यवहार किया गया।
21 अप्रैल, 2017 को सहारनपुर के भाजपा के सांसद राघव लखनपाल शर्मा ने प्रशासन की अनुमति बगैर अम्बेडकर जयंती का जुलूस एक मुस्लिम इलाके से निकालने की कोशिश की। जब पुलिस द्वारा उनको रोका गया तो उन्होंने अपने समर्थकों के साथ जिसमें दो विधायक भी शामिल थे वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के घर पर ही हमला कर दिया। राघव लखनपाल शर्मा के खिलाफ कोई कार्यवही नहीं हुई। वरिष्ठ पुलिए अधीक्षक हटा दिए गए।
5 मई को सहारनपुर जिले के ही शब्बीरपुर गांव में जब दलितों ने ठाकुरों द्वारा महाराणा प्रताप की जयंती पर निकाले गए जुलूस में तेज आवाज में बजाए जा रहे संगीत पर आपत्ति की तो झगड़ा हुआ। एक ठाकुर युवा की दम घुटने से मौत हुई तो ठाकुरों ने दलितों के 60 घर जला दिए। भीम आर्मी नामक संगठन ने इस घटना के विरोध में प्रर्शन किया जिसमें सरकारी सम्पत्ति को काफी नुकसान पहुंचा। भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर को कुछ दिनों बाद गिरफ्तार कर लिया गया।
अब प्रशासन इस प्रयास में जुटा है दोनों तरफ की गल्ती साबित की जाए। दोनांे मामलों में मुसलमानों और दलितों को भी आरोपी बनाया जा रहा है जबकि उकसाने का काम किसने किया यह स्पष्ट है। जाहिर है कि जब कहीं ज्यादती होगी तो उसकी प्रतिक्रिया भी होगी। लेकिन असल में मामला कितना एक तरफा था इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि ठाकुर ही दलित के घर सामूहिक रूप से जला सकते थे, दलित इस तरह की कार्यवाही ठाकुरों के खिलाफ नहीं कर सकते। ठाकुरों की बड़ी गल्ती को छोटा करके दिखाया जा रहा है और दलितों की छोटी गल्ती को बड़ा करके। सांसद राघव लखनपाल को तो ऐसे छोड़ दिया गया मानों कुछ हुआ ही न हो।
सवाल यह उठता है कि शासन या भाजपा ने अपने सांसद के खिलाफ कोई कार्यवाही कर स्पष्ट संकेत क्यों नहीं दिया कि किसी भी किस्म की हिंसा बर्दाश्त नहीं की जाएगी? किंतु यह बार-बार देखने में आ रहा है कि हिंदूवादी संगठन गौ-रक्षा या किसी नाम पर हिंसा करते हैं और पुलिस-प्रशासन मौन रहता है जैसा 1 अप्रैल को पहलू खान के साथ अलवर में हुआ। यदि कोई अन्य सरकार का विरोध करता है तो उसके साथ प्रशासन ज्यादती पर उतर आता है।
6 जून, 2017 को मध्य प्रदेश में न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग कर रहे किसानों पर पुलिस ने मण्डसौर में गोली चलाई जिसमें पांच किसानों की मौत हो गई। बाद में एक व्यक्ति और मारा गया।
विरोध 7 जून, 2017 को लखनऊ विश्वविद्यालय के 11 छात्रों को जिन्होंने मुख्यमंत्री की कार रोककर काले झण्डे दिखाए को जेल भेज दिया गया है। क्या लोकतंत्र में विरोध करने का अधिकार जनता से छीन लिया गया है? लोकतंत्र में अपेक्षा की जाती है कि आप अपनी विरोधी आवाज को भी सुनेंगे और उस पर गौर करेंगे। क्या मुख्यमंत्री अपना विरोध कर रहे छात्रों को वार्ता के लिए नहीं बुला सकते थे? उ.प्र. में गाड़ियों से लाल बत्ती हटा कर यह संदेश देने की कोशिश की गई कि अति विशिष्ट व्यक्ति की संस्कृति खत्म की जा रही है। किंतु यदि मुख्यमंत्री की गाड़ी रोकने की सजा जेल है तो कैसे कहा जा सकता है कि अति विशिष्ट व्यक्ति की संस्कृति समाप्त हो गई है। लाल बत्ती भले ही न हो लेकिन उसका खौफ तो है ही।
9 जून, 2017 को वाराणसी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बाहर विश्वविद्यालय की दिवार से सटे जो ठेला-पटरी व्यवसायी थे उन्हें पुलिस ने जबरिया हटा कर 18 दुकानदारों को विरोध करने पर गिरफ्तार कर लिया। जब विश्वविद्यालय के छात्रों ने इसका विरोध किया तो 8 छात्रों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। जमानत के लिए मजिस्ट्रेट ने पचास लाख रुपए की मांग कर तो हद ही कर दी। क्या अपनी आजीविका के स्रोत का बचाव करना इतना बड़ा जुर्म है? प्रत्येक ठेले वाले को पुलिस के अत्याचार की वजह से करीब बीस हजार रुपए का नुकसान हुआ। ठेला दुकानदारों की बड़ी चिंता यह है कि अब जब जेल से जमानत पर छूटेंगे तो कमाएंगे कैसे? ठेले लगाने की जगह तो चली गई। एक चाय बेचने वाले की सरकार ने कई चाय व अन्य खाने पीने का समान बेचने वालों से अपने ही चुनाव क्षेत्र में ही बड़े ही निर्मम तरीके से उनकी आजीविका छीनी है।
ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा सरकारों ने अपना विरोध करने वाल हरेक व्यक्ति का दमन करने का फैसला लिया है। वे उनका नजरिया समझना भी नहीं चाहते। उन्हें लगता है कि जो भी उनका विरोध कर रहा है वह राष्ट्रद्रोही है। उनका राष्ट्रवाद का नजरिया इतना संकीर्ण है कि एक बड़ा वर्ग उनकी परिभाषा के मुताबिक बाहरी हो गया है। रा.स्वं.सं. के लोग अपनी सोच के आगे और किसी सोच को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते। इसी को फासीवाद कहते हैं। फासीवाद में हिंसा होना अनिवार्य है क्योंकि विरोधी को समझाने की कोई प्रक्रिया ही नहीं होती। उसे सीधे खत्म करने की बात होती है।
लेखकः संदीप पाण्डेय
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