बाज़ार की गली में गांधी-अम्बेडकर पर बहस
प्रेम सिंह
सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता दिल्ली और एनसीआर में सदस्यता अभियान और आगामी 9 अगस्त की ‘शिक्षा और रोजगार दो, वर्ना गद्दी छोड़ दो’ रैली के परचे बांट रहे हैं. हम अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीति विज्ञापन का खेल बन चुकी है, जिसमें जनता की गाढ़ी कमाई का लूटा गया अकूत धन सरकारी और प्राइवेट स्रोतों से पानी की तरह बहाया जाता है. चाहे वह सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की, भारी तामझाम से भरी आज की राजनीति में खुद परचे बांटना और लोगों से चर्चा करना एक अर्थहीन और निराशा भरी कवायद है. आने-जाने वाले ज्यादातर लोग परचा पकड़ते ही नहीं. जो पकड़ते हैं, दो कदम आगे जाकर फेंक देते हैं. सस्ते कागज़ पर परचे का लाल रंग भी लोगों की उपेक्षा का कारण बनता है.
दुकानों पर बहुत कम लोगों की चर्चा करने में रूचि होती है. विचारहीनता का आलम इस कदर है कि अब पुराने और छोटे बाजारों में भी समाजवादी विचारधारा की जानकारी और उसके प्रति सहानुभूति रखने वाले लोग नहीं मिलते. अगर आपका चर्चा टीवी, रंगारंग पोस्टरों, बैनरों, होर्डिंगों पर नहीं है, तो आपकी राजनीति में लोगों की रूचि नहीं है. नवउदारवाद के प्रकट या प्रच्छन्न समर्थकों/भागीदारों ने ऐसे अराजनीतिक वातावरण का निर्माण किया है, समाजवाद छोड़िये, संविधान की विचारधारा की बात करना भी लगभग असंभव हो गया है. अन्ना आंदोलन के कर्ताओं और समर्थकों को विचारधारा-विहीनता को राजनीति का ‘गुण’ स्थापित करने में काफी हद तक सफलता मिल चुकी है. मार्केट से अलग पार्कों में परचा बांटने की समस्या अलग होती है. वहां क्लर्क से सेक्शन अफसर बन कर रिटायर होने वाले लोगों का बोलबाला होता है. उनकी सबसे प्रबल इच्छा युवा कार्यकर्ताओं से यह जानने की होती है कि उन्हें परचा बांटने का कितना पैसा दिया गया है? उनमें से ज्यादातर ने तनख्वा पर नहीं, ऊपर की कमाई पर सरकारी सेवा की होती है.
जो भी हो. परचा बांटने के दौरान होने वाले खट्टे-मीठे अनुभवों का अपना महत्व है. लोगों के मन में क्या चल रहा है, कई बार इसकी सीधी जानकारी मिलती है. एक अनुभव का यहां ज़िक्र करते हैं. 17 जुलाई 2018 शाम हम कुछ साथी जमनापार लक्ष्मी नगर के बाज़ार में परचा बांटते हुए लोगों से बातचीत कर रहे थे. मंजू मोहन जी भी हमारे साथ थीं. महिला साथ रहने पर एक सुभीता यह होता है कि महिलाओं को भी परचा दिया जा सकता है. यदि कोई महिला दुकानदार है तो उसके साथ बात-चीत का अवसर भी बन जाता है. पुरुष दुकानदार कुछ लिहाज़ से बात करते हैं. उस दिन मंजू जी मेन बाज़ार के अंदर की एक गली में मोबाइल और एसेसरीज की छोटी-सी दुकान में घुस गयीं. दुकानदार के साथ उनकी चर्चा होते देख हम तीन-चार साथी भी अंदर चले गए. दुकानदार का करीब 30 साल का एक परिचित युवक भी वहां बैठा था. दुकानदार की उम्र 50 साल के ऊपर होगी.
सोशलिस्ट पार्टी के हर परचे पर एक स्कैच-चित्र छपा होता है, जिसमें गांधी और अम्बेडकर के बीच कुछ समाजवादी नेताओं के स्कैच हैं. दुकानदार के परिचित ने परचा डेस्क पर पटकते हुए तंज कसा कि हमने दो सड़े हुए लोगों की तस्वीर परचे पर छापी हुई है. मैंने मतलब पूछा तो उसने कहा, ‘एक ने देश को पकिस्तान का उपहार देकर नाश किया और दूसरे ने आरक्षण देकर सब बर्बाद कर दिया’. इस दुत्कार के बाद भी हम टले नहीं. बहस छिड़ गई. दुकानदार भी अपने साथी के पक्ष में बहस में शामिल हो गया. सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता अपने पक्ष से राजनैतिक तर्क करने लगे. बहस गाँधी जी पर नहीं जम पाई. युवक ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि गांधी को उनकी करतूत के लिए ठीक ही ठिकाने लगा दिया गया. उसकी बात सुन कर मुझे फेसबुक पर कुछ महीने पहले पढ़ा एक कमेंट याद आया. गोडसे के महिमा मंडन पर किसी व्यक्ति ने गांधी की उम्र का हवाला देते हुए उनके पक्ष में कुछ तथ्य रखे थे. उसके जवाब में किसी लडके का कमेंट था कि ‘कुछ भी हो, पेला खूब’. अस्सी साल के व्यक्ति की प्रार्थना सभा में धोखे से की गई हत्या पर सत्तर साल बाद एक भारतीय नवयुवक के मन में ऐसी भयानक ख़ुशी! गांधी के प्रति घृणा की यह मानसिकता कहां से पैदा होती है? भारत के लोग क्यों गाँधी की एक बार हत्या से संतुष्ट नहीं हैं? क्यों उसे बार-बार मारते हैं? मैं यह नहीं स्वीकार नहीं करता हूँ कि अकेला आरएसएस इसके लिए जिम्मेदार है.
बहरहाल, गांधी से हट कर बहस आरक्षण पर जम गई. वे दोनों लोग धुर आरक्षण विरोधी थे. आरक्षण के पक्ष में कोई सामाजिक-राजनीतिक तर्क उन्हें स्वीकार नहीं था. देश, समाज और मानवता के हित में उनके अपने ‘तर्क’ थे, जिनका वास्तविकता और तथ्यों से संबंध नहीं था. दुकानदार ने अंतत: कहा कि आरक्षित कोटे के डाक्टरों को केवल आरक्षित वर्ग के लोगों का इलाज़ करने देना चाहिए. दूसरे मरीजों को मारने का उन्हें क्या हक़ है? उन्होंने स्पष्ट कहा कि आरक्षण राजनैतिक पार्टियों की मज़बूरी हो सकती है, देशवासियों की मज़बूरी क्यों बने? बहस में ज्यादातर वहां बैठा युवक ही बोला. हम लोग म्याऊं-म्याऊं करते रहे. आखिर हम सबने चलने में ही भलाई समझी.
मैंने यह गौर किया कि वे दोनों लोग पूरी बहस में अनर्गल थे, लेकिन उग्र बिलकुल नहीं थे. युवक हँस-हँस कर सारी बात कर रहा था. हो सकता है दुकानदार का साथी भी छोटा-मोटा दुकानदार हो और उनका वैसा व्यवहार दुकानदारी के धर्म से जुड़ा हो. यह भी हो सकता है वे स्वभाव से अच्छे लोग हों. निकलने से पहले मैंने दुकानदार के साथी से पूछ लिया कि 2019 में क्या करा रहे हो? उसने आत्मविश्वास के साथ कहा, ‘पिछली बार की तरह केंद्र में मोदी और दिल्ली में केजरीवाल को लाना है’.
पुनश्च : नरेंद्र मोदी ने गांधी और अम्बेडकर को एक साथ अपनी जेब में डालने का कौतुक किया तो अम्बेडकरवादी और कुछ कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने हमला बोला कि आरएसएस अम्बेडकर को नहीं पचा सकता. गोया उन सबने अम्बेडकर को पूरा आत्मसात किया हुआ है! और आरएसएस के इस्तेमाल के लिए अम्बेडकर में कुछ बचा ही नहीं है! गांधी पंचायती बच्चा है ही. स्वार्थ पड़े तो पुचकार दो, नहीं तो लतियाए रखो. उस समय हमारे मन में ख़याल आया था कि आरएसएस पहले गांधी को लात मार कर नीचे गिराएगा या अम्बेडकर को? लगता है गांधी की बारी पहले आएगी. ‘हिंदू राष्ट्र’ का कुछ स्थायित्व होते ही आरएसएस साफ़ तौर पर कह देगा – गांधी की हत्या उसी की योजना थी. तब पूरे राष्ट्र में खुल कर मिठाई बांटी जायेगी – पूरी योजना के तहत. अगर किन्हीं साथियों को हमारी स्थापना से मतभेद है तो बेशक बताएं. हम विस्तार से जवाब देने के लिए तैयार हैं.