तकनीकी आधार पर बच्चों को दाखिले से वंचित करना अधिनियम की भावना के खिलाफ
सिटी मांटेसरी स्कूल के प्रबंधक जगदीश गांधी ने लखनऊ के सभी अखबारों में पूरे पृष्ठ के विज्ञापन निकाल कर यह कहा है कि वे तो शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत अलाभित समूह व दुर्बल वर्ग के बच्चों को कक्षा 1 से 8 तक निशुल्क शिक्षा देने हेतु दाखिला लेने को तैयार हैं किंतु बेसिक शिक्षा अधिकारी व जिलाधिकारी ने उनके यहां जिन बच्चों के दाखिले हेतु आदेश निकाले हैं वे सभी बच्चे अपात्र हैं। उनका कहना है कि ये बच्चे पात्रता के मानकों पूरा नहींे करते। कुछ का घर विद्यालय से एक कि.मी. से ज्यादा की दूरी पर है, जो आवश्यक रिहायशी शर्त ’पड़ोस’ की परिभाषा उ.प्र. सरकार ने 25 प्रतिशत उर्पयुक्त श्रेणी के बच्चों के दाखिले हेतु तय की है तो कुछ बच्चों की उम्र 6 वर्ष से कम है जबकि अधिनियम सिर्फ 6 से 14 वर्ष के बच्चों पर ही लागू होता है।
9 अगस्त 2017 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह ने छात्र चैतन्य देव, जिसके दाखिले का आदेश महर्षि पतंजलि विद्या मंदिर, तेलियरगंज, हलाहाबाद की नर्सरी कक्षा में हुआ था, के पिता सुधीर कुमार द्वारा दायर याचिका के आदेश में कहा है कि सरकारी विद्यालय में कक्षाएं नर्सरी, के.जी. नहीं होतीं किंतु जो निजी विद्यालय ये कक्षाएं चलाते हैं उनके यहां कक्षा 1 से नीचे के बच्चों हेतु नर्सरी, प्रेप व के.जी. कक्षाओं में दाखिले का प्रावधान भी अधिनियम में है। विद्यालय के अनुसार बच्चा ’पड़ोस’ में निवास नहीं करता। इस पर न्यायमूर्ति ने विद्यालय को फटकार लगाते हुए कहा कि उसने 202 बच्चों की जगह आरक्षित होते हुए भी एक भी बच्चे को अधिनियम की उर्पयुक्त धारा के तहत नहीं लिया इसलिए उन्हें चैतन्य देव को दाखिला देना ही होगा। उन्होंने कहा पड़ोस में न रहना बच्चे के बारे में तब देखा जाता जब विद्यालय 25 प्रतिशत अलाभित समूह व दुर्बल वर्ग के बच्चों को दाखिला दे चुका होता। न्यायमूर्ति ने विद्यालय द्वारा मामले को न्यायालय में अनावश्यक खींचे जाने व बच्चे का एक वर्ष बरबाद किए जाने के लिए विद्यालय पर दण्ड आरोपित करते हुए विद्यालय को आदेशित किया कि अब उसे चैतन्य देव को कक्षा 12 तक निशुल्क शिक्षा देनी होगी और यदि उनकी बस चैतन्य के घर की तरफ जाती है तो मुफ्त बस की भी व्यवस्था करनी होगी। न्यायमूर्ति ने कठोर रुख अपनाते हुए कहा कि कक्षा 1 से 8 तक तो उ.प्र. सरकार बच्चे के शुल्क की रु. 450 प्रति माह की दर से प्रतिपूर्ति करेगी किंतु कक्षा 9 से 12 तक विद्यालय को अपने खर्च पर चैतन्य को पढ़ाना है। बच्चे की पढ़ाई की पूूरी अवधि तक विद्यालय को बस की व्यवस्था मुफ्त करनी होगी।
उम्मीद है कि न्यायलय के इतने स्पष्ट आदेश के बाद अब अन्य विद्यालय अलाभित समूह व दुर्बल वर्ग के बच्चों को दाखिला देने में हीला-हवाली नहीं करेंगे। न्यायमूर्ति ने कहा कि तकनीकी कारण बता कर बच्चे का दाखिला न लेना अधिनियम की भावना के खिलाफ है। अधिनियम बनाया इसलिए गया है ताकि शिक्षा से वंचित बच्चों का दाखिला विद्यालयों में हो सके। यदि विद्यालय अपनी पूरी ऊर्जा इसी में लगा देंगे ताकि धारा 12(1)(ग) के तहत चयनित बच्चों के प्रवेश को किसी प्रकार रोक सकें तो अधिनियम का उद्देश्य ही धरा का धरा रह जाएगा।
शैक्षणिक सत्र 2015-16 में सिटी मांटेसरी, लखनऊ की इंदिरा नगर शाखा में 31 बच्चों के दाखिले का आदेश हुआ था जिसे मानने से विद्यालय के प्रबंधक जगदीश गांधी ने मना कर दिया था तथा वे न्यायालय चले गए थे। अंततः न्यायालय के आदेश से इनमें से 13 वाल्मीकि समुदाय के बच्चों का दाखिला हुआ। शैक्षणिक सत्र 2016-17 में सिटी मांटेसरी की विभिन्न शाखाओं में 55 बच्चों के दाखिले का आदेश हुआ लेकिन जगदीश गांधी ने पुनः एक भी दाखिला नहीं लिया। सिटी मांटेसरी का देखा-देखी भाजपा नेता सुधीर हलवासिया ने अपने विद्यालय नवयुग रेडियंस, जगदीश गांधी की दूसरी पुत्री सुनीता गांधी ने अपने विद्यालय सिटी इण्टरनेशनल, डॉ. विरेन्द्र स्वरूप पब्लिक स्कूल, महानगर व सेण्ट मेरी इण्टरमीडिएट कालेज की दो शाखाओं में भी बच्चों का दाखिला नहीं हुआ। कुल मिला कर 105 बच्चों को दाखिला न देकर उपर्युक्त विद्यालयों ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम का उल्लंघन किया।
इस वर्ष 2017-18 में जगदीश गांधी द्वारा निकाले गए विज्ञापन के अनुसार 296 बच्चों के दाखिले का आदेश सिर्फ सिटी मांटेसरी में ही हुआ है और उनके अनुसार इनमें से जिन 167 बच्चों ने उनको सम्पर्क किया है वे सभी के सभी बच्च अपात्र हैं क्योंकि किसी का घर विद्यालय से एक किलोमीटर से ज्यादा की दूरी पर है, किसी की उम्र 6 वर्ष से कम है, कोई पहले से किसी विद्यालय में पढ़ रहा है और कुछ बच्चे आर्थिक आधार पर पिछड़े वर्ग में नहीं आते। सिटी मांटेसरी की देखा-देखी ऐसे विद्यालयों की संख्या जो बेसिक जिलाधिकारी के आदेश के बावजूद दाखिला नहीं ले रहे प्रत्येक वर्ष बढ़ती ही जा रही है। सिटी मांटेसरी इस बात का तो दोषी माना ही जाएगा कि उसने अलाभित समूह व दुर्बल वर्ग के बच्चों के लिए निजी विद्यालयों में शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत दाखिला पाना अत्यंत कठिन बना दिया है।
यदि जगदीश गांधी की बात सही है तो लखनऊ के बेसिक शिक्षा अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए कि वे लगातार सभी अपात्र बच्चों के दाखिले का आदेश क्यों दे रहे हैं? यदि शासन-प्रशासन मानता है कि बेसिक शिक्षा अधिकारी सही हैं तो उसे विद्यालयों के खिलाफ कार्यवाही करनी चाहिए।
सवाल यह भी है कि जगदीश गांधी को बच्चों की जांच करने का अधिकार है भी क्या? यदि इसी तरीके से सम्बंधित गैर-सरकारी लोग योजनाओं के लाभार्थियों की जांच करने लगे, उदाहरण के लिए राशन की दुकान चलाने वाला यदि यह कहने लगे कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली हेतु लाभार्थियों का चयन गलत हुआ है और वह पहले अपनी जांच करेगा और तब सबको राशन देगा, तो सारी सरकारी व्यवस्था ही ठप्प पड़ जाएगी।
जगदीश गांधी ने विज्ञापन में कहा है कि उनकी और उनकी पत्नी की कोई निजी सम्पत्ति नहीं है। लोग जानना चाहेंगे कि वे जो विज्ञापन निकालने पर पैसा खर्च कर रहे हैं अथवा न्यायालयों में अथाह पैसा बहा रहे हैं वह कहां से आ रहा है? आखिर उनके पास शांति भूषण और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे वकीलों को देने के लिए पैसा है। क्या यह उनके यहां पढ़ने वाले बच्चों के शुल्क का पैसा है?
लेखकः संदीप पाण्डेय
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