जमीन की जंग

(यह लेख 2009 का है. आपके पढ़ने के लिए फिर दिया जा रहा है.)

जमीन लेंगे … और जान भी

प्रेम सिंह

जमीन की जंग

खेत, जंगल, नदी-घाटी, पठार, पहाड़, समुद्र के गहरे किनारे – हर जगह जमीन की अंतहीन जंग छिड़ी है। यह जंग जमीन पर बसने और उसे हथियाने वालों के बीच उतनी नहीं है, जितनी जमीन हथियाने वालों के बीच है। जमीन हथियाने वालों में छोटे-बड़े बिल्डिरों से लेकर देशी-विदेशी बहुराष्टीय कंपनियां शामिल हैं। भारत की सरकारें उनके दलाल की भूमिका निभाती देखी जा सकती हैं। वे बहुराष्टीय कंपनियों के लिए सस्ते दामों पर जमीन का अधिग्रहण करती हैं और प्रतिरोध करने वाले किसानों-आदिवासियों को ठिकाने लगाती हैं। ठिकाने वे किसानों-आदिवासियों के साथ जुटने वाले जनांदालनकारियों/सरोकारधर्मी नागरिकों को भी लगाती हैं। नवउदारवाद की शुरुआत से ही सभी सरकारें ‘जनहित’ का यह काम तेजी और मुस्तैदी से कर रही हैं। हम जमीन के अधिग्रहण या खरीदी को हथियाना इसलिए कहते हैं कि देश में लोकतंत्र होने के बावजूद जिनकी जमीन है उन्हें, पहली छोड़िए, बराबर की पार्टी भी नहीं माना जाता। उनसे पूछा तक नहीं जाता। सरकारें जो तय कर देती हैं, वही उन्हें मंजूर करना पड़ता है।

अंग्रेजों ने 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया था जो आज भी चलता है। उस कानून के तहत सरकारें जनहित में किसी भी किसान या गांव की जमीन का अधिग्रहण कर सकती हैं। नवउदारवादी दौर में इस कानून के इस्तेमाल में तेजी आई है। विशेष आर्थिक जोन (सेज) कानून उसी उपनिवेशवादी कानून का विस्तार है। 2005 में बना और 2006 व 2007 में संशोधित हुआ यह कानून एक ‘ट्रेंड सैटर’ है। चीन के 6 विशेष आर्थिक क्षेत्रों का हवाला देते हुए जिस तरह से सेज के नाम पर जमीन की लूट-मार मची (2009 के मध्य तक 578 सेज स्वीकृत हुए हैं), उसे देखकर लगता है भारत में ‘सेज-युग’ आ गया है।

यह हकीकत बहुत बार बताई जा चुकी है कि सेज पूंजीपतियों के मुनाफे के विशेष क्षेत्र हैं जहां भारतीय संविधान और कानून लागू नहीं होते। सेज इस सच्चाई का सीध सबूत हैं कि भारत की सरकारों के लिए जनहित का अर्थ पूंजीपतियों का हित बन गया है। इसी अर्थ में हमने सेज को ‘टेंड सैटर’ कहा है। तर्क दिया गया है कि सेज को अवंटित जमीन भारत की कुल कृषि योग्य भूमि का एक निहायत छोटा हिस्सा है। सवाल यह नहीं है कि सेज के हवाले की गई जमीन कितनी है, सवाल सरकारों और पूंजीपतियों की नीयत का है। यह नीयत भरने वाली है।

सेज की आलोचना और विरोध करने वाले लोगों की आवाज सरकारों के संवेदनहीन रवैये के आगे मंद पड़ गई है। दरअसल, सरकारों का यह रवैया बन गया है कि पूंजीपतियों के हित का काम कर गुजरो, कुछ दिन हो-हल्ला होगा, फिर विरोध का नया मुद्दा आ जाएगा और पिछला पीछे छूट जाएगा। इसी रवैये के तहत सरकारें पिछले बीस सालों में एक के बाद एक जन-विरोधी देश-विरोधी फैसले लेती और उनके विरोध की अनदेखी करती गई हैं। नवउदारवादी दौर का यह इतिहास पढ़ना चाहें तो वह अभी हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के परचों, पुस्तिकाओं और लघु पत्रिकाओं में दर्ज है। विद्वानों के लेखन का विषय वह अभी नहीं बना है। विद्वानों के सामने शोध के बहुत-से नवउदारवाद-सम्मत विषय हैं, जिनमें एक औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ संघर्ष करने वालों के चरित्र और चिंतन में कीड़े निकालना भी है।

सेज पूंजीवादी साम्राज्यवाद के तरकस से निकला एक और तीर है जिसे देश में पूंजीवादी साम्राज्यवाद के एजेंटों ने भारत माता की छाती बेधने के लिए चलाया है। देश की संप्रभुता और जनता के खून के प्यासे ये एजेंट राजनीति, नौकरशाही, और पूंजीपतियों से लेकर बौद्धिक हलकों तक पैठे हुए हैं। एक ताजा उदाहरण लें। देश में आलू के बाद उत्पादन में दूसरा स्थान रखने वाले बैंगन को लेकर बहस चल रही थी कि देश में बीटी बैंगन के उत्पादन की स्वीकृति दी जाए या नहीं। देश में कई नागरिक और जनांदोलनकारी संगठन इसका विरोध कर रहे थे। उन्होंने अपना विरोध बड़ी संख्या में नागरिकों के हस्ताक्षरों समेत सरकार के सभी महत्वपूर्ण पदाधिकारियों तक पहुंचा दिया था।

आप जानते हैं इससे पहले बीटी कॉटन के उत्पादन की स्वीकृति मिली थी। महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में सबसे ज्यादा किसानों की आत्महत्या के पीछे एक प्रमुख कारण बीटी कॉटन की खेती में लगने वाला घाटा माना गया। उसकी काट के लिए बीज का व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीच्यूट (आईएफपीआरआई) नाम का अमेरिकी ‘थिंकटैंक’ भारत भेजा। उसने यह ‘सिद्ध’ किया कि आत्महत्या के कारणों में बीटी बॉटन की खेती का घाटा नहीं है।

कपास इंसान के खाने के काम नहीं आती। अनाज और सब्जियां जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों से उगाना अप्राकृतिक लिहाजा असुरक्षित है। हालांकि, समस्त विरोध के बावजूद मुनाफाखोर कंपनियों के सामने पेश नहीं पड़ती है। क्योंकि देश के कर्णधारों के साथ उनका ‘नेक्सस’ बना हुआ है। इस जानी-मानी सच्चाई की जाने-माने मोलेक्युलर बायोलॉजिस्ट डॉ. पीएम भार्गव ने हाल में एक बार फिर पुष्टि की है। डॉ. भागर्व जीएम फूड की स्वीकृति के लिए बनी जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) में सुप्रीम कोर्ट के नुमाइंदे थे। कमेटी ने डॉ. भागर्व के विरोध के बावजूद बीटी बैंगन के उत्पादन की स्वीकृति दे दी है। डॉ. भागर्व कहते हैं देश के नेताओं, प्रशासकों, वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों का बहुराष्टीय कंपनियों के साथ ‘नेक्सस’ बना हुआ है। जीईएसी की स्वीकृति भारत में बैंगन की फसल पर एकाधिकार करने के बहुराष्ट्रीय कंपनियों के षड़यंत्र का नतीजा है। उन्होंने इस स्वीकृति को देश पर आने वाली सबसे बड़ी आपदाओं में माना है।

देश के कृषिमंत्री कहते हैं कमेटी का निर्णय अंतिम हैं, सरकार की उसमें कोई भूमिका नहीं है। वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश कहते हैं सरकार का यह अधिकार, बल्कि जिम्मेदारी है कि वह जनता की सुरक्षा के मामले में कमेटी की अनुशंसाओं पर अपना स्वतंत्र निर्णय ले। हम जानते हैं सरकार का वह निर्णय कमेटी का निर्णय बदलने वाला नहीं होगा। इस मामले में होगा वही जो कंपनियां चाहती हैं। मंत्रियों का आपसी विवाद वास्तविक विरोध से ध्यान भटकाने के लिए हो सकता है। हम चाहते हैं ऐसा न हो, लेकिन अभी तक के अनुभव को देखते हुए जयराम रमेश के वक्तव्य के पीछे अपना ‘हिस्सा’ सुनिश्चित करना भी हो सकता है। कृषिमंत्री शरद पवार राष्ट्रवादी कांग्रेस के हैं, जयराम रमेश कांग्रेस के। भोपाल गैस कांड के अनुभव से हम अच्छी तरह जानते हैं कि डॉ. भार्गव जैसे वैज्ञानिकों/विशेषज्ञों का बाद में पता नहीं चलता। या तो वे सरकार की राय के हो जाते हैं या हटा दिए जाते हैं।

भारत माता की छाती पर जमे ये पीपल, जैसा कि हमने मनमोहन सिंह के संदर्भ में पहले कहा है, साम्राज्यवाद की संतान हैं। इनका बीज औपनिवेशिक दौर में पड़ा था जो भूमंडलीकरण के दौर में माकूल खाद-पानी पाकर लहलहा उठा है। आज यह अतिशयोक्ति लग सकती है, लेकिन जल्दी ही एक दिन ऐसा आ सकता है जब साम्राज्यवाद की ये संतानें कहें कि 1857 तो गलत हुआ ही, 1947 उससे भी ज्यादा गलत हुआ; बीच में विभिन्न धाराओं के स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा स्वतंत्रता, स्वराज, समता और स्वावलंबन की पुकार न लगाई होती तो भारत को विकसित और महाशक्ति होने के लिए 2020 तक इंतजार नहीं करना पड़ता। आपको याद होगा यह तारीख पूर्व ‘वैज्ञानिक’ राष्टपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने तय की थी। हालांकि अवकाश प्राप्ति के अवसर पर उन्हें यह तारीख नजदीक खिसकती नजर आई। उन्होंने आतुर भाव से कहा, ‘भारत 2020 से पहले भी महाशक्ति हो सकता है।’

सेज की तरफ लौटें। देश के कई भागों में किसानों के प्रतिरोध और सिंगुर और नंदीग्राम में उनकी हत्याओं के बाद जो कुछ नेता ‘किसानों के हित’ में सेज कानून 2005 में कुछ सुधार करने का सुझाव दे रहे थे, वे उस समय भी मौजूद थे जब किसानों को बरबाद और देशी-विदेशी पूंजीपतियों को मालामाल करने वाला यह कानून बना था। ‘सुधारवादियों’ से स्वर मिलाते हुए सोनिया गांधी का कहना कि सेज के लिए खेती की जमीन नहीं दी जानी चाहिए; भारतीय रिजर्व बैंक का बैंकों को यह निर्देश देना कि सेज विकसित करने वाली कंपनियों को उसी आधर पर कर्ज दिया जाए जिस आधार पर रीयल इस्टेट का धंधा करने वालों को दिया जाता है; सेज को ‘टैक्स स्वर्ग’ बनाने के मामले में उस समय के वित्तमंत्री पी चिदंबरम की शुरुआती आपत्ति आदि से सरकार के भीतर तालमेल के अभाव का भले ही पता चलता हो, कानून को लेकर असहमति किसी की नहीं थी। किसानों के विरोध के बाद जिस तरह से सभी राजनैतिक पार्टियों की ओर से कानून में सुधार और संशोधन की आवाज उठी, उससे एकबारगी लगा गोया यह कानून संसद ने नहीं कंपनियों ने बनाया है!

सेज के लिए कर्ज और टैक्स के लिए क्या नीति हो; बंजर भूमि दी जाए या उपजाऊ; जमीन लेने से पहले किसानों की अनुमति ली जाए या नहीं; मुआवजे की दर और पुनर्वास की नीति क्या हो; प्रभावित किसानों को रोजगार दिया जाए या सहभागिता – ये जो सारे मुद्दे उठाए गए, उन पर जो बहस चली और उनका जो भी समाधान निकला अथवा नहीं निकला, सच्चाई यही रही कि पूंजीवादी-साम्राज्यवादी विकास में किसानों-आदिवासियों को समाप्त होना है। किसानों-आदिवासियों की समाप्ति का मतलब है कारीगरों और छोटे दुकानदारों का भी समाप्त होना।

पूंजी की रंगभूमि

देश के नगर-महानगर भी जमीन की जंग से बाहर नहीं हैं। विदेशी हो या निजी, मुनाफाखोर पूंजी का अड्डा पूरी शानो-शौकत के साथ शहरों में जमता है। प्रेमचंद के उपन्यास का शार्षक उधार लें तो कह सकते हैं नगर-महानगर पूंजी की ‘रंगभूमि’ हैं। यहां जमीन हथियाने के लिए गांव तो गंदी बस्ती में तब्दील किए ही जाते रहे हैं, गंदी बस्तियों की जमीन हथियाने के लिए दंगों तक का सहारा लिया जाता है। झुग्गी-झोंपड़ियों में आग लगा दी जाती है। शहरों में जमीन का चक्कर गरीबों को ही नहीं, अमीरों को भी नचा रहा है। विभिन्न महकमों की या स्वतंत्र समूह आवास सोसायटियों की मार्फत सरकार से सस्ती जमीनें लेकर बनीं या खुद सरकारों द्वारा बनाई गई कॉलोनियों के कम अमीर वाशिदों को नए ज्यादा अमीर खरीदार और बिल्डर भारी-भरकम रकम देकर ‘विस्थापित’ कर रहे हैं। यह सिलसिला शहर के विकास के छोर तक चलता चला जाता है।

अब जमीन हथियाने के लिए सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं या सार्वजनिक-निजी भागीदारी के नाम पर उन्हें निजी पूंजी के हवाले किया जा रहा है। निजी स्कूलों के लिए जमीन का टोटा न कभी पहले था, न अब है। नए खुलने वाले निजी और विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए जमीन शहरों में ही चाहिए। उन्हें मिल भी रही है। कमी पड़ती है तो आस-पास के गांवों तक शहर पहुंचा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली की उत्तरी सीमा पर हरियाणा के 6 गांवों की उपजाऊ जमीन जबरन अधिग्रहित करके राजीव गांधी एजुकेशन सिटी बनाया जा रहा है। जमीन हरियाणा सरकार ने ‘जनहित’ के नाम पर ली है, लेकिन एजुकेशन सिटी की योजना से लेकर निर्माण तक सारा काम विदेशी संस्थाएं/कंपनियां कर रही हैं। अपनी जमीन के अधिग्रहण का विरोध करने वाले या ज्यादा मुआवजा चाहने वाले किसानों को अदालत से भी राहत नहीं मिली।

गांव के किसान व्यापार नहीं कर पाते। उनका मीजान एक-दो छोटी-मोटी नौकरी और जम कर खेती करने में ही बैठता है। हर जगह छिड़ी जमीन की जंग के चलते अब यह भी आसान नहीं रहा कि किसी दूसरे इलाके में जाकर जमीन खरीद ली जाए और खेती की जाए। मुआवजे का पैसा बरबाद होने में देर नहीं लगती। कोठियां बन जाएंगी, कारें आ जाएंगी, दुकानें खुल जाएंगी। गांव कुछ सालों में गंदी बस्तियों में तब्दील हो जाएंगे। पिछले अंक में हमने आपको बताया था पचास-सौ साल बाद ‘साहब लोग’ कहेंगे इन गंदी बस्तियों को हटा कर कहीं दूर बसाओ। मोतीलाल नेहरू स्पोर्ट्स स्कूल भी कभी न कभी वहां से हटा दिया जाएगा। राजीव गांधी एजुकेशन सिटी में एनआरआई और दिल्ली समेत अन्य नगरों के नवधनाढ्य वर्ग के बच्चे शिक्षा पाएंगे। यह जरूरी है क्योंकि वैसी शिक्षा विदेशों में बहुत मंहगी पड़ती है। अब तो उसमें जान-जोखिम भी हो गया है। इन 6 गावों अथवा हरियाणा के अन्य गांवों के कुछ बच्चे वहां दाखिला पा सकते हैं, लेकिन वे फिर गांव के नहीं रह कर कंपनियों के बच्चे बन जाएंगे। पूरे देश में देहात के साथ यही कहानी चल रही है।

शहरों में स्थित सरकारी कॉलिजों और विश्वविद्यालयों की जमीन पर अभी सरकारी स्कूलों जैसा हमला नहीं है। उन्हें बंद करके सीधे या पार्टनरशिप में निजी/विदेशी पूंजी का अड्डा बनाना अभी कठिन होता है। लेकिन वहां भी रास्ता निकाल लिया गया है। उच्च शिक्षा की सरकारी संस्थाओं में तेजी से नवउदारवादी अजेंडे की घुसपैठ बनाई जा रही है। यानी उन्हीं विषयों को शिक्षा बताया और बढ़ाया जा रहा है जो बाजार में बिकते हैं। यहां एक उदाहरण आपको देना चाहेंगे। कुछ साल पहले देश के मूर्द्धन्य दिल्ली विश्वविद्यालय की इमारतों का सौंदर्यीकरण करने के लिए इंग्लैंड से बड़ी मात्रा में विदेशी धन आया था। उस धन से बने कला संकाय और केंद्रीय संदर्भ पुस्तकालय के प्रवेशद्वार पर ‘यूनीवर्सिटी प्लाजा’ लिखा गया है। उसी समय विद्यार्थी युवजन सभा ;वियुसद्ध के एक सदस्य राजेश रौशन ने प्लाजा के सभी शब्दकोशीय अर्थ देकर कुलपति को पत्र लिखा था कि शिक्षा-स्थल के लिए प्लाजा शब्द का उपयोग गलत है, लिहाजा उसे हटाया जाए। वह पत्र ‘दि हिंदू’ अखबार में भी प्रकाशित हुआ था। लेकिन आज तक उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

आमतौर पर जब किसानों की जमीन हथियाने का विरोध किया जाता है तो उस विशेष कानून में खामियां निकाली जाती हैं, जिसके तहत सरकारें जमीन हथियाती हैं। ज्यादातर तो उचित मुआवजा देने और सही से पुनर्वास करने की मांग की जाती है। आदिवासी अलबत्ता जमीन न देने के लिए अड़ते हैं। उनके संघर्ष में जनांदोलनकारी संगठन जुटते हैं। नक्सलवादी-माओवादी आंदोलन भी जनांदोलन है जो संघर्ष का हिंसक रास्ता अपनाता है। किसानों का संघर्ष ज्यादातर ज्यादा मुआवजा पाने के लिए होता है। किसानों के साथ नेता होते हैं। ऐसे नेता जो फिलहाल सत्ता में नहीं होते। सत्ता बदलने पर किसानों के हिमायती नेता भी अक्सर बदल जाते हैं।

मांगें न आदिवासियों की पूरी होती हैं, न किसानों की। क्योंकि मूलभूत सच्चाई यह है कि किसानों-आदिवासियों के लिए इस व्यवस्था में जगह नहीं है। यानी किसान-आदिवासी रहते कोई जगह नहीं है। हम उनके विकास के जटिल प्रश्न को भूल नहीं रहे हैं। लेकिन विकास के प्रचलित मॉडल में उनकी आहुति ही होनी है। जब सिंगूर और नंदीग्राम के किसानों का संघर्ष चल रहा था, पूंजीवादी विकास की शराब पीकर मतवाले हुए बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपनी जान में लाख टके का सवाल दागा – ‘क्या किसान का बेटा किसान ही रहेगा?’ पलट कर उनसे पूछा जा सकता है – क्या आप किसान के बेटों को टाटा-अंबानी बनाने जा रहे हैं? ऐसा नहीं है भविष्य में खेती नहीं होगी। कारपोरेट खेती होगी, जिसे मुनाफे के लिए कारपोरेट जगत कराएगा। सेज आने के पहले कारपोरेट खेती का फरमान जारी हो चुका था। कहने का आशय है कि किसानों-आदिवासियों की जमीन और जिंदगी से बेदखली कोई फुटकर घटना नहीं है। यह आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का अविभाज्य ‘कर्तव्य’ है।

बड़ी पूंजी और उच्च तकनीकी पर आधरित उपभोक्तावादी सभ्यता कायम करना पूंजीवादी साम्राज्यवाद का ध्येय रहा है। उसे जल, जंगल, जमीन, पहाड़, जैविक संपदा – सब चाहिए। उसकी राक्षसी भूख अनंत है। लिहाजा, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और लूटपाट होना लाजिमी है। इस रास्ते पर उसने औपनिवेशिक दौर में तीन-चौथाई दुनिया के संसाधनों को लूटा, आबादियों का सफाया किया और कई विशाल भूभागों पर कब्जा कर लिया। यह सब करने के लिए उसके पास मानव प्रगति के इतिहास में क्रांतिकारी होने का प्रमाणपत्र था, जो केवल पूंजीवादी विचारकों ने नहीं, समाजवादी चिंतक कार्ल मार्क्स ने भी दिया था। उसी प्रमाणपत्र के बल पर पूंजीवादी साम्राज्यवाद आज तक उन आबादियों का सफाया करने में लगा है, जो उसके विकास में आड़े आती हैं। खेती-किसानी, कारीगरी, खुदरा दुकानदारी आदि में लगी आबादियां ऐसी ही हैं। पूंजीवादी साम्राज्यवाद को पूरी दुनिया में कायम होना है, तो दुनिया में बची इन आबादियों का सफाया होना लाजिमी है। यह उनकी नियति है। मार्क्स ने भी ‘भोंदू’ और ‘प्रतिक्रियावादी’ किसानों की इस नियति को देख लिया था।

उपनिवेशवादी दौर के बाद स्वतंत्र हुए देशों में विकास का मॉडल पूंजीवादी ही रहा, इसलिए स्वतंत्रात के बावजूद उनमें आंतरिक उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया चलती रही। विकास का मॉडल वही होने के चलते समाजवादी व्यवस्था वाले देशों में भी स्थिति ज्यादा भिन्न नहीं रही। लेकिन स्वतंत्रता संघर्ष की कुर्बानियों और मूल्यों के चलते आंतरिक उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया धीमी गति से चलती थी। जैसे ही भूमंडलीकरण के रास्ते नवसाम्राज्यवाद की वापसी और साम्राज्यवाद की संतानों की प्रतिष्ठा हुई, इन अभागी आबादियों के विस्थापन और विनाश की प्रक्रिया में एक बार फिर तेजी आ गई है।

1997 से अब तक अब करीब दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का आंकड़ा है कि 2008 तक 199,132 किसानों ने आत्महत्या की है। गैर-सरकारी हवाले यह संख्या कहीं ज्यादा मानते हैं। वह हो भी सकती है। कल्पना कीजिए अगर देश में 100 पूंजीपति आत्महत्या कर लेते तो क्या कोहराम मचता? लेकिन इतने बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्या और आदिवासियों के विस्थापन के साथ व्यवस्था का काम बखूबी चलता रहता है। किसानों पर क्या कर्ज होता होगा जो पूंजीपतियों पर होता है! लेकिन वे कभी आत्महत्या नहीं करते। यह उनकी अपनी व्यवस्था है। सरकार उन्हें कर्ज माफी के साथ और कर्ज देती है। वे भव्य चैंबरों में सीधे प्रधनमंत्री और वित्तमंत्री से मिलते हैं। कृषिमंत्री और कृषि वैज्ञानिक उनकी मदद और हाजिरी में होते हैं। किसान-आदिवासी कहीं प्रतिरोध करते हैं तो पुलिस बल भेज कर उन पर गोली चलवाई जाती है। कलिंगनगर-काशीपुर से लेकर सिंगुर-नंदीग्राम, दांतेवाड़ा, दिल्ली की जड़ में नोएडा तक किसानों-आदिवासियों की जान और जमीन दोनों ली जा रही हैं। देश की सभी राजनैतिक पार्टियों, उनके बुद्धिजीवियों, यहां तक की देश की सर्वोच्च अदालत को यह मंजूर है। इस व्यवस्था में किसानों को आत्महत्या करने की अनुमति है, विरोध करने की नहीं!

जान के मायने

पिछले करीब पंद्रह सालों से देश-भर में नारा गूंजता है – ‘जान दे देंगे जमीन नहीं देंगे’। हम लोग मध्य प्रदेश में संघर्ष के दौरान एक जोरदार गीत गाते हैं। गीत का मुखड़ा है – ‘जान जावे तो जाए, पर हक्क न मेरा जाए’। जाहिर है, जान देने का नारा इसलिए दिया जाता है कि अपनी सरकार है, जान की कीमत पर जमीन भला क्यों लेगी? अंग्रेजी हुकूमत तो है नहीं, कि नरम नहीं पड़ जाएगी? लेकिन सरकारें अपनी रह नहीं गई हैं। वे हक के साथ जान भी लेने में नहीं हिचकतीं। आप झट से कह सकते हैं कि तब तो नक्सलवादी ठीक ही हिंसा का रास्ता अख्तियार किए हुए हैं। क्रांति न हो, दो-चार को मार कर मरते हैं। ‘महाशक्ति’ भारत के ‘ईमानदार’ प्रधनमंत्री मनमोहन सिंह, ‘त्याग की देवी’ सोनिया गांधी और उनके सिपहसालार ठीक यही चाहते हैं।

नक्सलवाद भारत की सबसे विकट समस्या नहीं है, यह बच्चा भी बता देगा। लेकिन प्रधानमंत्री उसे बार-बार देश की सबसे विकट समस्या बताते हैं। यह दरअसल हकीकत नहीं, उनकी मंशा है। हिंसक व्यवस्था के एजेंट को हिंसक प्रतिरोध चाहिए। ताकि सेना भेज कर ‘विकास विरोधियों’ की हत्या के अभियान को तेज किया सके। हर पार्टी के ‘विकास पुरुष’ उनके साथ हैं। शायद ही किसी ने नक्सलवादियों पर सेना से हमले करने के उनके मंसूबे का गंभीर विरोध किया हो। दरअसल, जल-जंगल-जमीन के हक की लड़ाई लड़ने वाले सभी संगठनों और लोगों को मनमोहन सिंह मंडली जल्दी से जल्दी निपटा देना चाहती है। ध्यान कर लें, उनके इस मंसूबे में देश का लोकतंत्र भी निपट सकता है!

जरूरी नहीं कि सभी किसान, आदिवासी, छोटे दुकानदार आत्महत्या कर लें या प्रतिरोध करते हुए मारे जाएं। भारत की विशाल आबादी के मद्देनजर यह असंभव है। आधुनिक सभ्यता में खेती एक अधम पेशा है, वह भी घाटे का। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि किसान घाटे की खेती से निजात पाने या आधुनिक उपभोक्तावाद की चकाचौंध में खुद जमीनें बेचने का फैसला कर रहे हैं। आदिवासी, दलित और अति पिछड़ी जातियां इस व्यवस्था को अपनी विकास परियोजनाओं में हाड़-तोड़ मेहनत करने के लिए जिंदा चाहिए। उनका अपने घरों और फिर परियोजना दर परियोजना से मुसलसल विस्थापन होते रहना है। इस तरह भारत की यह विशाल आबादी काफी बड़ी तादाद में लंबे समय तक जिंदा रहेगी। लेकिन उनके होने का कोई मोल या मीजान इस व्यवस्था में नहीं होगा।

मनुष्य की जान केवल शरीर नहीं होती। उसमें बहुत कुछ होता है। कुछ अच्छा होता है, कुछ बुरा होता है। अच्छाई क्या है यह जानने; उसे पाने; कायम करने; और उतरोत्तर उन्नत करने का उद्यम मनुष्य करता है। उसी क्रम में बुराई की पहचान और परहेज का विवेक भी बनता चलता है। अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष चलता है। अच्छाई में कुछ बुराई समा जाती है, बुराई में कुछ अच्छाई। अलबत्ता, ऐसा माना जाता है कि संघर्ष के पीछे अच्छाई की प्रेरणा होती है, या होनी चाहिए; अच्छाई की जीत की इच्छा और इच्छा-शक्ति भी; ताकि हम निरे बुरे न बन जाएं। मनुष्य का यह सांस्कृतिक संघर्ष है जो चिरकाल से चला आया है। बुराई से निरंतर लड़ने के लिए मनुष्य/समाज का सख्तजान होना जरूरी होता है। अगर वह जमीन से, श्रम से जुड़ा है, तो सख्तजान होगा। जमीन से काट दिए जाने पर उसकी जान जाती रहेगी। किसानों-आदिवासियों की वही हालत है। जिंदा रहने पर भी वे बेजान हैं।

किसानों-आदिवासियों को सामंती संस्कृति का बुरा अवशेष माना जाता है। जबकि वे सामूहिकता और श्रम की संस्कृति की संतान हैं। यह स्पष्ट हो चुका है कि शोषणमूलक ठल्लू सामंती संस्कृति पूंजीवाद के साथ मिल कर बची रहती है। लेकिन सहयोग, श्रम और प्रकृति से साहचर्य पर आधारित किसान-आदिवासी संस्कृति को विनष्ट और विकृत किया जाता है। ग्राम-विकास की बात हो तो आजादी के समय से ही रही है, लेकिन उसका अर्थ होता है गांव को शहर बनाना – गांव होने के ‘पाप’ को मिटाना। हम यह नहीं कहते कि गांव आदर्श या निष्पाप उपस्थिति थे। लेकिन वे थे और बड़ी तादाद में थे, तो ग्राम-विकास की गांव-केंद्रित योजनाएं बननी चाहिए थीं। यह लोकतंत्र का भी तकाजा था, समाजवाद का भी और धर्मनिरपेक्षता का भी। लेकिन एक अंधविश्वास की तरह मान लिया गया कि गांव गंदे होते हैं और वे सभी शहर बन जाएंगे। गांधी की बात बिल्कुल नहीं सुनी गई।

अंबेडकर नेहरू की तरह गांवों को बुरा मानते थे। लेकिन उनका वैसा मानने का विशेष संदर्भ था। उन्होंने दलितों को सलाह दी थी कि वे जातिवाद के दंश और प्रताड़ना से बचने के लिए गांवों से शहर आकर बसें। दलितों के लिए यह बिल्कुल सही सलाह थी। लेकिन दलित लेखकों की आत्मकथाएं पढ़ कर पता चलता है कि शहरों में भी वे अछूत ही बने रहे। गांवों में रहने वाले दलित गांधी-अंबेडकर के समय से और ज्यादा अछूत बन गए हैं। शहर आकर बसने वाले दलित तक अब उनके पास नहीं जाना चाहते।

गांव से उभरने वाली आवाज को दबा दिया गया। वह दमित होकर विकृत हुई और विध्वंसक भी। जिस देश में सरकारें सत्ता का खुला और भरपूर दुरुपयोग करती हों, माफिया अपनी सरकार चलाते हों, वहां खाप पंचायतें हत्या के फरमान जारी न करें, यह कैसे संभव है? खाप पंचायतों का युवक-युवतियों की हत्या का फैसला देना मध्ययुगीन बर्बरता का अवशेष नहीं, आधुनिकता का ही एक विकृत रूप है। करीब आठ लाख गांवों और छोटे कस्बों के देश को नगरीय सभ्यता में बदलने के अव्यावहारिक उद्यम का यही नतीजा होना था। और अव्यावहारिक बता दिया गया गांव-स्वराज की बात करने वाले गांधी को! दरअसल, सामंती संस्कृति वाया पूंजीवाद समाजवाद में प्रवेश कर जाती है। फिर तीनों की ताकत किसान-कारीगर-आदिवासी संस्कृति पर हमला बोलती है। अपनी मेहनत से थोड़े में गुजारे का आदर्श न सामंतवाद में था, न पूंजीवाद में है। वैज्ञानिक समाजवाद में भी समानता का भौतिक लक्ष्य सबको सेठ-साहूकारों जैसा अमीर बनाना है। उसीसे समाजवादी नेताओं, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों को अपने शानो-शौकत भरे जीवन की वैधता हासिल होती है।

चर्चा को समेटें। बड़ी से बड़ी पूंजी और उन्नत से उन्नत तकनीकी भारत की एक अरब बीस करोड़ आबादी को ‘विकसित’ नहीं बना सकती। जिस नौ-दस प्रतिशत विकास-दर का राग प्रधनमंत्री गाते नहीं थकते, उससे एक यूरोपीय देश के बराबर की आबादी का ही दोयम दर्जे का विकास हो सकता है। वही हो रहा है। बाकी सब अंधविश्वास है और अंधकार है। किसान-आदिवासी बच सकें और एक बेहतर जीवन-स्तर और जीवन-शैली के हकदार हों, तो पूंजीवादी साम्राज्यवाद को खारिज कर उसका विकल्प तैयार करना होगा। ऐसा करना आसान हो सकता है, अगर आधुनिक बुद्धि यह स्वीकार करे कि पूंजीवाद मानव प्रगति का क्रांतिकारी चरण नहीं था। यह धारणा तर्कसम्मत नहीं हो सकती कि कोई चरण शुरू में क्रांतिकारी हो और बाद में प्रतिक्रियावादी-फासीवादी-साम्राज्यवादी बन जाए। जबकि उसने शुरू में ही अलग-अलग भूभागों में अनेक आबादियों का लगभग समूल नाश कर दिया और उनके समस्त संसाधनों पर कब्ज़ा जमा लिया।

लेनिन समेत सभी कम्युनिस्ट विचारक साम्राज्यवाद को पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था मानते हैं। लोहिया का कहना है कि पूंजीवाद का अस्तित्व बिना साम्राज्यवाद के संभव ही नहीं होता। उन्होंने अपने मशहूर लेख ‘मार्क्सोत्तर अर्थशास्त्र’ में मार्क्स के पूंजीवाद के अध्ययन की एकांगिता का उल्लेख करते हुए बताया है कि उन्नीसवीं सदी के जिस पूंजीवाद को मार्क्स अपने अध्ययन का आधार बनाते हैं, उसमें यूरोप द्वारा बाकी दुनिया की लूट की अनदेखी की गई है। पूंजीवाद के क्रांतिकारी होने और साथ ही श्रम, आपसी सहकार और प्रकृति के साहचर्य से बनी किसान-आदिवासी जन-संस्कृति को सामंती मानने की भ्रांति का निवारण जब तक नहीं होता, तब तक किसानों-आदिवासियों की जमीन और जान दोनों ली जाती रहेंगी।

दिसंबर 2009

पुनश्च : मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पद ग्रहण करने पर सबसे पहले उपनिवेशकालीन ‘भूमि अधिग्रहण कानून’ में किसानों के हित में हुए कतिपय प्रावधानों को निरस्त करने के लिए अध्यादेश लेकर आए। हमने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कारपोरेट का ‘रोबो’ कहा था; नरेंद्र मोदी को कारपोरेट का ‘डिजिटल टॉय’ कहा जा सकता है।


Dr. Prem Singh
Dept. of Hindi
University of Delhi
Delhi – 110007 (INDIA)
Mob. : +918826275067

Former Fellow
Indian Institute of Advanced Study, Shimla
India

Former Visiting Professor
Center of Oriental Studies
Vilnius University
Lithuania

Former Visiting Professor
Center of Eastern Languages and Cultures
Dept. of Indology
Sofia University
Sofia
Bulgaria

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