समय आ गया है निजी विद्यालयों को स्थाई रूप से बंद करने का
निजी विद्यालयों ने मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के क्रियान्वयन से बचने के लिए 7 अप्रैल 2018 को एक दिवसीय बंद का आयोजन किया। इन विद्यालयों को अधिनियम के माध्यम से तथा कई राज्यों द्वारा शुल्क निर्धारण के लिए ली गई पहल से सरकारी हस्तक्षेप नामंजूर है। कल तक ये मनमाने तरीके से अपने विद्यालय चलाते रहे। आज इन्हें यह पसंद नहीं आ रहा कि कम ये कम 25 प्रतिशत अलाभित समूह या दुर्बल वर्ग के बच्चे अब इनके यहां दाखिले हेतु दावा कर सकते हैं जिनके दाखिले का निर्णय बेसिक शिक्षा अधिकारी जैसा जिले स्तर का अधिकारी लेगा। इन विद्यालयों का कहना है कि इनकी गुणवत्ता प्रभावित होगी। इनकी दूसरी शिकायत यह है कि उपर्युक्त धारा के तहत दाखिला प्राप्त बच्चों की शुल्क प्रतिपूर्ति सरकार समय से नहीं कर रही और यह राशि कम है। तीसरी इनकी शिकायत है कि जिन बच्चों के दाखिले का आदेश हो रहा है वे पात्र नहीं हैं, कोई पड़ोस की परिभाषा पर खरा नहीं उतरता तो कोई 6 वर्ष से कम आयु के होते हैं जबकि अधिनियम 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु के बच्चों पर लागू होता है।
यदि बच्चों की आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को भी ध्यान में रखा जाए तो इस बात का कोई सबूत नहीं है कि निजी विद्यालयों में पढ़ाई की गुणवत्ता सरकारी विद्यालयों से अच्छी है। बल्कि सरकारी विद्यालय के शिक्षक को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है क्योंकि उसके पास कई बच्चे ऐसे आते हैं जो अपने परिवारों की लिखना-पढ़ना सीखने वाली पहली पीढ़ी होती हैं। इससे उलट निजी विद्यालयों में भारी भरकम शुल्क देकर जो बच्चे पढ़ने आते हैं उन्हें कोचिंग, आदि की ऐसी सुविधाएं मिलती हैं कि विद्यालय का शिक्षक मेहनत न भी करे तो वे अच्छे अंक ले आएंगे।
लखनऊ के सबसे बड़े विद्यालय सिटी मांटेसरी स्कूल, जिसकी 18 शाखाएं हैं, ने पिछले तीन वर्षों में उपर्युक्त अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत सिर्फ 13 बच्चों को, वह भी न्यायालय के आदेश, दाखिला दिया है। क्या 13 बच्चों का शुल्क समय से न आ पाने के कारण 55,000 बच्चों को पढ़ाने वाले सिटी मांटेसरी की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है? जनता को नियम-कानून समझाने वाले ये विद्यालय अन्य नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए कैसे संचालित होते है इसका सबसे बढ़िया उदाहरण तो सिटी मांटेसरी विद्यालय ही है। इसकी इंदिरा नगर शाखा बिना अनापत्ति प्रमाण पत्र व भूमि प्रमाण पत्र के न जाने कैसे आई.सी.एस.ई. की मान्यता लिए हुए है? आवास विकास परिषद के अनुसार न तो इसका मानचित्र स्वीकृत है और न ही इसके भवन निर्माण को अनुमति मिली है। बल्कि भवन के खिलाफ 21 वर्षों से ध्वस्तीकरण आदेश था जिस पर कभी अमल नहीं हुआ। 4 जनवरी 2018 को विद्यालय को घ्वस्तीकरण पर भले ही स्थगनादेश मिल गया परन्तु सवाल यह है कि अवैध भवन में विद्यालय को मान्यता कैसे मिल सकती है?
6 वर्ष की न्यूनतम आयु सीमा इसलिए रखी गई है क्योंकि सरकारी व्यवस्था में पढ़ाई कक्षा 1 से शुरू होती। निजी विद्यालय के.जी., नर्सरी, आदि कक्षाएं भी चलाते हैं हलांकि इन कक्षाओं की कहीं से कोई मान्यता नहीं होती है। अधिनियम के अनुसार जहां पूर्व-प्राथमिक स्तर पर ये कक्षाएं चलती हैं वहां भी शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होगा। जाहिर है कक्षा के.जी. या नर्सरी में बच्चे की उम्र 6 वर्ष से कम ही होगी। अतः यह भ्रमित करने वाली बात है कि अधिनियम 6 वर्ष से कम बच्चों पर लागू नहीं है।
लखनऊ के हरीनगर, लक्ष्मणपुरी इलाके में स्थित एक विद्यालय यूनिवर्सल मांटेसरी स्कूल व गल्र्स इण्टर कालेज, ने कक्षा 1 में पढ़ने वाले एक छात्र अंश कुमार निषाद जिसका दाखिला अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत हुआ था को परीक्षा में असफल कर निकाल दिया। लखनऊ के ही बुद्धेश्वर इलाके में स्थित एक दूसरे वि़द्यालय आर.डी. मेमोरियल इण्टर कालेज ने कक्षा 5 में पढ़ने वाले एक छात्र सोहित पाल को परीक्षा में बैठने नहीं दिया चूंकि उसके नल मिस्त्री पिता एक दुर्घटना की वजह से चार माह का शुल्क नहीं दे पाए। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत किसी भी बच्चे को कक्षा 8 तक रोका नहीं जा सकता। इस तरह ये निजी विद्यालय खुले आम इस प्रावधान की धज्जियां उड़ा रहे हैं।
अंश कुमार निषाद ने जब एक दिन विद्यालय में शौच कर दिया तो उसकी मां को बुला कर शौच साफ कराया गया। क्या किसी शुल्क देकर पढ़ाने वाले माता-पिता के साथ भी विद्यालय ऐसा करता? इसी विद्यालय ने पूरे साल अंश को किताब, आदि नहीं दिया जबकि प्रबंधक ने ये खरीद कर रखे हुए थे क्योंकि अंश के पिता के पास इनकी कीमत रु. 1,200 देने के लिए नहीं थे। प्रदेश सरकार द्वारा पोशाक व पुस्तकों हेतु दिया जाने वाले रु. 5,000 सालाना की राशि शैक्षणिक सत्र 2017-18 खत्म होने पर आई। साल के अंत में प्रबंधक ने जिन किताबों को बच्चे को दिया नहीं गया उनके पैसे पिता से मांगे।
निजी विद्यालयों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा अब हो गया है उनके शुल्क निर्धारण के लिए सरकार द्वारा ली जा रही पहल। मुख्य रूप से बंद इसी के खिलाफ है क्योंकि इसमें अल्पसंख्यक विद्यालय भी शामिल हैं जिनके ऊपर शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) लागू नहीं होती। गुजरात सरकार ने प्राथमिक विद्यालयों के लिए सालाना रु. 15,000 व माध्यमिक के लिए रु. 20,000-25,000 शुल्क की अधिकतम सीमा तय कर दी है। उ.प्र. गुजरात से गरीब राज्य है। यहां तो यह सीमा प्राथमिक के लिए रु. 6,000 और माध्यमिक के लिए रु. 10,000 होनी चाहिए।
यदि निजी विद्यालय किसी नियम-कानून से बंधना न चाहें तो इन्हें एक दिन के लिए ही क्यों इन्हें तो हमेशा के लिए बंद ही करा देना ठीक होगा। जब तक निजी विद्यालय रहेंगे सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता प्रभावित होगी। सरकारी विद्यालयों की व्यवस्था को ठीक करके ही गरीब के बच्चे को अच्छी शिक्षा मिल पाएगी। 2015 को न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल का फैसला कि सरकारी वेतन पाने वालों के बच्चे सरकारी विद्यालय में पढ़ें को लागू किया जाना चाहिए। अब तो न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल व न्यायमूर्ति अजीत कुमार ने यह भी कह दिया है कि सरकारी वेतन पाने वाले सरकारी अस्पताल में ही इलाज कराएं और वहां भी अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कोई विशेष सुविधा नहीं मिलेगी। यदि देश की शिक्षा-चिकित्सा व्यवस्था ठीक करनी है तो इसका यही एकमात्र उपाय है।
1968 की कोठरी आयोग की सिफारिश – देश में समान शिक्षा प्रणाली को लागू किया जाए। निजी विद्यालय या तो अधिनियम के नाम के अनुसार मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा दें जिसके लिए संसाधन अभिभावक से शुल्क रूप में न लेकर समाज से जुटाएं अथवा इनका राष्ट्रीयकरण कर लिया जाए।
लेखकः संदीप पाण्डेय
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